-अनिल शुक्ल॥
कौन विश्वास करेगा कि जिस आगरा में आज रंगमंच के तोते उड़ गए दिखते हैं, वहां उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशकों में भी बेहद समृद्ध रंग परंपरा थी।
यूं तो आगरा में हिंदुस्तानी नाटकों की परंपरा भारतेन्दु हरिश्चंद के समकालीन है लेकिन आगरा में नए नवेले नाटकों का लिपिबद्ध इतिहास सन 1880 के दौरान ही मिलना शुरू होता है। आगरा की ‘इलाही प्रेस’ से 1886 में नाटक ‘शकुंतला’ और सन1891 में ‘ज़ोहरा बेहराम’ के प्रकाशन का उल्लेख मिलता है। दोनों के लेखक हाफ़िज़ मुहम्मद अब्दुल्ला थे और दोनों ही नाटकों के खेले जाने की भी खबर मिलती है। ‘शकुंतला’ ने उत्तर भारत के अनेक शहरों में अपनी प्रस्तुतियों से दर्शकों का मनोरंजन किया। हाफ़िज़ साहब के ही समकालीन थे मिर्ज़ा नज़ीर बेग़। सन 1891 और उसके बाद लिखे गए उनके नाटक ‘रामलीला’, ‘मार्केलंका’, राज सखी’, ‘कृष्णौतार’,’सत्य हरिशचंद’, तमाशा गर्दिशे तक़दीर’, ‘चंद्रावती लासानी’ आदि उनके लिखे अनेक नाटक हैं हालाँकि बाद में उनकी प्रतियां उपलब्ध नहीं हो सकीं।
मिर्ज़ा सिर्फ लेखक ही नहीं, कामयाब निर्देशक भी थे। उन्होंने अपने लिखे नाटकों को आगरा के देशकों के भींबीच तो खूब खेला ही, लाहौर, रावलपिंडी, कलकत्ता, अजमेर और दिल्ली जैसे अनेक शहरों में जाकर भी अपनी प्रस्तुतियों से खूब हंगामा बरपा किया।फुलट्टी स्थित बनारसी बैंक का हाफ़िज़ जी कटरा वस्तुतः इन्हीं हाफ़िज़ जी की थिएट्रिकल कपनी का स्थायी वास था।
वरिष्ठ रंगकर्मी मनमोहन भरद्वाज अपने शोध आलेख में1917-18 में गोकुलपुरा में चलने वाली अव्यावसायिक थिएट्रिकल गतिविधि में नगरी प्रचारिणी सभा में खेले गए नाटक ‘महाभारत’ का उल्लेख करते हैं जिस पर उस समय 15 हज़ार रुपयों का व्यय आया था।
सन 1920 से लेकर 1940 के बीच आगरा में नाट्य गतिविधियां बहुत विस्तारित रूप में नहीं दिखतीं। इस दौरान अलबत्ता नौटंकी के प्रदर्शनों का खूब ज़ोर था। बारिश के 4 महीने के मौसम को छोड़कर ये नौटंकी कम्पनियाँ यमुना किनारे अपने तम्बू गाड़े पड़ी रहतीं और वही पर जाकर लोग अपने-अपने इलाक़े के लिए इनकी बुकिंग करवाते। 1942 के बंगाल के ज़बरदस्त अकाल के दौरान बंगाल के वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी विनय रॉय के नेतृत्व में आये सांस्कृतिक दल ने अकाल से जुडी नाट्य प्रस्तुतियों से आगरा के दर्शकों को हिला कर रख दिया।
इसी दल की प्रेरणा से वरिष्ठ हिंदी लेखक रांगेय राघव की लेखनी से लिखे गए नाटक को लेकर कुछ उत्साही युवाओं ने एक नाट्य प्रस्तुति की। इसका निर्देशन युवा रंगकर्मी राजेंद्र रघुवंशी ने किया था। यह नाट्यदल ही कालांतर में राष्ट्रीय स्तर पर गठित ‘इप्टा’ की आगरा इकाई बना। 1940, 50 और 60 का दशक आगरा सहित समूचे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ‘इप्टा’ को केंद्र में रखकर किये गए सांस्कृतिक विस्तार का युग था। ‘इप्टा’ ने मज़दूरों, किसानों और शहरी मध्यवर्ग के बीच अपनी सांस्कृतिक लोकप्रियता के झंडे तो गाड़े ही, उन्हें सामाजिक-राजनितिक चेतना से भी लैस किया। राजेंद्र रघुवंशी के अलावा विशन खन्ना, रामगोपाल सिंह चौहान आदि इसके कमांडरों में थे।
सन 76 में लखनऊ के ‘भारतेन्दु नाट्य केंद्र’ (अब भारतेन्दु नाटक अकादमी) द्वारा आयोजित थियेटर वर्कशॉप ने आगरा की नाट्य चेतना को नए सिरे से झकझोर कर रख दिया। इस वर्कशॉप का निर्देशन एनएसडी से निकले युवा निर्देशक बंसी कौल ने किया था। इस वर्कशॉप ने आगरा के जिन अनेक युवाओं को रंगकर्म के प्रति गंभीर नजरिया दिया, उनमें इन पंक्तियों का लेखक भी है। वर्कशॉप की समाप्ति पर इसमें से निकले युवाओं ने कई अलग-अलग संगठन बनाये। ‘रंगकर्म’ उनमें सबसे प्रतिष्ठित संगठन के बतौर उभारा। संस्था को न सिर्फ ‘उप्र संगीत नाटक अकादमी’ ने 5 सर्वश्रेष्ठ पुरस्कारों से नवाज़ा बल्कि अगले 8 वर्ष आगरा के रंग जगत पर ‘रंगकर्म’ का दबदबा बना रहा।
1980 के बाद के दशक एक बार फिर से गहरे रंग शून्य हो जाने के दशक थे। 21 सदी की शुरुआत के साथ ही आगरा में रंग गतिविधियों का सिलसिला यद्यपि फिर से प्राणवान होता दिखता है। पुरानी संस्थाओं- इप्टा, संस्कार भारती आदि के अलावा ‘रंगलीला’ और ”रंगलोक’ जैसी नवगठित संस्थाओं ने नयी रंग चेतना बाँटने की। ‘ रंगलीला ‘ ने लोक नाट्य भगत के पुनरुद्धार और इसके के साथ-साथ अपने नुक्कड़ नाटकों से जहाँ नयी रंग चेतना का आगाज़ किया, वहीँ ‘रंगलोक’ ने अपने आधुनिक नाटकों के प्रदर्शनों के साथ दर्शकों के एक बड़े समूह को संगठित किया।
1980 के बाद के दशक एक बार फिर से गहरे रंग शून्य हो जाने के दशक थे। 21 सदी की शुरुआत के साथ ही आगरा में रंग गतिविधियों का सिलसिला यद्यपि फिर से प्राणवान होता दिखता है। पुरानी संस्थाओं- इप्टा, संस्कार भारती आदि तो वहां सक्रिय होने की कोशिश करती दिखीं, लेकिन ‘रंगलीला’ और ”रंगलोक’ जैसी नवगठित संस्थाओं ने नए सिरे से नयी रंग चेतना बाँटने की कोशिश शुरू की। ‘ रंगलीला ‘ ने लोक नाट्य भगत के अपने पुनरुद्धार आंदोलन और साथ-साथ अपने नुक्कड़ नाटकों से जहाँ नयी रंग चेतना का आगाज़ किया, वहीँ ‘रंगलोक’ ने अपने नाटकों के प्रदर्शनों के साथ दर्शकों के एक बड़े समूह को संगठित किया।
इसके बावजूद आज आवश्यकता रंगकर्म के साथ व्यापक दर्शक वर्ग को जोड़ने की है। वस्तुतः जब तक स्कूलों और कॉलेजों के स्तर पर नाट्य आंदोलन ज़ोर नहीं पकड़ेगा, आगरा का रंगमंच टूटती साँसों में ही जीवन जीता रहेगा।
Leave a Reply