-दिलीप सिकरवार||
हमने बडी सफलता हासिल कर ली। खुश हो सब। भई बात ही कुछ ऐसी है। हम आरक्षण से महिलाओं को दी गई उस जगह की बात कर रहे है, जहां अब तक हमारे कर्णधार सुशोभित कर रहे थे। आज हर कही नारी शक्ति ही नजर आ रही है। जमीन पर रेलगाडी की कमान इनके हाथ मे है। आसमान मे वायुयान इन्हीं के इशारों पर चलता है। वाह! अपनी पीठ थप-थपा लेना चाहिये। अब यह बात दूजी है कि रेलगाडी से और वायुयान से नीचे उतरने पर नारीशक्ति की शक्ति क्शींण हो जाती है।
नर प्रधान समाज मे नारी का यह अतिक्रमण, जिसे हक कहा जा सकता है, बर्दाश्त से बाहर होता है। यदि नारी को हक मिल भी गया तो वह स्टाम्प भर होती है। यकीन भले ही न हो परन्तु सच्चाई तो यही है साहब। अपने आसपास नजर घुमाइये। रबर स्टाम्प तो साहब कोई भी हो सकता है। इसके प्रकार कई होते है। एक प्रकार सब जानते है। ग्रामीण बोली मे उसे ठप्पा कहते हैं। आजकल स्टाम्प के नाना प्रकार हैं। इंसानों की भी एक किस्म रबर स्टाम्प सरीखी आ गई हैं। जिसे जब चाहो, जहां चाहो ठोक दो। रबर स्टाम्प के नाम अलग-अलग हो सकते हैं। पीएम स्टाम्प, सीएम स्टाम्प, डीएम स्टाम्प और हां जड मे जाएं तो एसपी स्टाम्प। यह स्टाम्प का बडा जोर है साहब। एसपी नाम आते ही शरीर पर झुनझुनी आ गई। मानों बर्फ की सिल्ली पर बिठा दिया हो। यहां जिस एसपी स्टाम्प की चर्चा हो रही है, वो आयपीएस नही पीएसपी है। यानि पंचायत सरपंच पति। और भइया गजब का रूतबा है इनका। पिछले दिनों अध्ययन के दौरान मुझे पंचायतों के काम-काज से करीब से रू-ब-रू होने का अवसर मिला। इसे सौभाग्य ही कहना ठीक होगा। इसलिये नही कि पंचायतें और उनका काम नजदीक से देखा। यह कह सकता हूं कि जो परदा आंखों के सामने था वह हट गया।
अधिकांश पंचायतें इन एसपियों के भरोसे है। नाम पत्नी का। काम निबटा रहे पतिदेव। बडा समन्वय है इनका। सरपंच पत्नी को तो खबर ही नही होती और पति जिम्मेदारी मुस्तैदी से निभा देते हैं।अब यह महाशय अर्धांगना बन गये है। चौबीसों घंटे कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं। उस पर तर्क यह कि जमाना अच्छा नही है। महिला को अकेले नही छोड सकते। पर भइया, पंचायत तो गांव मे लगती है ना। कोई जंगल मे थोडे ही बैठक होती है। पंचायतों मे कागजी कार्रवाई से लेकर निर्णय तक सारे कार्य यही एसपी करते है। रबर स्टाम्प तो इनके जेब मे रहता है। शहर से सटे गांव हो या फिर सुदूर अंचल। सभी जगह एक सा वातावरण बना हुआ है। आरक्शण की मांग शायद इसी वजह से आगे बढ सकी। नाम उनका और काम इनका। इसे महिला बढावा योजना नही कह सकते। यह तो महिला को आगे करके स्वंय सिद्धा बनने की कहानी है। निदेशक महोदय चाहे तो इस पर एक बढिया सी फिल्म बन सकती है। शूटिंग करने के लिये लोकेशन स्वयं देख लें या फिर आदिवासी बहुल इलाके काम आ सकते हैं। अधिकांश सरपंच पति की मनमानी से गांव त्रस्त है। पंचायत के निर्णय से लेकर दफतरी का कार्य स्वंय पति करते हैं। महिला सरपंच बनाने की मंशा ही काफूर हो गई। शिकायत हो या समस्या एसपी सुनते ही नही। अपनी ढपली-अपना राग अलापना इनका शगल बन गया है। साहब, यहां तो हर शाख पर उल्लू बैठा है, अंजाम-ए-गुलिस्तां क्या होगा? अधिकांश क्षेत्रों मे एसपी कमान संभाले हुए हैं। अपने आमिर भैया को यह देखकर खुशी होगी कि उनकी जंग का असर समाज पर दिखाई देने लगा। भ्रूण हत्या पता नही रूकी या नही परन्तु नारी को बनावटी हक तो पुरूष प्रधान समाज मे मिल ही गया। भले ही वह स्टाम्प बतौर हो।
लेखक ’हमवतन’ दिल्ली के ब्यूरोचीफ हैं।
Reservation se isa hi hoga.Agar koyee mahila apne bal per post par aayegi tow aisa nahin hoga
Now as per policy 50% seats are reseverved in all Municipal Local body if they only if nod the heads , with out active participation , or on instructions of their Husbands etc then they are only for show/ in voting just like rubber stamp on instructions of the leaders Then what is use ??