-सर्वमित्रा सुरजन॥
कोरोना से देश के कई जरूरी काम तो रुक गए, लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि चुनावी राजनीति पूरी तरह से कोरोनाप्रुफ है। अक्टूबर-नवंबर 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव हुए थे, तब भी देश से कोरोना खत्म नहीं हुआ था। कई राजनेताओं का मानना था कि चुनाव टाल दिए जाएं, लेकिन निर्वाचन आयोग ने कोरोना से सावधानी बरतते हुए चुनाव कराने की बात कही।
भारत में कोरोना की दूसरी लहर से एक बार फिर हाहाकार है। 4 अप्रैल को देश में कोरोना संक्रमितों का आंकड़ा पहली बार एक लाख पार कर गया, इससे पहले, देश में सबसे ज़्यादा नए कोरोना वायरस केस 17 सितंबर, 2020 की सुबह सामने आए थे, जब कुल 97,894 मामले दर्ज किए गए थे। इस लिहाज से लगभग साढ़े छह महीने बाद कोरोना के आतंक ने भारत में सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। ये हालात तब हैं जब कोरोना के कारण और बचाव के उपाय एक साल से अधिक वक्त से देश की जनता को बताए जा रहे हैं। लाखों-करोड़ों रुपए विज्ञापनों, प्रचार साधनों में लगा दिए गए, ताकि कोरोना से बचने के बारे में जागरुकता फैलाई जा सके। सरकार ने आरोग्य सेतु ऐप से लेकर थाली बजाने और दिए जलाने जैसे तमाम उपाय भी अपना लिए। लॉकडाउन का कहर भी इस देश की सहनशील या शायद मजबूर जनता ने झेल लिया। बड़ी बेरहमी से कामगारों को शहरों से बेदखल कर दिया गया था और अनलॉक की प्रक्रिया शुरु होते ही उन्हें बसों में भर-भर के वापस भी लाया गया, क्योंकि विकास का पहिया इनकी ऊर्जा के बिना नहीं घूम सकता। वर्क फ्राम होम यानी घर से काम का सिलसिला अब भी बहुत से क्षेत्रों में जारी है, पढ़ाई भी ऑनलाइन हो रही है, बीच-बीच में स्कूल-कालेज खुले, जो अब आधे-अधूरे तरीके से संचालित हो रहे हैं। देश की मौजूदा कामकाजी पीढ़ी असमंजस में है कि उसका रोजगार बरकरार रहेगा या नहीं, आगे उसके बैंक खाते चलाने लायक होंगे या नहीं। दूसरी ओर भावी कामकाजी पीढ़ी यानी आज का विद्यार्थी वर्ग भी पसोपेश में है कि उसे किस तरह से डिग्री मिलेगी और आगे उसकी नौकरी का क्या होगा। देश की एक बड़ी आबादी जो बिना संक्रमण के भी कोरोना से उपजे हालात का शिकार है, अब फिर परेशान है कि ये नई लहर उसे भी कहीं अपनी चपेट में न ले ले।
इस बीच कोरोना के दो-दो टीके बना लेने का गर्वीला ऐलान प्रधानमंत्री ने किया और कहा कि सबसे पहले स्वास्थ्य कर्मी यानी कोरोना वॉरियर्स इसके पात्र होंगे। मगर अब उनके लिए कोविन ऐप पर रजिस्ट्रेशन बंद है, क्योंकि टीकाकरण की प्रक्रिया में किसी तरह की गड़बड़ स्वास्थ्य मंत्रालय ने महसूस की। दरअसल इस समूह में दूसरी डोज लेने वालों की संख्या बढ़ने की बजाय 25 प्रतिशत नए रजिस्ट्रेशन बढ़ गए, जबकि वैक्सीन की शुरुआत ही सरकार ने इस श्रेणी से की थी। ऐसे में सवाल उठता है कि नए स्वास्थ्यकर्मी एक साथ कैसे बढ़ गए। जाहिर है किसी तरह का भ्रष्टाचार टीकाकरण की प्रक्रिया में हो रहा है। वैसे एक सवाल ये भी है कि टीका कोई मौज-मस्ती के लिए तो लगा नहीं रहा, सभी को अपनी जान की फिक्र होती है और इसलिए बहुत से लोग चाहते हैं कि उन्हें जल्द से जल्द टीका लगे। शायद इसलिए स्वास्थ्यकर्मियों की गिनती एकदम से बढ़ गई। वैसे सरकार ने 45 बरस से ऊपर के लोगों के लिए अब टीकाकरण की शुरुआत कर दी है, लेकिन देश में फिलहाल एक अनार और सौ बीमार वाला हाल है। भारत कई देशों को टीके निर्यात कर दुनिया का नया मसीहा बनने की चाह में था, लेकिन जब अपने ही देश में सभी लोगों तक टीके की पहुंच आसान नहीं है, तो फिर बाहरी देशों में निर्यात करना उचित है या नहीं, ये सवाल भी अब उठ रहा है।
कोरोना से आम आदमी डरा हुआ है, यह साफ नजर आ रहा है। और उसके इस डर का लाभ सरकारों को कई तरह के मनमाने फैसले थोपने के रूप में मिल भी रहा है। सरकार लगातार कोरोना से सावधान रहने की चेतावनी दे रही है। लेकिन क्या वह खुद सावधान है, या सरकार होने के कारण कोरोना उससे डर रहा है। असम में भाजपा नेता हेमंत बिस्व सरमा के बयान को सुनकर तो ऐसा ही लगता है। एक साक्षात्कार में उन्होंने साफ कहा कि असम में अभी कोरोना नहीं है और मास्क पहनने की जरूरत नहीं है। अगर होगी, तो वे खुद बता देंगे। उनका कहना है कि मास्क पहनेंगे तो ब्यूटी पार्लर कैसे चलेंगे? ब्यूटी पार्लर चलना भी जरूरी है। यानी अगर लोग मास्क पहनेंगे तो फिर पार्लर नहीं चलेंगे और इससे आर्थिक विकास बाधित होगा। श्री बिस्वा सरमा तो प्रधानमंत्री मोदी से भी आगे निकल गए। दवाई भी और कड़ाई भी का संदेश अनेक मंचों से देने वाले मोदीजी अक्सर बिना मास्क के नजर आते हैं। हाल ही में वे बांग्लादेश यात्रा पर थे, तब भी उन्होंने कई मौकों पर मास्क लगाए बिना फोटो खिंचवाई। जब वे टीका लगवा रहे थे, तब भी उन्होंने मास्क नहीं पहना था। टीके का दूसरा डोज भी उन्होंने अब तक शायद नहीं लिया, क्योंकि उसकी कोई फोटो प्रसारित नहीं हुई। शायद चुनावों में एक ही टीके वाली फोटो की उपयोगिता थी।
कोरोना से देश के कई जरूरी काम तो रुक गए, लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि चुनावी राजनीति पूरी तरह से कोरोनाप्रुफ है। अक्टूबर-नवंबर 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव हुए थे, तब भी देश से कोरोना खत्म नहीं हुआ था। कई राजनेताओं का मानना था कि चुनाव टाल दिए जाएं, लेकिन निर्वाचन आयोग ने कोरोना से सावधानी बरतते हुए चुनाव कराने की बात कही। शुरुआती दौर में वर्चुअल सभाएं हुईं, फिर सारी सावधानियां एक ओर धरते हुए रैलियां आयोजित होने लगीं। किस नेता की रैली में कितनी भीड़ उमड़ती है, इसकी होड़ लगने लगी। अगर प्रधानमंत्री मोदी तब भी ये कहते कि मैं देश को कोरोना से सुरक्षित रखना चाहता हूं, इसलिए मैं रैली नहीं करूंगा, तो कोरोना से लड़ने की गंभीरता कुछ समझ में आती। लेकिन वे जैसी रैलियां बिहार में कर रहे थे, अब दूसरे राज्यों में कर रहे हैं। और अकेले मोदीजी ही नहीं, तमाम नेता इसी राह पर हैं। प.बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु, पुड्डूचेरी में रैलियां हुईं, रोड शो हुए, कुछ नेता मास्क के साथ दिखे, कुछ ने मास्क पहनना जरूरी नहीं समझा। जनता अपनी जान की सुरक्षा खुद करे, इस अंदाज में उसे रैलियों में आने का न्यौता भी दिया गया। इन नेताओं पर कहीं कोई जुर्माना, कोरोना से बचाव के नियमों के उल्लंघन का दंड लागू नहीं होता, लेकिन जनता से करोड़ों की वसूली मास्क न पहनने के जुर्म में कर ली गई है। कई रिहायशी इलाकों में लोग मास्क पहनने या न पहनने के मुद्दे पर झगड़ा मोल ले चुके हैं। देश में कोरोना की शुरुआत में सांप्रदायिक अलगाव देखने को मिला, फिर आर्थिक गैरबराबरी की कड़वी सच्चाई सामने आई, अब लोगों का स्वार्थी नजरिया और संवेदनहीनता कोरोना के बहाने जाहिर हो रहे हैं। कोरोना वायरस अब तक वैज्ञानिकों के लिए पहेली बना हुआ है, लेकिन इसके सामाजिक-आर्थिक प्रभाव इंसान के मुखौटों को उतारने में कामयाब रहे हैं।
हेमलेट में शेक्सपियर ने लिखा है टू बी ऑर नॉट टू बी, दैट इज द क्वेश्चन। आज यही सवाल कोरोना की उलझनों को लेकर जनता के सामने है। कोरोना से डरें, उसके सामने हार मान जाएं, डरते-डरते जिएं, या जीते-जी मर जाएं। करें तो क्या करें, सरकार कुछ तो बताए।
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