कहते हैं पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहाराव लाख विरोधाभासों और हंगामों के बीच इसलिए अपना कार्यकाल सफलतापूर्वक पूरा कर गए कि उन्हें चुप रहने की कला आती थी। लगता है मनमोहन सिंह भी इसी फॉर्मूले पर अमल कर रहे हैं। अब तो उन्होंने बाक़ायदा ये गुरुमंत्र पत्रकारों से साझा भी किया है।
मनमोहन सिंह ने सेना प्रमुख वीके सिंह से जुड़े विवादों पर बोलने से परहेज करते हुए कहा कि कुछ मौकों पर चुप रहना स्वर्णिम होता है। प्रधानमंत्री म्यांमार की तीन दिवसीय यात्रा से स्वदेश लौटते समय विशेष विमान में संवाददाताओं से बातचीत कर रहे थे।
ग़ौरतलब है कि जनरल वीके सिंह की जन्मतिथि को लेकर उनकी सरकार से तकरार होती रही है। वो चाहते थे कि उनकी जन्मतिथि 1950 के बजाय 1951 माना जाए। आखिरकार यह विवाद सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा लेकिन सरकार की दलील ही सही मानी गई। सरकार ने कहा कि उसका इरादा जनरल सिंह को झुकाना नहीं था।
इसके तुरंत बाद जनरल सिंह पूर्वोत्तर में सैन्य अभियान चलाने पर लेफ्टिनेंट जनरल बीएस सुहाग को कारण बताओ नोटिस जारी कर एक अन्य विवाद में फंस गए। सुहाग को सेना प्रमुख के उत्तराधिकारी के रूप में देखा जा रहा था, मगर उत्तराधिकार अंतत: लेफ्टिनेंट जनरल बिक्रम सिंह को मिला है।
इसके अलावा वीके सिंह पर ट्रक खरीद घोटाला और सेना की एक बड़ी टुकड़ी को बिना इज़ाजत दिल्ली कूच करवाने के आरोप भी लगाए गए थे, लेकिन सेना प्रमुख उनमें भी बेदाग साबित हुए और उल्टे सरकार की ही किरकिरी हुई।
कहने से क्या हाशिल, कुछ कहने पे तूफ़ान उठा लेती हैउ दुनिया. और यहाँ मेरी समझ से यह भी बात चरितार्थ हो रही है — " हाथी चले बाज़ार कुत्ता भूके हज़ार".