एक अत्यंत महत्वपूर्ण फैसले के अंतर्गत शीर्ष अदालत ने अपने चुनावी उम्मीदवारों का आपराधिक रिकार्ड सार्वजनिक न करने के कारण भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस सहित 8 राजनीतिक दलों पर 1 से 5 लाख रुपयों का जुर्माना लगाया है। भाजपा-कांग्रेस पर एक-एक लाख और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) व सीपीएम पर 5 लाख रुपयों का आर्थिक दंड शीर्ष कोर्ट द्वारा ठोंका गया है। शीर्ष अदालत ने मंगलवार को यह निर्णय भी सुनाया कि हाईकोर्ट की अनुमति के बगैर सांसदों तथा विधायकों के खिलाफ दर्ज मामले वापस नहीं लिए जा सकेंगे। मुख्य न्यायाधीश एन वी रमन्ना, जस्टिस विनीत सरन एवं न्यायमूर्ति सूर्यकांत की पीठ ने केन्द्र सरकार और सीबीआई जैसी केन्द्रीय एजेंसियों के प्रति भी नाराजगी जतलाई है।
राजनीति और समग्र समाज को अपराध मुक्त बनाने की दिशा में शीर्ष अदालत के ये फैसले दूरगामी असर दिखा सकते हैं, बशर्ते कि इनका पालन कड़ाई से एवं लंबे समय तक हो सके। भाजपा, कांग्रेस, जेडीयू, आरजेडी, एलजेपी और सीपीआई पर एक-एक लाख रुपये तथा एनसीपी और सीपीएम पर 5-5 लाख का रुपए का जुर्माना लगाया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय के साथ कुछ और भी फैसले दिये हैं जो अपने आप में मील के पत्थर साबित हो सकते हैं। सांसदों और विधायकों के खिलाफ प्रकरणों की सुनवाई करने वाली विशेष अदालतों के न्यायाधीशों का अगले आदेश तक स्थानांतरण न करने का भी निर्देश सुनाया गया। अक्सर ऐसा होता आया है कि अनुकूल फैसला पाने के लिए स्थानांतरण के माध्यम से न्यायाधीशों को मामलों से ही हटा दिया जाता है। हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरलों को भी विधायकों-सांसदों के खिलाफ मामले एक तयशुदा प्रारूप में सौंपने के लिए कहा गया है।
इस मायने में इसे बहुत महत्वपूर्ण निर्णय निरूपित किया जाना चाहिए क्योंकि आज भारत का सबसे बड़ा संकट हमारी सियासत का अपराधीकरण है। बड़ी संख्या में सांसद और विधायक ही नहीं बल्कि राजनीति में शामिल होने वाले निचले स्तर तक के कार्यकर्ताओं-नेताओं की किसी न किसी तरह के अपराधों में संलिप्तता होती है। इसके कारण वे बड़े पैमाने पर मतदाताओं और पूरी व्यवस्था को प्रभावित करते हैं। झूठे शपथपत्रों से लेकर हत्या और बलात्कार जैसे अपराधों में उन पर मामले चलते रहते हैं और वे बाकायदे निर्वाचित होकर विभिन्न तरह के निकायों में पहुंचते रहते हैं।
नरेन्द्र मोदी जब पहली बार प्रधानमंत्री बने थे तब उन्होंने न्यायपालिका से उम्मीद जताई थी कि जनप्रतिनिधियों पर चल रहे आपराधिक मामलों पर एक वर्ष के भीतर सुनवाई पूरी कर निर्णय देने की व्यवस्था की जाये। पहले से प्रकरणों के बोझ में दबी न्यायपालिका के लिए यह तब तक संभव नहीं है जब तक कि इसके लिए पर्याप्त सुविधाएं मुहैया न कराई जायें। इसलिए वह कार्य तो आगे बढ़ा ही नहीं, रही-सही कसर कुछ ऐसे निकल गई कि स्वयं उनके दल यानी भारतीय जनता पार्टी ने ही अनेक ऐसे ही अपराधी तत्वों को संसद और विधानसभाओं तक पहुंचाया। इनमें सामान्य मारपीट से लेकर हत्या, बलात्कार और यहां तक कि दंगे और आतंक फैलाने वाले लोग भी हमारी विधायिकाओं में शान से बैठे हुए हैं। कहना न होगा कि वे ऐसा कोई कानून आने ही नहीं देंगे जो अगले चुनावों में उनका रास्ता रोके।
यह विडंबना है कि कानून तोड़ने वालों को हम कानून बनाने की जिम्मेदारी सौंपते हैं। देश की निर्वाचन प्रणाली में सुधार के मद्देनजर कई बार व्यक्तिगत और संस्थागत कोशिशें की गईं लेकिन राजनैतिक स्वार्थों के चलते अपराध मुक्त राजनीति का सपना कभी भी पूरा नहीं हो पाया।
सत्ता लोलुपता, धन की आकांक्षा, शक्ति बटोरने की इच्छा, और भी ऊंचा पद पाने की हसरतों से देश की राजनीति अपराधों के दलदल में फंस गई है। हमारे जनप्रतिनिधियों की न केवल अपराधियों से सांठगांठ बल्कि स्वयं की आपराधिक कृत्यों में संलग्नता आज के दौर की कटु सच्चाई है। किसी समय जब देश के निर्वाचन आयोग और कार्यालय स्वतंत्र तथा निष्पक्ष होते थे, तब इन अपराधों पर कई तरह के नियंत्रण लगाने की ईमानदार कोशिशें की गईं। हालांकि इन प्रयासों के किसी सिरे तक पहुंचने के पहले ही संपूर्ण समाज के अपराधीकरण होने से उसका सीधा असर हमारी राजनैतिक व्यवस्था पर भी पड़ा है। अब यह कहना बहुत मुश्किल हो गया है कि समाज ने राजनीति को अपराधी बनाया या राजनीति ने समाज को। जो भी हो, हमारी राजनीति एक अपराधी समाज का प्रतिबिंब बन चुका है।
चूंकि समाज को अपराध मुक्त बनाने की जिम्मेदारी राजनीति की ही है, इसलिए मामला बेहद पेंचीदा हो चुका है। ऐसे में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गये ये निर्देश काफी महत्वपूर्ण हैं। विधायिका और कार्यपालिका को चाहिए कि इस निर्णय का कड़ाई से पालन करें। जब तक राजनीति और निर्वाचित जनप्रतिनिधि अपराधी प्रवृत्ति के होंगे, एक लोकतांत्रिक और न्यायपूर्ण समाज की कल्पना नहीं की जा सकती।
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