देश के सबसे बड़े बैंक कर्मचारी संगठन यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियंस ने सोमवार और मंगलवार को हड़ताल का आह्वान किया है। फोरम में भारत के बैंक कर्मचारियों और अफसरों के नौ संगठन शामिल हैं। हड़ताल की सबसे बड़ी वजह निजीकरण है। दरअसल सरकार का ऐलान है कि आईडीबीआई बैंक के अलावा दो और सरकारी बैंकों का निजीकरण होने जा रहा है। बैंक यूनियनें निजीकरण का विरोध कर रही हैं।
उनका कहना है कि जब सरकारी बैंकों को मजबूत करके अर्थव्यवस्था में तेजी लाने की जिम्मेदारी सौंपने की जरूरत है उस वक़्त सरकार एकदम उलटे रास्ते पर चल रही है। बैंककर्मियों के इस विरोध को गुरु और बाबा नुमा लोग ये कहकर खारिज कर सकते हैं कि कौन किस रास्ते पर चल रहा है, यह उसका नजरिया है।
आप सरकार को जिस उल्टे रास्ते पर चलता देख रहे हैं, हो सकता है वही सरकार के लिए सीधा रास्ता हो। वैसे भी मोदी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में तो खुला खेल फर्रुखाबादी वाले अंदाज में काम कर रही है। कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा लेने से लेकर राम मंदिर के शिलान्यास तक केंद्र सरकार ने अपने मन की बात सुनते हुए काम किया।
अर्थव्यवस्था में भी सरकार का यही अंदाज है। प्रधानमंत्री ने कुछ दिनों पहले कहा था कि व्यवसाय करना, सरकार का व्यवसाय नहीं है। 90 के दौर में आए उदारीकरण के बाद के लगभग सभी प्रधानमंत्रियों की यही राय रही है। फर्क इतना ही है कि इस तरह ताल ठोंककर जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटा जाता था। बल्कि निजीकरण करने में इस बात का ख्याल रखा जाता था कि मुनाफे वाले सार्वजनिक उपक्रम बने रहें और बढ़ते रहें। अब ये पर्दादारी भी हट गई है।
वैसे सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम या सरकारी बैंकों को महज व्यापार के नजरिए से न देखकर, यह देखा जाता कि इनके कारण देश की अर्थव्यवस्था को कितना बल मिल रहा है, कितने लोगों को रोजगार मिल रहा है, कि इससे लोककल्याणकारी राज्य के उद्देश्यों की प्राप्ति हो रही है, तो शायद इनसे पीछा छुड़ाने वाले फैसले नहीं लिए जाते।
लेकिन जब सरकार ने तय कर लिया है कि उसे किसी भी किस्म के व्यवसाय में नहीं उलझना है, कोई जिम्मेदारी नहीं उठानी है, तो फिर निजीकरण में देर किस बात की। हाल ही में बजट भाषण में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने विनिवेश के जरिए रकम जुटाकर राजकोष के घाटे को कम करने का ऐलान किया था।
पिछले कार्यकाल में कुछ बैंकों का विलय हुआ था और इस बार भी घोषणा की गई है कि इसी साल दो सरकारी बैंकों और एक जनरल इंश्योरेंस कंपनी का निजीकरण किया जाएगा। बैंक अपनी सामाजिक जिम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं और केवल अपने मालिक सेठों के हाथ की कठपुतली बने हुए हैं, कुछ ऐसे आरोपों के साथ 1969 में इंदिरा गांधी ने 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था।
1980 में मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार ने छह और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था। लेकिन जैसे बहुत सी बातों में देश पीछे की ओर जा रहा है, वैसे ही बैंक राष्ट्रीयकरण के 52 साल बाद अब पहिया उल्टा घुमाते हुए बैंकों को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी हो रही है। शुरुआत में इसे लेकर लुभावने तर्क दिए जाएंगे कि अर्थव्यवस्था के हालात देखते हुए ये जरूरी है। इससे आम उपभोक्ता का फायदा होगा। लेकिन लाखों कर्मचारी जिन आशंकाओं के साथ इस फैसले का विरोध कर रहे हैं, उन्हें क्या खारिज किया जा सकता है।
बैंकों के अलावा सरकार ने तेल, स्टील, दूरसंचार, रेलवे, एयरपोर्ट आदि कई क्षेत्रों में निजीकरण शुरु कर दिया है। कई स्थानों पर कर्मचारी निजीकरण के फैसलों के विरोध में हड़ताल या धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। लेकिन उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की तरह है। मुख्यधारा का मीडिया तो प्राइम टाइम में चुनावों में धु्रवीकरण जैसे मसलों पर खोखले तर्कों वाली बहसें चलाकर जनता का ध्यान भटका रहा है।
इधर सरकार देश की सार्वजनिक पूंजी निजी तिजोरियों में रखवाने के लिए तत्पर है। नीति आयोग उन संपत्तियों और कंपनियों की सूची तैयार कर रहा है जिसे आने वाले दिनों में बिक्री के लिए बाजार में खड़ा किया जा सके। इसके लिए केंद्र सरकार के संबंधित मंत्रालयों को ऐसी संपत्तियों की पहचान करने कहा गया है।
भारत के एक उद्योगपति की संपत्ति दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ी है। जबकि इसी देश में करोड़ों लोग बेरोजगार हो गए हैं। निजीकरण का यह खेल उद्योगपतियों की संपत्ति में कितना इजाफा करता है, यह जनता देखती रह जाएगी और उसके पास खाली झोले के अलावा कुछ नहीं रह जाएगा।
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