-उपेंद्र राय-
जिंदगी में कोई शॉर्टकट नहीं होता है. कुछ पाने के लिए कड़ी मेहनत करनी ही पड़ती है.
सफलता के लिए लक्ष्य का पता होना चाहिए, मेहनत और लगन के साथ सही मार्गदर्शन भी होना चाहिए. लेकिन अब यह परिभाषा बदल रही है. सफलता का शॉर्टकट बाजार में बिकने लगा है. इसकी मांग तेजी से बढ़ रही है और खरीदार इसकी कोई भी कीमत देने को तैयार हैं.
मैं बात कर रहा हूं रियलिटी शोज की. म्यूजिकल शोज के जरिए देश को कई कलाकार मिले हैं. सोनू निगम और श्रेया घोषाल मिले हैं. अभिजीत सावंत और श्रीराम जैसों को इंडियन आइडल जीतने का फायदा हुआ. रियलिटी शोज के जरिए रातों-रात सुपरस्टार्स बनने के कई उदाहरण हैं. लेकिन इनके साथ-साथ जरा उनके बारे में सोचिए जो हार गए और जिनके सपने पूरे नहीं हुए. कुछ प्रतियोगियों ने तो सही सबक लेकर वापसी की पर कई डिप्रेशन में चले गए और कुछ ने तो खुदकुशी तक की कोशिश की. शुक्र है कि इन रियलिटी शोज में भाग लेने वालों को जीत-हार की समझ होती है. जीतकर भी सहज रहने की समझ होती है और हारकर भी वापसी की तमन्ना रहती है.
लेकिन कई ऐसी प्रतियोगिताएं हैं जहां भाग लेने वालों को जीत-हार का मतलब भी पता नहीं होता. मैं बात कर रहा हूं बच्चों के रियलिटी शोज की. एक ऐसे ही रियलिटी शो के बारे में एक न्यूज एजेंसी की रिपोर्ट चौंकाने वाली थी. 12 साल का एक प्रतियोगी अपने पिता के साथ हजारों मील दूर से शो में भाग लेने आता है. शाम के पांच बजे हैं. सुबह से उसने कुछ नहीं खाया है.
बच्चा चिल्ला रहा है कि उसे भूख लगी है. लेकिन उसके पिता उस पर और रियाज का दबाव बना रहे हैं. बच्चे की बारी एक घंटे बाद आएगी जो उसके आगे चार-पांच घंटे तक चल सकता है. बच्चा तब तक भूखा रहेगा. उसके पिता का कहना है कि उन्होंने बच्चे के स्कूल से इस बात की इजाजत ले ली है कि उसे एक साल परीक्षा नहीं देने की छूट मिले. उनका कहना है कि वह एक छोटे शहर में रहते हैं लेकिन बड़े शहरों के सपने देखते हैं. रियलिटी शो जीतकर उनका बेटा उनके सपने को पूरा कर सकता है. पिता के सपने पूरे होंगे और बच्चा रातों-रात स्टार बन जाएगा. परिवार की जिंदगी सेट हो जाएगी. उन्हें इसकी परवाह नहीं है कि वे अपने बेटे से उसका बचपन छीन रहे हैं. परिवार का बोझ उसके कोमल कंधे पर डाल रहे हैं.
एक म्यूजिकल रियलिटी शो में देश भर से करीब पचास हजार बच्चे ऑडिशन देते हैं. ऐसे शोज हर साल होने लगे हैं. इसके अलावा डांस, कॉमेडी और अलग-अलग टैलेंट के कई और शोज भी चल निकले हैं. कुल मिलाकर ऐसे शोज में हर साल लाखों बच्चे भाग लेते हैं. इनमें जीतने वालों की संख्या दस से ज्यादा नहीं है. एक तरह से ये रियलिटी शोज ग्रेट इंडिया लॉटरी शो हैं. लॉटरी लगी तो रातों-रात करोड़पति नहीं तो सांप-सीढ़ी के खेल की तरह धड़ाम से नीचे.
यह बच्चों के साथ मजाक नहीं तो और क्या है. वे अब मां-बाप के सपनों की सीढ़ी हो गए हैं. मां-बाप बच्चों के जरिए अपने अधूरे सपने पूरा करना चाहते हैं. इसमें कोई बुराई भी नहीं है. असफल एक्टर अपने बच्चे को सुपरस्टार बनाना चाहता है तो क्लर्क अपने बेटे को आईएएस बनाना चाहता है. लेकिन सपनों को पूरा करने के लिए शॉर्टकट का सहारा नहीं लिया जाता. रियलिटी शो की लॉटरी का टिकट नहीं लिया जाता. बच्चे को अच्छे से पढ़ाया-लिखाया जाता है. जो खिलाड़ी बनना चाहता है उसे उम्दा ट्रेनिंग दिलवाई जाती है. हर किसी की कोशिश होती है कि उसका बच्चा दुनिया में अव्वल मुकाम हासिल करे.
रियलिटी शो के नाम पर बच्चों से क्या-क्या करवाया जा रहा है- भद्दे डांस, घिनौने संवाद, द्विअर्थी गाने. टेलीविजन स्क्रीन पर यह सब देखकर ग्लानि होती है. उस बच्चे के बारे में सोचिए जिसे इसमें भाग लेना होता है. छोटी उम्र में पूरी दुनिया के सामने उसकी रैंकिंग की जाती है, उसे बताया जाता है कि एक परफेक्ट गाना या डांस नहीं करके उसने कितना बड़ा गुनाह किया है. बचपन में उस पर फेल्योर का तमगा लगा दिया जाता है, जिस बोझ के साथ उसे बाकी जिंदगी जीनी है. ऊपर से मां-बाप के ताने कि ऐसे बच्चे का क्या जो उनके सपने भी न पूरा कर सके. क्या ऐसा बच्चा बाकी जिंदगी एक सामान्य इंसान की तरह जी पाएगा.
बच्चों के चेहरे पर हार की हताशा से दिल सिहर जाता है. माना कि गरीबी है, आगे बढ़ने के मौके कम हैं, क्वालिटी शिक्षा की कमी है और जो उपलब्ध है वह महंगी है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बच्चों को लॉटरी खरीदना सिखाया जाए, रियलिटी शो के जुए में झोंका जाए, सफलता का शॉर्टकट आजमाने के लिए उकसाया जाए.
मैं रियलिटी शोज का विरोधी नहीं हूं. छुपे टैलेंट को सामने लाने में इनका बड़ा योगदान है. लेकिन इन शोज से बच्चों को दूर रखने में ही हम सबकी भलाई है. टीआरपी के नाम पर बच्चों को गिनी पिग बनाना बिल्कुल बेमानी है.
ईसा मसीह ने कहा था कि धन्य हैं वह इंसान जो कतार में आखिरी होने में समर्थ है. लेकिन हम अपने बच्चों को अव्वल बनाने के फेर में ये भूल जाते हैं कि जीवन की पहली सीढ़ी पर ही हम उनके जीवन में ऐसा जहर घोल देते हैं कि बच्चा बचपन में प्यार और लगाव की भाषा भूलकर प्रतिद्वंद्विता की भाषा सीख जाता है. क्लास में अव्वल तो एक ही आ सकता है. रियलिटी शो में टॉप एक ही कर सकता है. लेकिन जो दौड़ में पीछे छूट जाते हैं उनके बारे में कौन सोचता है? वे लोग भी अपने ही हैं. बाद में उनका दुख-दर्द कौन बांटता है?
पूरी दुनिया में हजारों किताबें, अनेक विद्यालय-विश्वविद्यालय खुल रहे हैं लेकिन हर जगह अव्वल आने की शिक्षा दी जा रही है. कहीं यह नहीं बताया जा रहा कि पहले के चक्कर में जो बच्चे पीछे छूट जाते है, उनको अपमान का जो स्वाद बचपन में लग जाता है, उससे उन्हें कैसे बचाएं? कहीं न कहीं हमारी शिक्षा और सामाजिक सोच में बुनियादी खोट है. इस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है.
मां-बाप होने के नाते इतनी हिम्मत जुटाने की जरूरत है कि अगर हमारा बच्चा अच्छा गायक बनना चाहता है तो बेसिक शिक्षा के बाद पूर्ण रूप से गायक बनने की सुविधाएं उसे दें. अगर बेटी नृत्यांगना बनना चाहती है तो उसे वह प्रशिक्षण दिलवाएं. हो सकता है इस प्रयास में हम एक सुंदर समाज बना सकें, जहां व्यक्ति वहीं होगा जहां होने के लिए प्रकृति ने उसे पैदा किया. मुझे लगता है कि तब कहीं जाकर एक स्वस्थ और कुंठारहित समाज बनेगा.
(उपेंद्र राय सहारा न्यूज नेटवर्क के एडिटर एवं न्यूज डायरेक्टर हैं। ये आलेख उनके कॉलम नज़रिया से साभार लिया गया है।)