सोमवार दोपहर खबर आई कि प्रधानमंत्री मोदी शाम 5 बजे राष्ट्र को संबोधित करने वाले हैं। अचानक कभी भी, किसी भी वक्त राष्ट्र को संबोधित करने की ये खास अदा मोदीजी की है। देश ने सबसे पहले नोटबंदी के वक्त इसका झटका महसूस किया था। पिछले साल जब लॉकडाउन लगाया था, तब भी एक बड़ा धक्का देश को लगा था। 2019 के चुनाव से पहले मंगल अभियान को लेकर उन्होंने राष्ट्र को संबोधित किया था। उसके बाद कोरोना की पहली लहर में उन्होंने कम से कम 7 बार देश को संबोधित किया, जिसमें जनता कर्फ्यू लगाने, कभी ताली बजाने, कभी दिए जलाने के लिए कहा, और कभी लॉकडाउन बढ़ाने और आत्मनिर्भर अभियान की बातें देश के साथ साझा कीं। इस तरह लोगों के बीच इस बात का खौफ थोड़ा कम हुआ कि अब मोदीजी राष्ट्र के नाम कोई संदेश देंगे तो उसमें कोई बड़ा उलटफेर करने वाला फैसला नहीं होगा। सोमवार के उनके राष्ट्र के नाम संबोधन में भी कोई अनूठी घोषणा तो नहीं हुई, लेकिन विरोधियों को जवाब देने का चिर-परिचित मोदियाना अंदाज जरूर नजर आया।

दरअसल मोदीजी ने टीकाकरण अभियान पर बड़ी घोषणा करते हुए कहा कि 21 जून अंतरराष्ट्रीय योग दिवस से 18 साल से अधिक आयु के सभी लोगों को मुफ्त टीका लगाया जाएगा। विपक्षियों को जवाब देने का यह उनका मास्टर स्ट्रोक था। केंद्र सरकार ने 1 मई से 18 बरस के लोगों के लिए टीकाकरण की घोषणा की थी, लेकिन इसका खर्च उन्हें खुद उठाना था। राज्यों को भी टीकों की खरीद का इंतजाम खुद करना पड़ा रहा था और अलग-अलग कीमतों से काफी असमंजस की स्थिति बनी हुई थी। देश में करीब साढ़े चार महीने पहले शुरू हुआ टीकाकरण अभियान बुरी तरह लड़खड़ा दिख रहा है। और इसकी जिम्मेदारी केंद्र सरकार के अलावा किसी पर नहीं डाली जा सकती, क्योंकि मोदीजी ने रोजाना दस लाख लोगों को टीका लगाने का लक्ष्य घोषित करते हुए दावा किया कि यह दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान है और इस मामले में भी भारत पूरी दुनिया का नेतृत्व कर रहा है।

लेकिन इतने बड़े पैमाने पर टीकाकरण के लिए क्या पर्याप्त खुराक तैयार हैं, क्या केंद्र टीकाकरण का खर्च उठाएगी, क्या राज्यों को इसके लिए अलग से सहायता दी जाएगी, सरकारी और निजी अस्पतालों में टीके को लेकर क्या एक जैसी नीतियां होंगी। क्या टीके की दोनों खुराक एक ही कंपनी की होनी चाहिए, दोनों खुराकों के बीच का अंतर कितना होगा, ऐसे कई सवाल थे, जिन पर मोदी सरकार को पहले से जवाब तैयार रखने चाहिए थे। लेकिन सरकार ने प्रधानमंत्री मोदी के छवि-प्रबंधन के चक्कर में जनता को गंभीर संकट की ओर धकेल दिया है। यही वजह है कि सर्वोच्च अदालत को भी केंद्र सरकार की टीका नीति को लेकर गंभीर सवाल उठाने पड़े।
सर्वोच्च अदालत ने कोविन पोर्टल पर रजिस्ट्रेशन की अनिवार्यता से लेकर टीके के दाम और राज्यों की खरीद के मसले तक, पर केंद्र से सवाल पूछे थे। अदालत ने खास तौर पर सवाल किया कि पूरे देश में टीके के दाम एक समान क्यों नहीं होने चाहिए और देश के सभी लोगों को टीके कब तक लग जाएंगे। लेकिन सरकार इन सवालों के कोई तार्किक और संतोषजनक जवाब नहीं दे पा रही थी। दुनिया की किसी सरकार ने अपने नागरिकों के साथ इस तरह का खिलवाड़ नहीं किया होगा। पिछले साल अगस्त में दुनिया के तमाम देशों ने टीके मंगवाने शुरू कर दिए थे। विकसित देशों ने तो अपनी आबादी से कई गुना ज्यादा खुराक मंगवा ली थी।
लेकिन तब मोदी सरकार चुनावों को जीतने की रणनीति बनाने में व्यस्त थी। देश के लोगों के लिए तो टीके का इंतजाम पर्याप्त हुआ नहीं औऱ महामारी के खिलाफ लड़ाई का वैश्विक नेता बनने के फेर में ही भारत में बने टीके कई देशों को निर्यात भी किए गए और कुछ देशों को सहायता के तौर पर भी भेजे गए। इसका नतीजा यह हुआ कि महज तीन महीने बाद ही भारत में जारी टीकाकरण अभियान पटरी से उतर गया। राज्यों से कह दिया गया कि वे अपनी जरुरत के टीके खुद खरीदें और वह भी कंपनियों की तय की हुई कीमत पर। लेकिन यह फरमान जारी करते हुए यह भी नहीं सोचा गया कि राज्य सरकारों की आर्थिक स्थिति पहले ही डांवाडोल है। उन्हें जीएसटी से प्राप्त राजस्व में उनका हिस्सा भी केंद्र सरकार से नहीं मिल रहा है। ऐसे में टीका खरीदने में अरबों रुपयों का खर्च कहां से उठाएंगे। टीका लगवाने के लिए बार-बार उम्र की सीमा तय करना और कीमतों को लेकर भ्रम की स्थिति बनाए रखने से भी हालात काफी खराब हो गए।
लेकिन अब मोदीजी ने अपने संबोधन में इन सवालों के जवाब देते हुए इस स्थिति के लिए एक तरह से राज्यों को ही जिम्मेदार बता दिया है। उन्होंने कहा कि कोरोना के लगातार कम होते मामलों के बीच देश के सामने अलग-अलग सुझाव भी आने लगे। यह भी कहा जाने लगा कि आखिर राज्य सरकारों को टीकों और लॉकडाउन के लिए छूट क्यों नहीं मिल रही है। इसके लिए संविधान का जिक्र करते हुए यह दलील दी गई कि आरोग्य तो राज्य का विषय है। इसके बाद केंद्र सरकार ने गाइडलाइंस तैयार कीं और राज्यों को छूट दी कि वे अपने स्तर पर प्रतिबंध लागू कर सकें। काफी चिंतन-मनन के बाद यह फैसला हुआ कि यदि राज्य सरकारें अपनी ओर से प्रयास करना चाहती हैं तो भारत सरकार क्यों ऐतराज करे। 1 मई से 25 फीसदी काम राज्यों को सौंप दिया गया।
उसे पूरा करने के लिए उन्होंने प्रयास भी किए। लेकिन इसी दौरान उन्हें पता भी चला कि इतने बड़े अभियान में क्या समस्याएं आ रही हैं। हमने मई में देखा कि कैसे लगातार बढ़ रहे केस, टीकों के लिए बढ़ते रुझान और दुनिया में टीकों की स्थिति को देखते हुए राज्यों की राय फिर बदलने लगी। कई राज्यों ने कहा कि पहले वाली व्यवस्था ही अच्छी थी। राज्यों की इस मांग पर हमने भी सोचा कि राज्यों को दिक्कत न हो और सुचारू रूप से टीकाकरण हो। इसलिए हमने 1 मई से पहले वाली व्यवस्था को लागू करने का फैसला लिया है।
बड़ी चतुराई से प्रधानमंत्री ने टीकाकरण की असफलता का ठीकरा राज्यों पर फोड़ दिया और ये बतला दिया कि सब कुछ सही करने में वे ही सक्षम हैं। अपने संबोधन में उन्होंने कोरोना में दिवंगत हुए लोगों के लिए संवेदनाएं प्रकट कीं और ये भी बताया कि पिछले एक-डेढ़ साल में किस तरह देश में स्वास्थ्य सुविधाएं मजबूत हुई हैं। लेकिन लचर स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण कितने लोगों को अकाल मौत मरना पड़ा, किस तरह अमानवीयता के साथ लाशों का अंतिम संस्कार हुआ, देश एक बड़े मरघट में किन कारणों से तब्दील हुआ, आर्थिक बदहाली ने लोगों को कैसे तोड़ दिया, महंगाई क्यों बढ़ी, इन सब बातों से उन्होंने किनारा कर लिया। देश ने देखा है कि नोटबंदी और जीएसटी की तरह टीकाकरण नीति में भी बार-बार बदलाव देश के लिए घातक साबित हुआ है। मगर मोदीजी इसके लिए राज्यों को जिम्मेदार बताते हुए खुद मसीहा बनने में लगे हैं। शायर गोपाल मित्तल याद आते हैं:
मुझे ज़िंदगी की दुआ देने वाले
हँसी आ रही है तिरी सादगी पर
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