उत्तरप्रदेश के बारे में मजाक मेें कहा जाता है कि इस प्रदेश में हर सवाल का उत्तर मिल जाता है। लेकिन फिलहाल राजनैतिक हालात ऐसे हैं कि सत्तारुढ़ भाजपा ही अनेक सवालों से घिरी हुई उत्तरहीन खड़ी है। पिछले दो हफ्तों से राजनैतिक धरातल पर एक सवाल बार-बार कौंध रहा है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी के बीच वर्चस्व की लड़ाई छिड़ चुकी है। हिंदुत्व के इन दोनों झंडाबरदारों के बीच यूं तो एक अरसे से तुलना की जा रही थी।
खासकर जब 2017 में तमाम अनुमानों को खारिज करते हुए आदित्यनाथ योगी को भाजपा ने अपना मुख्यमंत्री बनाया, तब भी ये सवाल उठा था कि क्या योगी को इस पद पर बिठाना भाजपा की मजबूरी थी। क्या भाजपा ने उत्तरप्रदेश की कमान एक मठाधीश के हाथों सौंप कर उनकी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को साधने की कोशिश की है।
उस विधानसभा चुनाव में भाजपा ने भारी बहुमत तो हासिल कर लिया था लेकिन मुख्यमंत्री पद के कुछ मजबूत दावेदार थे जैसे- मनोज सिन्हा, राजनाथ सिंह और केशव प्रसाद मौर्य, लेकिन इन सबको दरकिनार करते हुए योगी मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल करने में सफल हुए। माना जा रहा है कि संघ के एक वर्ग का समर्थन उन्हें था। 2017 के चुनाव मोदीजी के नाम पर लड़े गए थे और योगी भाजपा के पोस्टर का चेहरा नहीं थे। लेकिन इन सालों में हालात बदल गए हैं। अब योगी मोदी-शाह की जोड़ी के आगे सिर झुकाने को तैयार नहीं हैं।
पिछले दो हफ्तों से राजनैतिक गलियारों में इस बात के चर्चे थे कि मुख्यमंत्री योगी की कुर्सी जा सकती है। उत्तराखंड में जिस तरह त्रिवेन्द्र सिंह रावत को रातों-रात हटाकर तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया गया, वैसा ही प्रयोग उत्तरप्रदेश में भी भाजपा कर सकती है। त्रिवेन्द्र सिंह रावत से नाराज विधायकों का समर्थन भाजपा हाईकमान को था और अगले चुनाव में जीतने की तैयारी उसे करनी थी, इसलिए वहां मुख्यमंत्री बदलना संभव हो गया।
उत्तरप्रदेश में भी बहुत से विधायक, मंत्री योगीजी की कार्यशैली से खिन्न हैं, वे खुद ही सरकार की खामियों का जिक्र कर रहे हैं। खासकर जिस तरह कोरोना की दूसरी लहर में राज्य की स्वास्थ्य सुविधाओं की पोल खुली, उसके बाद तो योगी के खिलाफ काफी नाराजगी देखी गई। लेकिन यहां उत्तराखंड की तरह मुख्यमंत्री बदलना संभव नहीं हुआ। फिर मंत्रिमंडल विस्तार की सुगबुगाहट हुई, लेकिन उस पर भी अब तक बात आगे नहीं बढ़ी है। दरअसल अब उत्तरप्रदेश में सब कुछ योगीजी की मर्जी पर ही निर्भर है और संघ के साथ भाजपा हाईकमान उनके तेवरों के आगे शांत दिख रहा है।
बतौर मुख्यमंत्री, योगी आदित्यनाथ ने अपनी ऐसी छवि बना ली है, जिसके सामने चार साल पहले के उनके कई प्रतिद्वंद्वी काफ़ी पीछे नजर आते हैं। राज्य में योगीजी ने ख़ुद को वैसे ही बना लिया है जैसे प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी की छवि है। बल्कि धार्मिक कट्टरता और एकतरफा फैसले लेने जैसी कई बातों में वो उनसे कई गुना आगे दिखते हैं। जिस तरह केंद्र में भाजपा सांसदों और मंत्रियों की कुछ खास पूछ-परख नहीं है, वैसे ही राज्य में स्थिति विधायकों और मंत्रियों की है।
केंद्र में नौकरशाहों के जरिए सरकार चल रही है और उत्तरप्रदेश में भी। जैसे केंद्र में मोदीजी का कोई विकल्प भाजपा में अभी नहीं दिख रहा, वैसे ही राज्य में योगी के अलावा भाजपा को कोई नहीं दिख रहा है। मुख्यमंत्री के तौर पर योगी आदित्यनाथ की कार्यशैली पर कई बार सवाल उठे, क़ानून-व्यवस्था के मामले में शुरुआत से लेकर अब तक वो विपक्ष के निशाने पर रहे हैं और ‘योगी होने के बावजूद जातिवादी सोच’ के आरोप विपक्ष के अलावा भाजपा के ही कई नेता लगा चुके हैं, बावजूद इसके योगी आदित्यनाथ की छवि एक ‘फायरब्रांड प्रचारक’ और हिन्दुत्व के प्रतीक नेता के तौर पर बन चुकी है, इन सबकी वजह से मुख्यमंत्री के तौर पर उनकी तमाम कमियों को भी नजरअंदाज किया गया।
यहां तक कि पिछले दो हफ़्ते से संघ और भाजपा के तमाम नेताओं की दिल्ली और लखनऊ में हुई बैठकों के बाद यह माना जा रहा था कि शायद अब उप्र में नेतृत्व परिवर्तन हो जाए लेकिन बैठक के बाद वो नेता भी योगी आदित्यनाथ की तारीफ़ कर गए जिन्होंने कई मंत्रियों और विधायकों के साथ आमने-सामने बैठक की और सरकार के कामकाज का फ़ीडबैक लिया।
कुल मिलाकर ये नजर आ रहा है कि उत्तरप्रदेश में भाजपा अभूतपूर्व संकट से गुजर रही है। जिस तरह 2018 में राजस्थान भाजपा में संकट शुरु हुआ था और उसका परिणाम भाजपा को चुनाव में भुगतना पड़ा, वही माहौल अब उप्र का नजर आ रहा है। वैसे योगी ने अपने बगावती तेवर पहले भी भाजपा को दिखाए हैं।
साल 2006 में 22 से 24 दिसम्बर तक लखनऊ में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक चल रही थी। लेकिन उसी दौरान योगी ने गोरखपुर में तीन दिन के विराट हिन्दू सम्मेलन का आयोजन किया और संघ और विश्व हिन्दू परिषद के कई बड़े नेताओं ने इस हिन्दू सम्मेलन में हिस्सा लिया, और भाजपा हाथ पर हाथ धरे इस आयोजन को देखती रह गई। इसी तरह मार्च 2010 में जब संसद में महिला आरक्षण बिल पर भाजपा ने सदन में हाजिर रहने के लिए व्हिप जारी किया था तो उन्होंने उसको नहीं माना। योगी का कहना था कि वे किसी भी तरह के आरक्षण के खिलाफ हैं।
भाजपा ने तब भी योगी के आगे हथियार डाल दिए थे। उनकी यही जिद टिकट बंटवारे में भी देखने मिली। 2002 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने उनकी पसंद के उम्मीदवार की बजाय अपने कैबिनेट मंत्री शिव प्रताप शुक्ल को टिकट दे दिया तब योगी ने भाजपा के $िखला$फ अपने उम्मीदवार राधा मोहन दास अग्रवाल को हिन्दू महासभा के टिकट से उतार दिया और जीत दिलवाई। साल 2007 और 2012 के चुनावों में भी उन्होंने अपने बहुत सारे उम्मीदवारों को टिकट दिलाने में कामयाबी हासिल की। 2017 के चुनावों में भी उनकी पसंद का ख्याल भाजपा ने रखा। समर्थकों के बीच उनकी मजबूत पकड़ का यह एक बड़ा कारण है।
बहरहाल अब सवाल ये है कि योगी का यह राजहठ कहां तक खिंच पाएगा और भाजपा इसे कहां तक झेलेगी। वैसे इतिहास बताता है कि उमा भारती, गोविन्दाचार्य, कल्याण सिंह, बलराज मधोक जैसे बड़े नेताओं को पार्टी छोड़ने के बाद किस तरह हाशिए पर किया गया। क्या योगी भी भविष्य में इसी तरह हाशिए पर नजर आएंगे या वे मोदीजी के समक्ष एक समानांतर लकीर खींचने में सफल होंगे। इस सवाल का जवाब आने वाले वक्त में मिल ही जाएगा।
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