पिछले वर्ष हिंदी के जिन चार प्रमुख कवियों- शमशेर, अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन की जन्मशती मनायी गयी और अब भी यत्र-तत्र मनायी जा रही है, उनमें आरंभ से अब तक, अशोक वाजपेयी और उनके सहयोगियों ने अज्ञेय को शीर्ष स्थान पर रखते हुए उन्हें ‘नायक’ का दर्जा देने के कम प्रयत्न नहीं किये हैं।
ताजा उदाहरण कोलकाता की नेशनल लाइब्रेरी के भाषा भवन में आयोजित त्रिदिवसीय अज्ञेय जन्म शताब्दी समारोह (21-23 फ़रवरी 2012) है। चालीस-बयालीस साल पहले का समय कुछ और था, जब अज्ञेय के नौवें कविता-संकलन ‘कितनी नावों में कितनी बार’ (1967) की समीक्षा में अशोक वाजपेयी ने अज्ञेय को ‘बूढ़ा गिद्ध ’ कहा था। ‘बूढ़ा गिद्ध क्यों पंख फ़ैलाये’ शीर्षक से लिखित पुस्तक समीक्षा में अशोक वाजपेयी ने यह लिखा था कि अज्ञेय ने अपने पुनर्संस्का।र की कोई गहरी कोशिश नहीं की है, कि वे ‘गरिमा और आत्मसंतुष्टि के द्वंद्व से घिर कर, बल्कि उनकी गिरफ्त में आकर’ लिखते हैं। उस समय उन्होंने अज्ञेय के काव्य-संसार को ‘सुरक्षित और समकालीन दबावों से मुक्त’ कहा था। उत्सवधर्मिता को कविता का स्थायी भाव न मानने वाले तब के अशोक वाजपेयी के लिए आज उत्सवधर्मी आयोजनों का कहीं अधिक महत्व है।
अस्सी के दशक के आरंभ में अज्ञेय ने ‘जय जानकी यात्रा’ एवं ‘भागवत भूमि यात्रा’ आरंभ की थी। लगभग इसी सम विश्व हिंदू परिषद (विहिप) ने तीन प्रमुख तीर्थयात्राओं की योजना 16 नवंबर 1983 से 16 दिसंबर 1983 तक बनायी थी। एक महीने की यह तीर्थयात्रा संपूर्ण भारत के लिए थी- ‘गंगा जल या एकात्मता यात्रा’, हरिद्वार से रामेश्वरम तक, दूसरी एकात्मता यात्रा, पशुपतिनाथ से कन्याकुमारी तक और तीसरी एकात्मता यात्रा, गंगासागर से सोमनाथ तक।
1984 में विहिप ने अपने प़्रोग्राम में ‘राम’ के नाम का उपयोग नहीं किया था। ऐसा पहला प्रयत्न उसने 1987 में ‘राम-जानकी धर्म यात्रा’ में किया। इसी वर्ष 4 अप्रैल को अज्ञेय का निधन हुआ। अभी इस पर विचार नहीं हुआ है कि अज्ञेय की ‘जय जानकी यात्रा’ एवं ‘भागवत भूमि यात्रा’ से विहिप की ‘राम-जानकी धर्मयात्रा और आडवाणी की ‘राम यात्रा ’ (25 सितंबर 1990) को कोई प्रेरणा मिली या नहीं?
अज्ञेय ने किसी भी राजनेता से ज्ञानपीठ पुरस्कार लेने से इनकार किया था। उन्हें 14वां ज्ञानपीठ पुरस्कार 28 दिसंबर 1979 को कलकत्ता में नृत्यांगना रुक्मिणी देवी अरुंडेल ने दिया था। ‘स्टेट्समैन’ ने उस समय यह लिखा था कि इस वर्ष एक पत्रकार ने ज्ञानपीठ प्राप्त किया है।
अज्ञेय ने ‘सैनिक’, ‘विशाल भारत’, ‘प्रतीक’, ‘दिनमान’, ‘एवरीमैंस’, ‘नया प्रतीक’ और ‘नवभारत टाइम्स’ का संपादन किया था। कोलकाता में में आयोजित त्रिदिवसीय सेमिनार में विचारणीय विषय ‘अज्ञेय के सरोकार’, ‘अज्ञेय के शहर’ और ‘अज्ञेय की यायावरी’ थे। अशोक वाजपेयी अज्ञेय और शमशेर पर हुए लगभग 200 आयोजनों और इन पर लिखित तीस से चालीस पुस्तकों के प्रकाशन का जब उल्लेख करते हैं, तब किसी की भी यह जिज्ञासा हो सकती है कि ‘अज्ञेय के सरोकार’ और शमशेर, केदार और नागार्जुन के सरोकार क्या एक हैं और अगर इसमें भिन्नता है, तो वह कहां-कैसी है?
अज्ञेय जन्मशती समारोह में राजनेताओं, अधिकारियों, अभिनेता-अभिनेत्रियों की मुख्य उपस्थिति होनी चाहिए या कवियों-लेखकों की? कविता-पाठ कवियों को क्यों नहीं करना चाहिए? उद्घाटन सत्र में उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने ‘कोलकाता को देश की सांस्कृतिक राजधानी’ कहा, जबकि बाद के सत्र में अज्ञेय के शहर में वक्ताओं -श्रोताओं को मिला कर कुल 25 लोग उपस्थित थे। दो-तीन हिंदी लेखकों को छोड़ कर कलकत्ता का कोई हिंदी लेखक-कवि वहां उपस्थित नहीं था।
अज्ञेय हिंदी के सभी कवियों-लेखकों के ‘प्रेरणा-पुरुष ’ नहीं हो सकते। हिंदी की सरहपाद से लेकर आज तक की मुख्य काव्यधारा जन और लोक से जुड़ी हुई है। अज्ञेय का संपूर्ण साहित्य जन और लोक से विमुख है। उन्होंने अपनी एक कविता में स्वयं को ‘चुका हुआ ’ कहा है, जबकि शमशेर घोषित करते हैं -‘चुका भी नहीं हूं मैं’।
निश्चित रूप से वे ऐसे महत्वपूर्ण लेखक हैं, जो अनेक हिंदी कवियों-लेखकों के लिए न जरूरी रहे, न महत्वपूर्ण। उनका साहित्य बौद्धिक और आधुनिक है, पर उनकी आधुनिकता देशज और भारतीय नहीं है। वह नेहरू की आधुनिकता से मेल खाती है। अज्ञेय नेहरू अभिनंदन ग्रंथ के संपादक भी थे। अज्ञेय को क्रांतिकारी नहीं कहा जा सकता। वे भगत सिंह और आजाद के साथ कुछ समय तक थे, मेरठ के किसान-आंदोलन से जुड़े थे, 1942 में दिल्ली में अखिल भारतीय फ़ासिस्ट विरोधी सम्मेलन के आयोजकों में थे, कुछ समय तक कृश्नचंदर और शिवदान सिंह चौहान के साथ भी रहे, पर 1943 में उन्होंने ब्रिटिश सेना में नौकरी की।
जब 1936 में प्रेमचंद, ‘साहित्य का उद्देश्य’ बता रहे थे, अज्ञेय क्रांतिपरक साहित्य को थोथा और निस्सार कह रहे थे। वे जीवन-दर्शन के निर्माण में माक्र्सवाद की तुलना में डार्विन, आइन्सटाइन और फ्रायड की बड़ी देन मानते थे। जिन कवियों-लेखकों के प्रेरणा पुरुष भारतेन्दु, निराला, मुक्तिबोध और नागार्जुन होंगे, उनके प्रेरणा पुरुष अज्ञेय कभी नहीं हो सकते। अज्ञेय, अशोक वाजपेयी के रोल मॉडल हो सकते हैं।
अज्ञेय की चिंता में कभी भारतीय जनता नहीं रही है। उन्हें हिंदी का बड़ा और नागार्जुन से श्रेष्ठ घोषित करनेवालों की भी चिंता भारतीय जन से जुड़ी नहीं है। नामवर हों या विद्यानिवास, शाह हों या आचार्य, अशोक वाजपेयी हों या उनके सहचर। अज्ञेय का साहित्य तंत्र को चुनौती नहीं देता। वह बहुत हद तक तंत्र के साथ हैं। भारतीय लोकतंत्र में आज लोक नहीं तंत्र प्रमुख है। जो तंत्र से जुड़े हैं, उनके साथ हैं। उनके लिए जरूर अज्ञेय आधुनिक हिंदी कविता के शिखर पुरुष होंगे।
सार्थक, निरपेक्ष और महत्त्वपूर्ण आलेख
रविभूषण जी का लेख अज्ञेय के सम्बन्ध में सही समझ बनाने में सहायक है ! उनसे पूर्ण सहमति !
कुछेक इकाइयों द्वारा शताब्दी-आयोजनोन्माद के तहत अज्ञेय के बारे में फैलाए जा रहे ‘ अज्ञान ‘ और ‘ निराधार गरिमामंडनों ‘ ने निश्चय ही तथ्यावगत लोगों को पिछले कुछ समय से सांसत में डाल रखा है। ऐसे में आलोचक रविभूषण की यह टिप्पणी सही समय पर सार्थक हस्तक्षेप है। अज्ञेय को लेकर रचे गए व्यापक घटाटोप को फूंक मारकर एक झटके में हवा कर देने वाला, संक्षिप्त ही कितु ठोस आलेख। …निश्चय ही इस संदर्भ की ताथ्यिक परीक्षा होनी चाहिए कि उनकी ‘ जय जानकी यात्रा ‘ और उसी दौरान विहिप की ‘ राम जानकी धर्म यात्रा ‘ या बाद में आडवाणी की यात्रा में क्या आपसी कोई प्रेरणा-विनिमय जैसा रिश्ता भी था या नहीं ? जहां तक अज्ञेय की शख्सीयत का सवाल है, इसमें दो राय नहीं कि वह हमारे एक उल्लेखनीय रचनाकार हैं कितु यह उल्लेखनीयता उसी दायरे में स्वीकार्य है जो उनके साहित्य का केन्द्रीय स्वर रच रहा हो। ‘ शेखर एक जीवनी ‘ काल के क्रान्ति-बोध को जिस तरह उनका बाद का साहित्य लगातार कटर-कटर कुतरता रहा, इसे ठीक से जानते-समझते हुए भी कोई यदि उन्हें ‘ क्रान्तिकारी ‘ साबित करने का प्रयास चलाए तो इसे भ्रम फैलाने की सोची-समझी साजिश ही कहना चाहिए। उनका साहित्य अपने समवेत प्रयास में ‘ तंत्र ‘ को निशाना बनाने से लगातार कतराता दिखता है, यह तो मुद्रित तथ्य है। इसलिए निश्चय ही वह सरहपाद से लेकर निराला की उस महान इतिहास-धारा में खड़े नहीं दिखते जो ‘लोक’ के मनोभावों से बनती और अपने मूल प्रयास में जन सामान्य के पक्ष में खड़ी होती है।…