-कुमार सौवीर||
नोएडा: लगातार दो रात-दिन तक महुआ समूह के सैकड़ों कर्मचारी नोएडा मुख्यालय में जमे रहे। भूखे-प्यासे। आशंकाओं के बीच झूलते। लेकिन महुआ मालिकों के साथ राणा-भुप्पी की जुगलबंदी चलती रही। और अब राणा-भुप्पी की इस जुगलबंदी ने एक नया राग छेड़ दिया है कि वे न्यूजमैन हैं और चाहे कुछ भी हो जाए, हमेशा पत्रकारों के साथ ही रहेंगे।
लोगों के गले तक राणा की यह बात किसी भी तरह नहीं उतर रही है। महुआ के मौजूदा हालातों के मद्देनजर उत्तेजित कर्मचारियों का आरोप है कि राणा-भुप्पी की यह रणनीति मुंह में राम, बगल में छूरी की तरह मानी जा रही है। आलोक उपाध्याय का नाम खास तौर पर उल्लेखनीय है, जिनका एक दुर्घटना के चलते हाथ टूट गया था। छुट्टी की अर्जी पड़ी तो भद्दी-भद्दी गालियां देते हुए जवाब दिया गया कि यह महुआ है, विकलांग-असहाय लोगों का आश्रम नहीं है। आरोप तो यहां तक हैं कि राणा-भुप्पी की जुगलबंदी के चलते ही डेढ सौ कर्मचारियों का ही भविष्य अंधकारमय नहीं हुआ है, बल्कि इन दोनों लोगों के चलते पूरा महुआ समूह प्रबंधन भी आम की तरह चूसा डाला चुका है। जाहिर है कि इसका खामियाजा अब पूरा समूह बुरी तरह भुगतेगा।
राणा-भुप्पी की जुगलबंदी की करतूतें दिल्ली में आम हैं। घोटालों से लेकर रंगदारी मांगने जैसे अनेक मामलों के किस्से बूटा-पत्ता तक को पता है। आजतक न्यूज चैनल के नाम पर हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री से दस करोड़ की घूस मांगने की सीडी सार्वजनिक रूप से जारी करते हुए इस चैनल के मुखिया ने इन लोगों को बाकायदा लतियाते हुए चैनल के दफ्तर से निकाल कर बाहर किया था। इसके बाद से इनकी हांडी महुआ में चढ़ गयी तो बल्ले-बल्ले ही हो गयी। कर्मचारियों के हितैषी बनने का ढोंग तो इन लोगों ने पहले ही शुरू कर दिया जब महुआ समूह में इन लोगों की शुभ-चरण-धूलि पड़ गयी। बस हो गया इस समूह के बंढाधार होने का श्रीशगुन। न्यूजमैन बनने का ढोंग करने वाले इन लोगों ने समूह से सबसे पहले ऐसे पुराने लोगों को बेइज्जत करते हुए निकाला, जिन लोगों ने अपने खून-पसीने से इस समूह को सींचा था। वह भी तब, जब इन लोगों के वेतन बेहद कम थे और समूह ने इन लोगों को जरूरी संसाधन तक नहीं मुहैया कराया था। लेकिन इसके बावजूद यह कर्मचारी लगे रहे, डटे रहे। हर घर तक महुआ का डंका बजने तक।
लेकिन अचानक अभी सवा साल पहले यशवंत राणा और भूपेंद्र नारायण सिंह उर्फ भुप्पी की जुगलबंदी ने शुरू किया अपनी साजिशों के साथ समूह को नोंचने-खींचने की तबाही का किस्सा। पीके तिवारी को इन लोगों ने लालच दिया कि वे अपने राजनीतिक हितैषियों से महुआ को भारी आर्थिक और प्रतिष्ठा कमाने में समक्ष होंगे। पीके तिवारी ज्यादा हासिल करना चाहते थे, इसीलिए इनके झांसे में आ गये। पीके तिवारी को समझाया गया कि पहले महुआ में जमे लोग महुआ के नये तेवर के सामने बाकायदा कीड़ा-मकोड़े हैं, इसलिए पहले इन्हें लतियाकर बाहर निकाला जाए। बड़े संख्या में ऐसे लोगों को महुआ से निकाला गया जिन्होंने अपने खून-पसीने से महुआ को सींचते हुए महुआ को पुष्पित-पल्लवित किया था। निकाले गये लोगों को निकालने के दौरान न तो उन्हें वाजिब बकायों का भुगतान किया गया और न ही उनकी किसी भी तरह की जिम्मेदारी संस्थान ने नहीं निभायी। रामपुर कोर्ट में चल रहे महुआ वाले मुकदमे पर यशवंत सिंह ने मुझे साफ कहा कि उस मामले में संस्थान का कोई मतलब नहीं है और आप लोग अपने मामले खुद निपटायें। जबकि रामपुर कोर्ट का मुकदमा पीके तिवारी के खिलाफ था, जिसे अकेले मैं जूझ रहा था।
खैर। राणा-भुप्पी। इन दोनों लोगों ने बाकायदा अपना गिरोह बनाया और इधर-जिधर से सारे नमूनानुमा पत्रकारिता के नाम ढोते-बटोरते लोगों को महुआ में घुसेड़ लिया। इनमें से ज्यादातर लोगों की तनख्वाहें एक-एक लाख से ऊपर ही थी। सूत्र बताते हैं कि महुआ में अपनी पैठ बनाने की साजिशों के चलते ही चैनल में कामधाम तो नहीं हुए, लेकिन इसके बल पर ज्यादातर लोगों ने अपने स्थाई आशियाने तैयार करने शुरू कर दिए। इसी के चलते ही किसी ने देहरादून में तो किसी ने पटना ने अपने निजी पत्रकारिता संस्थान खड़े कर लिए। मूर्खतापूर्ण खबरें चलने लगीं जिनका मकसद केवल खास लोगों को लाभ पहुँचाना होता था। बाकी लोगों ने भी बहती गंगा में हाथ धो लिया। जिसके मन जो आया, उसने वही किया। मन नहीं हुआ, तो काम किया ही नहीं। जो आउटपुट इंचार्ज थे, उन्हें पिछले साल तक कोई खबर ही नहीं देखी। जो इनपुट थे, उन्होंने किसी रिपोर्टर से बात ही नहीं की। अपनी अभद्रता के चलते महुआ से निकाले गये एक दबंग को नये निजाम ने वापस घुसेड़ने के लिए एक नायाब तरीका अपनाया। एक फर्जी टाइप चैनल का बड़ा पत्रकार बनाकर इस शख्स को इस जुगलबंदी ने पेश किया और महुआ में बड़ा पद नवाज दिया। इस जुगलबंदी का यह सिपहसालार अब इस आंदोलन का नेतृत्व करते हुए महुआ प्रबंधन को गालियां देता घूमता है। किस्साकोताह यह कि महुआ में भेंडियाधसान शुरू हो गया। महुआ कर्मचारियों में चल रहीं चर्चाओं के मुताबिक इस जुगलबंदी ने पीके तिवारी को मकड़े की तरह फंसाया। शुरूआत में बिजनेस बढ़ाने के नाम पर महुआ का पैसा लुटाया गया, फिर पीके तिवारी पर पड़े संकट से बचाने के लिए नोटों की गड्डियां लुटाईं गयीं और जब पीके तिवारी के सामने इन लोगों की पोल खुलने लगी और उनके पेंच पीके तिवारी ने कसने शुरू कर दिये, तो उनके खिलाफ मामला भड़काने की साजिशें कर उन्हें जेल बंद करा दिया।
तो, यह रही हैं राणा और भुप्पी की यह कारतूतें। न जाने कितने लोगों की नौकरी खा जाने वाला यह शख्स किस मुंह से खुद को पत्रकार और न्यूजमैन कहता है, समझ से परे है। शर्मनाक यह कि पत्रकार के हित और पत्रकारिता का वास्ता देता है, लेकिन लगातार दो दिनों से चल रहे इस श्रमिक असंतोष और अनशन के दौरान लगातार यह शख्स केवल दूसरे लोगों को भड़का रहा रहा है।