पैगम्बर मोहम्मद के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी और अल्पसंख्यकों के लिए जहर बुझी जुबान का इस्तेमाल करने वाली नूपुर शर्मा अपनी जान की रक्षा का हवाला देते हुए अब तक फरार हैं। अदालत ने उनके खिलाफ सख्त टिप्पणी की, तो हिंदुत्व के रक्षकों को इतनी ठेस पहुंची कि सुप्रीम कोर्ट की मर्यादा का ख्याल भी नहीं रहा और अपमानजनक शब्दों के साथ न्यायाधीशों की टिप्पणी की आलोचना की गई। अदालत की कड़ी टिप्पणी का पुलिस-प्रशासन पर भी कोई असर नहीं दिख रहा है, क्योंकि नूपुर शर्मा अब तक गिरफ्तार नहीं हुई हैं। हालांकि उनके बयान के खिलाफ, इस संभाव्य हिंदू राष्ट्र में, जिन लोगों ने विरोध करने का दुस्साहस दिखाया, उन पर पुलिस ने कार्रवाई करने में देर नहीं की। मानो हिंदुत्व के ठेकेदारों की तरह धर्म की रक्षा का दायित्व अब पुलिस पर आ गया है। ऐसी ही एक कार्रवाई 10 जून को उत्तरप्रदेश की सहारनपुर पुलिस ने की थी।
10 जून को जुमे की नमाज के बाद सहारनपुर जामा मस्जिद से घंटाघर तक प्रदर्शन हुआ था, इसके बाद पुलिस ने 100 से ज्यादा लड़कों को गिरफ़्तार कर, जेल भेजा था, जबकि 200 से अधिक अज्ञात के खिलाफ मामला दर्ज हुआ था। एक लोकतांत्रिक देश में विरोध-प्रदर्शन करना भी अपराध क्यों मान लिया गया है, यह अलग विचारणीय मुद्दा है। बहरहाल, इस गिरफ्तारी के बाद एक वीडियो सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हुआ था, जिसमें कुछ लड़कों को पुलिस वाले बेरहमी से लाठी से पीट रहे हैं। यह वीडियो कहां का है, शुरुआत में इस पर सवाल होते रहे। उंगली सहारनपुर पुलिस पर उठी, लेकिन उसने पहले पल्ले झाड़ा और बाद में जब यह खुलासा हुआ कि यह पिटाई सहारनपुर पुलिस का ही कारनामा है तो एसएसपी ने जांच के आदेश दिए थे। अब खबर आई है कि उन गिरफ्तार युवकों में से 8 को सहारनपुर सीजेएम कोर्ट ने बाइज्जत बरी कर दिया है। यानी जिन युवकों को पुलिस ने न केवल पकड़ा बल्कि उन्हें बुरी तरह पीट कर उनके अधिकारों का हनन किया, अब उन्हीं लड़कों के खिलाफ अदालत में कोई सबूत नहीं दे पाई।
अदालत ने तो इन लड़कों को बाइज्जत बरी कर दिया, लेकिन इतने दिनों तक जेल में रहने के बाद इन नौजवानों पर अपराधी होने का जो ठप्पा पुलिस ने लगाने की कोशिश की है, क्या उससे ये लड़के बरी हो पाएंगे। पुलिस की पिटाई से इनमें से एक का हाथ टूट गया है, एक का पैर। केवल अपनी धार्मिक पहचान के कारण इन नौजवानों को इतना अपमान और प्रताड़ना सहनी पड़ी है। उन सबसे ये लड़के कैसे बरी हो पाएंगे। 18-20 साल के इन लड़कों के सामने देश के बाकी नौजवानों की तरह पढ़ाई, परीक्षा, नौकरी पाने की चुनौती है, उस पर एक गलत तरीके से की गई कानूनी कार्रवाई के कारण इनके लिए चुनौतियां और बढ़ गयी हैं। क्योंकि इन लड़कों के योग्यता के विवरण में पुलिसिया कार्रवाई बदनुमा दाग की तरह लगी रहेगी और अपना रिकार्ड साफ करने के फेर में लगी कंपनियां इन्हें नौकरी देंगी, इसकी उम्मीद कम है।
न्याय व्यवस्था में होते पक्षपात और देरी के कारण कानून को अंधा कहा गया, लेकिन सहारनपुर मामले के बाद ऐसा लगता है कि पीड़ित लड़कों के हाथ नहीं टूटे, कानून के हाथ टूटे हुए हैं। इन लड़कों का भावी जीवन संवारने के लिए कानून का टूटा हाथ कोई सहारा दे पाएगा, इसमें संदेह है। सहारनपुर मामला मानवाधिकार उल्लंघन का एक बड़ा उदाहरण है। वैसे भी देश में कानून की लचर व्यवस्था के कारण मानवाधिकार हनन के मामले बढ़ते जा रहे हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की ओर से जारी आंकड़ों से पता चलता है कि 2020-2021 और 2021-2022 के बीच देश भर में की ओर से दर्ज किये गये मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले में तक़रीबन 37 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो चुकी है।
2020-2021 में एनएचआरसी ने मानवाधिकार उल्लंघन के 74,968 मामले दर्ज किये थे, जबकि 28 फरवरी, 2022 तक आयोग ने 1,02,539 ऐसे मामले दर्ज किये थे। वहीं गृह मंत्रालय की ओर से पेश आंकड़े बताते हैं कि 2021-2022 में 31 अक्टूबर, 2021 तक मानवाधिकार उल्लंघन के 64,170 मामले दर्ज किये गये थे। हैरानी की बात नहीं कि इसमें 24,242 मामले (37.7प्रतिशत) उत्तर प्रदेश से थे। भारत में आम आदमी के अधिकारों पर मंडराते संकट पर संयुक्त राष्ट्र में भी चिंता व्यक्त की जा चुकी है। पिछले दिनों तीस्ता सीतलवाड की गुजरात एटीएस द्वारा गिरफ्तारी पर मानवाधिकार रक्षकों पर संयुक्त राष्ट्र की विशेष दूत मैरी लॉलर ने कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा था कि ‘मानवाधिकारों की हिफ़ाज़त करना कोई अपराध नहीं है। मैं उनकी रिहाई और भारतीय सरकार की ओर से किये जाने वाले इस उत्पीड़न को ख़त्म किये जाने का आह्वान करती हूं।’ यानी अंतरारष्ट्रीय स्तर पर सीधे-सीधे भारत सरकार पर उंगली उठाई गई है और हर बार इस तरह के मसलों को अपना आंतरिक मामला बताकर भारत सरकार अंतरारष्ट्रीय आपत्तियों या टिप्पणियों को खारिज नहीं कर सकती है। संरा की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में मानवाधिकार की स्थिति चुनौतीपूर्ण बनी हुई है और मानवाधिकार संस्थायें ठीक से काम नहीं कर पा रही हैं। इस साल नवंबर में संयुक्त राष्ट्र की यूनिवर्सल पीरियॉडिक रिव्यू के तहत अपनी चौथी समीक्षा के लिए भारत पेश होगा, जहां भारत को मानवाधिकारों के मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र के दूसरे सदस्य देशों की टिप्पणियों का जवाब देना होगा।
अपने बचाव में सरकार की ओर से क्या तर्क गढ़े जाएंगे ये देखना दिलचस्प होगा, फिलहाल तो सहारनपुर जैसे दर्जनों मामले मानवाधिकार संगठनों, संस्थाओं और आयोगों के लिए चुनौती बने हुए हैं। मानवाधिकारों के नाम पर जब तक लीपापोती का खेल चलता रहेगा, तब तक ये चुनौती बरकरार रहेगी।
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