देश में कोरोना की दूसरी लहर ने पहले से कहीं अधिक अपना कहर दिखाया है। रोजाना एक-डेढ़ लाख से ऊपर संक्रमण के मामले आ रहे हैं और हर दिन नए रिकार्ड बन रहे हैं। कई राज्यों ने आंशिक प्रतिबंध अलग-अलग क्षेत्रों में लगाना शुरु कर दिया है। इस माहौल में पिछले कई दिनों से मांग की जा रही थी कि मई से होने वाली बोर्ड परीक्षाएं अभी न ली जाएं।
बहुत से राज्यों ने बोर्ड परीक्षाएं रद्द करने का फैसला पहले ही ले लिया था, लेकिन सीबीएसई ने ऐसी कोई घोषणा नहीं की थी। इस बीच सोशल मीडिया पर परीक्षा न लेने की मुहिम छेड़ दी गई। राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, अरविंद केजरीवाल, सोनू सूद जैसी कई हस्तियों ने परीक्षाओं से ज्यादा बच्चों की सेहत को जरूरी बताते हुए सरकार से मांग की थी कि परीक्षाएं रद्द हों। जो चिंता अभिभावक पिछले महीने भर से दर्शा रहे थे, उसका संज्ञान अब जा कर सरकार ने लिया।
14 अप्रैल को आखिरकार देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को शिक्षा मंत्री के साथ बैठक कर इस बात पर चिंतन करने का अवसर मिला कि परीक्षा को लेकर सरकार को क्या कदम उठाना चाहिए। अन्यथा, पिछले दिनों जब उन्होंने परीक्षा पर चर्चा की थी, उसके बाद से यह आशंका उपज रही थी कि मोदीजी ने परीक्षा पर चर्चा की है, तो परीक्षाएं भी करवा कर ही मानेंगे।
गनीमत है कि सरकार ने 10वीं बोर्ड की परीक्षा रद्द करने का फैसला लिया है। लेकिन 12वीं कक्षा के बच्चे अब भी असमंजस की स्थिति में हैं। दरअसल बैठक में यह तय हुआ है कि 10वीं के नतीजे आंतरिक मूल्यांकन यानी बोर्ड के बनाए वस्तुनिष्ठ मापदंडों के आधार पर किए जाएंगे। अगर छात्र इस मूल्यांकन से असंतुष्ट हुए तो वे स्थिति सामान्य होने पर परीक्षा दे सकेंगे। जबकि 12वीं की परीक्षा 31 मई तक के लिए स्थगित कर दी गई है।
एक जून को एक बार फिर स्थिति की समीक्षा की जाएगी। यानी हालात ठीक रहे तो परीक्षाएं हो सकती हैं और नहीं हुए तो फिर नए सिर विचार किया जाएगा कि बच्चों को 12वीं में किस आधार पर अंक दिए जाएंगे।
आपको बता दें कि इस साल की सीबीएसई बोर्ड की परीक्षाओं में 21,50,761 बच्चे शामिल होने वाले थे जबकि 14,30,243 बच्चों के 12वीं की परीक्षा में शामिल होने की संभावना है। सामान्य स्थिति रहने पर केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड दसवीं और 12वीं की परीक्षा 15 फरवरी से अप्रैल के पहले हफ्ते तक आयोजित करा लेता है। लेकिन कोरोना की वजह से इस साल 4 मई से 10 जून के बीच परीक्षाएं थीं।
20-21 के शैक्षणिक सत्र में न केवल पढ़ाई शुरु होने में विलंब हुआ, बल्कि पढ़ाई का तरीका भी बच्चों और अध्यापकों के लिए काफी नया और उलझन भरा था। पूरे साल बच्चे और उनके मां-बाप स्मार्ट फोन, कंप्यूटर और इंटरनेट के इंतजाम में लगे रहे।
स्कूल जाने पर एक बच्चे को जो स्वाभाविक माहौल पठन-पाठन और नए लोगों से मित्रता का मिलता है, बच्चे उससे तो वंचित रहे ही, कई बच्चों को इस नई व्यवस्था के चलते काफी मानसिक दबाव से गुजरना पड़ा। संपन्न घरों के बच्चों और निम्न मध्यमवर्गीय बच्चों के बीच आर्थिक विभाजन की जो गहरी खाई है, उसकी मुश्किलें इस वक्त और खुल कर समझ आईं।
पहले किताबों या बिजली के पैसे न होने पर सड़क किनारे लैंपपोस्ट पर उधार की किताबों से गरीब बच्चे पढ़ सकते थे। लेकिन इंटरनेट और कंप्यूटर उधार पर नहीं मिलते, न ही इनके लिए बिजली का इंतजाम सड़क किनारे होता है। पिछले साल ऐसे कई मार्मिक किस्से सामने आए, जिसमें मां-बाप ने घर की जरूरी चीजें गिरवी रख बच्चों की ऑनलाइन पढ़ाई का इंतजाम कराया।
निराशा और अवसाद के कारण कुछ बच्चों के असमय दुनिया से चले जाने की घटनाएं भी हुईं। लाखों बच्चे और उनके मां-बाप इस तकलीफ से बच सकते थे, अगर शुरु से इस सत्र को लेकर ये फैसला ले लिया जाता कि सभी बच्चों को अगली कक्षा में बढ़ा दिया जाएगा, 12वीं के बच्चों के लिए भी कोई वैकल्पिक व्यवस्था की जा सकती थी। लेकिन हमेशा तात्कालिक लाभ लेने के जुगाड़ में लगी मोदी सरकार ने इस नजरिए से शायद विचार ही नहीं किया।
साल भर पढ़ाई के साथ प्री बोर्ड, प्रैक्टिकल जैसी औपचारिकताएं भी निभाई गईं। बच्चे तमाम खतरे उठाकर इन औपचारिकताओं को निभाते रहे। अब कोरोना का पानी सिर के ऊपर चला गया है तो सरकार के पास परीक्षा रद्द करने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा। लेकिन 12वीं के बच्चों को अब भी उलझा कर रखा गया है। उन्हें जितना जल्दी हो सके, इस उलझन से मुक्त करने की कोशिश सरकार को करना चाहिए।
अगर जून के बाद बोर्ड परीक्षाएं होंगी, तो उनका रिजल्ट कब आएगा और फिर कॉलेज में नया सत्र कब से शुरु होगा, इसकी कोई रूपरेखा सरकार को साझा करना चाहिए। बच्चों के भविष्य पर अचानक आकर कोई घोषणा कर देने से बात नहीं बनेगी।
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