नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की ओर से जारी ये आंकड़े बेहद व्यथित करने वाले हैं जिनसे पता चलता है कि वर्ष 2017-19 के दौरान 14 से 18 वर्ष की आयु वर्ग के 24568 किशोर-किशोरियों ने विभिन्न कारणों के चलते आत्महत्या कर ली। परीक्षाओं में असफलता और प्रेम प्रसंगों के चलते खुदकुशी करने वालों की संख्या सर्वाधिक है। इस उम्र के बच्चों-किशोरों द्वारा खुद की इहलीला खत्म करना हमारी उस व्यवस्था की ओर साफ इशारा है जिसमें हम न तो भावी पीढ़ी को ऐसी शिक्षा प्रणाली दे पा रहे हैं जो उन्हें भयभीत न करे, न ही वह खुला सामाजिक वातावरण बना पाये हैं जिसमें वे स्वस्थ तरीके से यौन या प्रेम जैसे कोमल भावों और अनुभूतियों को समझ पायें। कुल जमा एक खोखला समाज ही हम अपनी किशोर पीढ़ी को प्रदान कर रहे हैं जिसमें उन्हें देने के लिए हमारे पास नैराश्य और अवसाद के अलावा कुछ भी नहीं है।
आंकड़ों के विस्तार में जाएं तो पता चलता है कि आत्महत्याओं के पीछे जो कारण पाये गये हैं, उनमें परीक्षाओं में नाकामी व प्रेम संबंधों के अलावा कष्टकारी बीमारियां, उनका शारीरिक शोषण, नशा, किसी प्रियजन की मौत, अवांछित गर्भधारण, सामाजिक प्रतिष्ठा को खोना, गरीबी, बेरोजगारी आदि हैं। इसका एक दुखद पहलू यह भी है कि आत्महत्या करने वालों में 13325 लड़कियां हैं। इस तथ्य को भी खतरे की घंटी मानना चाहिये कि 2017 में इस वय समूह के जहां 8029 किशोर-किशोरियों ने मौत को गले लगाया वहीं 2018 में उनकी संख्या बढ़कर 8162 और 2019 में 8377 हो गई है। यानी कि यह प्रवृत्ति बढ़ रही है। सरकारी स्तर के प्रयासों एवं आंकड़ों पर कड़ी पहरेदारी से पता नहीं चल पाता कि इसे रोकने के लिए क्या किया जा रहा है और अगर कुछ किया भी जा रहा है तो ये आंकड़े बताते हैं कि ये कोशिशें अधूरी हैं।
यह वह वर्ग है जो कुछ समय पश्चात युवावस्था को प्राप्त कर देश और समाज की अनमोल सम्पत्ति में रूपांतरित होता है, पर उनकी
असामयिक मौत इस नुकसान से भी बढ़कर उनके अभिभावकों की होती है। धीरे-धीरे समाज छोटे परिवारों का बनता जा रहा है जिनमें बच्चों की संख्या सीमित होती है- मध्यवर्गीय कुटुम्बों में तो बस एक या दो ही। कई मां-बाप की अकेली संतानों की अकाल मृत्यु से माता-पिता टूट जाते हैं और उनके समक्ष बुढ़ापे में देख-रेख का भी प्रश्न खड़ा हो जाता है। वैसे तो बेहद निजी कारणों को छोड़कर किसी के भी द्वारा आत्महत्या किया जाना हमारी सामाजिक व्यवस्था पर ही सवालिया निशान होता है, लेकिन एक किशोर या कम उम्र के बच्चों द्वारा अपने ही हाथों खुद के जीवन को खत्म करना बतलाता है कि अभी हमारी सामाजिक व्यवस्था में अनेक कमियां हैं जिन्हें दूर किया जाना जरूरी है। इस कच्ची उम्र में लोगों का ऐसा मरना केवल मनोचिकित्सकों या समाजशास्त्रियों के अध्ययन का ही विषय नहीं बल्कि हमारी अर्थप्रणाली और शासकीय नीतियों व कार्यक्रम बनाने वालों के भी सोचने का मुद्दा है। हमें वह दुनिया अपनी भावी पीढ़ी को बनाकर देनी होगी जिसमें एक ओर तो ऐसी शिक्षा पद्धति हो जिसमें उन्हें ज्ञान व डिग्री देने का रुचिकर मार्ग हो।
तीन घंटे की तोता रटंत आधारित परीक्षा जब बच्चों की योग्यता निर्धारित करती है, तो स्वाभाविक है कि अनेक उस मानदंड में खरे नहीं उतरते। उस परीक्षा को पास करने के लिए योग्यता से ज्यादा करामात की जरूरत होती है जो हर किसी के बस की बात नहीं होती। ऐसी शिक्षा प्रणाली में आवश्यक परिवर्तनों की बात हमेशा से होती आई है। कई सरकारें आईं और चली गईं परन्तु बच्चों के मन से परीक्षाओं का खौफ कोई दूर नहीं कर सका है। प्रकारांतर से इम्तिहानों का तरीका वही है और समाज के लिए किसी बच्चे की योग्यता का पैमाना अंक सूची में दर्शाई गई संख्याएं ही हैं। हमें अपने बच्चों की इन अकाल मौतों को टालना है तो हमें वह प्रणाली विकसित व लागू करनी होगी जिसे बच्चे खुशी-खुशी अपना सकें। ऐसा पाठ्यक्रम हो जो उन पर न बोझ बने न ही नाकामयाबी का कारण।
समाज के भीतर प्रेम, यौन संबंध, लड़के-लड़कियों के बीच मित्रता व सामाजिक संबंधों को लेकर भी अनेक वर्जनाएं एवं भ्रम बना हुआ है। पहले की अपेक्षा आज हमारा समाज ज्यादा खुला तो है, लेकिन इन विषयों पर विकृतियां पूर्ववत कायम हैं। शिक्षक एवं अभिभावक जब तक मानव जीवन से जुड़े इन नैसर्गिक आयामों पर वैज्ञानिक एवं आधुनिक दृष्टिकोण विकसित नहीं करेंगे, दो पीढ़ियों के बीच यह संघर्ष बना रहेगा जिसकी करूण परिणति ऐसी आत्महत्याओं के रूप में होती रहेगी।
समग्र समाज और सरकार को इस रिपोर्ट पर गंभीरता से काम करना चाहिए। यह रिपोर्ट महज आंकड़े या सरकारी दस्तावेज का हिस्सा नहीं है बल्कि हमारे समाज का यथार्थ चित्रण है। वह निराशा या अवसाद जो उन्हें जान देने पर मजबूर करे, हमारे व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन का हिस्सा है- यह कहीं अधिक चिंताजनक बात है।
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