देशहित के नाम पर आखिरकार जितिन प्रसाद ने भी भाजपा का दामन थाम लिया। केन्द्रीय मंत्री पीयूष गोयल की मौजूदगी में उन्होंने भाजपा की सदस्यता ग्रहण की। इसके लिए बड़ा मासूम सा कारण जितिन प्रसाद ने बताया। उन्होंने कहा भाजपा ने कल्याणकारी योजनाएं लागू कीं। जिस दल में मैं था, महसूस हुआ कि जब अपनों के हितों के लिए कुछ कर नहीं पा रहा हूं। जब आप किसी की सहायता नहीं कर सकते। इस लायक नहीं हैं कि जनता के हितों की रक्षा नहीं कर सकते… कांग्रेस में मुझे यह महसूस होने लगा था, इसलिए भाजपा ज्वाइन की। कितनी आसानी से अपनी अकर्मण्यता और बेवफाई का ठीकरा जितिन प्रसाद ने कांग्रेस पर फोड़ दिया। जितिन प्रसाद की गिनती अब तक राहुल गांधी के करीबी नेताओं में होती थी और इस नाते उन्हें वरिष्ठ कांग्रेसियों में गिना जाता था।
हालांकि वे महज दो बार ही सांसद रहे हैं और जिस वंशवाद पर भाजपा चिंता जतलाती रहती है, जितिन प्रसाद उसी के एक प्रतिनिधि हैं। उनके दादा ज्योति प्रसाद कांग्रेस सदस्य होने के साथ कई अहम पदों पर रहे। पिता जितेन्द्र प्रसाद कांग्रेस के बड़े नेता थे और उन्होंने सोनिया गांधी को साल 2000 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए चुनौती दी थी। हालांकि वे सोनिया गांधी के सामने बुरी तरह हार गए। जो लोग कांग्रेस को एक परिवार की पार्टी होने का आरोप लगाते हैं, उन्हें ये याद रखना चाहिए कि सोनिया गांधी को चुनौती देने के बावजूद जितेन्द्र प्रसाद ससम्मान कांग्रेस में बने रहे। क्या इसके बाद भी आंतरिक लोकतंत्र के प्रमाण की जरूरत है। जितेन्द्र प्रसाद की मृत्यु के बाद जतिन प्रसाद ने उनकी राजनैतिक विरासत संभाली, 2004 और 2009 में सांसद निर्वाचित हुए और यूपीए सरकार के दो कार्यकालों में सत्ता का सुख भोगा। 2014 में फिर कांग्रेस की टिकट से चुनाव लड़े, लेकिन हार गए, इसके बाद 2019 में भी कांग्रेस प्रत्याशी बने और पार्टी को जीत नहीं दिला पाए।
2014 से भाजपा केंद्र की सत्ता पर काबिज हुई और उसके बाद कई विपक्षी दलों के नेताओं का भगवाकरण शुरु हुआ। अचानक बहुत से नेताओं को राष्ट्रसेवा का ख्याल आने लगा। आश्चर्य इस बात का है कि थोक में देशसेवी भाजपा नेताओं और केंद्र समेत आधे से अधिक राज्यों में भाजपा की सरकार के बावजूद न देश की हालत सुधरी, न जनता की। बल्कि स्वास्थ्य, शिक्षा, अर्थव्यवस्था, मानवाधिकार, स्त्री सुरक्षा, किसान-मजदूरों के हक, पर्यावरण ऐसे तमाम क्षेत्रों में गिरावट ही दर्ज की गई है। जितिन प्रसाद से पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी देश सेवा के नाम पर भाजपा की सदस्यता ग्रहण की थी। उन्हें तो राज्यसभा की सीट मिल गई, लेकिन उनके क्षेत्र की जनता के जीवन स्तर में कितना सुधार आया, ये कोरोना के दौरान पता चल गया। उनकी जनसेवा का आलम ये रहा कि उनकी गुमशुदगी के पोस्टर तक लग गए और भाजपा में वे आज भी अपने सम्मान की बाट जोह रहे हैं। केरल में भी टॉम वडक्कन ने ऐन चुनाव के पहले भाजपा का कमल थामा था, उन्हें उम्मीद रही होगी कि पार्टी टिकट देगी या कोई पद देगी, मगर आज भी उनके हाथ खाली हैं।
अब कांग्रेस को दगा जितिन प्रसाद से मिला है। कांग्रेस के 23 असंतुष्ट नेताओं में उनका नाम भी शामिल है। कांग्रेस के सांगठनिक ढांचे में सुधार के लिए लिखे पत्र में जिन नेताओं ने हस्ताक्षर किए थे, उनमें जितिन प्रसाद का नाम भी शामिल था। इस वजह से प्रदेश कांग्रेस में उनके खिलाफ नाराजगी भी देखी जा रही थी और कयास लग रहे थे कि जितिन प्रसाद भाजपा में शामिल हो सकते हैं। बहुत से लोग इसे कांग्रेस के लिए झटका बता रहे हैं, लेकिन एक तरह से कांग्रेस के लिए यह अच्छा ही है कि चुनाव से पहले नाराज, असंतुष्ट और बागी नेताओं की सफाई हो जाए। अन्यथा मणिपुर या गोवा की तरह चुनाव जीतने की कगार पर पहुंच कर दलबदल का जो नुकसान झेलना पड़ा, वो कहीं अधिक निराश करने वाला रहा। वैसे भी उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं है और पाने के लिए ढेर सारी संभावनाएं हैं।
रहा सवाल भाजपा का, तो उसके ऐसे फैसले बताते हैं कि पार्टी को सत्ता खोने का डर किस तरह सता रहा है। प. बंगाल में भी इसी तरह बड़े पैमाने पर टीएमसी और कांग्रेस के नेताओं को भाजपाई बनाया गया था, लेकिन भाजपा को फिर भी जीत हासिल नहीं हुई और अब कई नेता टीएमसी में शामिल होने के लिए धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा कर रहे हैं। जितिन प्रसाद को शामिल करने के पीछे सबसे बड़ा कारण ब्राह्मण वोट बैंक है।
जितिन प्रसाद ब्राह्मणों में अपनी पैठ बनाने की कोशिश लगातार कर रहे हैं। पिछले साल उन्होंने ब्राह्मण चेतना परिषद नाम से संगठन बनाया था और वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए जिले वार ब्राह्मण समाज के लोगों से संवाद किया और ब्राह्मण परिवारों से मुलाकात भी की थी। इधर योगी सरकार पर ब्राह्मणों की अनदेखी के आरोप लगते रहे हैं। उत्तरप्रदेश में 11-12 प्रतिशत आबादी ब्राह्मणों की है और सभी दल इस वोट बैंक को अपने पाले में करना चाहते हैं। एक वक्त था जब ब्राह्मण मतदाताओं का भारी समर्थन कांग्रेस को था, लेकिन अब सोशल इंजीनियरिंग के कायदे बदल गए हैं। भाजपा योगी के चेहरे के साथ ब्राह्मणों को अपने साथ नहीं कर पाएगी, इसलिए जितिन प्रसाद को अपने साथ लाना भाजपा के लिए फायदेमंद हो सकता है, सवाल ये है कि क्या जितिन प्रसाद की राजनीति इससे परवान चढ़ेगी या वे इस्तेमाल के बाद दरकिनार कर दिए जाएंगे।
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