-संजय कुमार सिंह॥॥
आज के समय में जब आरक्षण और दूसरे कारणों से सरकारी नौकरियों का आकर्षण लगातार कम हो रहा है, राजनेताओं के गिरते स्तर के कारण आईएएस की नौकरी पसंद करने वाले कम हो रहे हैं तब प्रधानमंत्री ने सरकारी बाबू यानी अफसरशाही बनाम विशेषज्ञता की बहस छेड़ी है। मौजूदा व्यवस्था में आवश्यकता इस बात की है कि प्रतिभाशाली युवाओं को इन नौकरियों के प्रति आकर्षित किया जाए ताकि काम करने वाले योग्य अफसरों की अच्छी टीम बने। अफसरों की टोली तो नेताओं की सहायता के लिए है और सर्वोच्चता तो नेताओं की ही है। लोकतंत्र में नेता के आदेश पर या नेतृत्व में अफसर काम करते हैं। और यह कहना गलत है कि आईएएस बन गया मतलब वह फर्टिलाइजर का कारखाना भी चलाएगा, केमिकल का कारखाना भी चलाएगा, आईएएस हो गया तो वह हवाई जहाज भी चलाएगा। और यह कोई बहुत बड़ी ताकत बन गई है।
वैसे भी, इस ताकत का उपयोग तो राजनेता ही करते हैं। राजनेता चाहें तो फर्टिलाइजर का कारखाना चलाने वाले को ऐसे ही कामों लगाए रख सकते हैं। अगर कोई नेता समझता है कि एक ही व्यक्ति दोनों कर सकता है तो वह वैसी तैनाती करवाएगा नहीं तो काम देखकर बदला भी जा सकता है। आईएएस में अगर प्रतिभा होगी तो वह कोई ना कोई काम तो अच्छा करेगा ही। नेताओं को चाहिए कि उनकी क्षमता का सर्वश्रेष्ठ उपयोग करें। पर हो क्या रहा है। नरेन्द्र मोदी क्या ऐसा कर रहे हैं? कुछ चापलूस अधिकारियों की मलाईदार पदों पर तैनाती का मामला क्या खत्म हो गया है। विदेश सेवा के अधिकारी को विदेश मंत्री बना देना और कहना कि आईएएस सब काम नहीं कर सकता है, परस्पर विरोधी है।
जहां तक योग्यता-प्रतिभा की बात है 2014 के चुनाव से पहले किसी वित्तीय मामले पर नरेन्द्र मोदी की टिप्पणी के जवाब में उस समय के वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कहा था कि अर्थशास्त्र के प्रधानमंत्री के ज्ञान को डाक टिकट के पीछे लिखा जा सकता है। हालांकि, उन्होंने तब यह भी कहा था कि वे सीखने की प्रक्रिया में हैं और मुझे यकीन है कि जल्दी ही सीख जाएंगे। क्या सीखे, कितना सीखे वह हम नोटबंदी से लेकर जीएसटी तक और अर्थव्यवस्था की मौजूदा हालत से समझ सकते हैं। जवाब में नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि उनका ज्ञान एक शब्द, ट्रस्टीशिप में सीमित है। उन्होंने कहा था आप देश के संस्थाधनों के ट्रस्टी हैं, स्वामी नहीं। बेशक कहने के लिए यह आदर्श है पर योग्यता के बिना आपके संरक्षण में संसाधनों का क्या होगा, इसकी चिन्ता कौन करेगा? वैसे भी हमारे यहां कहा जाता है, पूत कपूत तो क्या धन संचय?
विदेशी धन (चंदा या सहायता) को अब पाप बना दिया गया है। हालांकि पीएम केयर्स के मामले में ऐसा नहीं है। कहने की जरूरत नहीं है कि देश में आने वाला विदेशी पैसा यहां उपयोग हो और यहां के लोगों को फायदा मिले तो उसमें बुराई क्या है? सरकार को यह क्यों पसंद नहीं है, समझना मुश्किल नहीं है। और आप ट्रस्टी बने रहने के लिए चाहते हैं कि हर विरोधी की कमाई रोक दी जाए। यह देश हित हुआ या विरोध? मुझे लगता है कि सिर्फ एक शब्द से ज्यादा का आर्थिक ज्ञान रखने वाला व्यक्ति इसका भी कुछ उपाय निकालता ताकि सांप मर जाए लाठी भी न टूटे। यहां तो सांप मरा नहीं, लाठी टूट गई है। और लाठी टूटी ही नहीं है, 56 ईंची गुब्बारा पूरा पिचक गया है। ऐसा आदमी योग्यता और प्रतिभा की बात करे तो हंसा ही जा सकता है।
कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार चलाना टीम वर्क है और अच्छी टीम अच्छे लोगों से ही बनेगी। अगुआ या नेतृत्वकर्ता के रूप में कोई व्यक्ति चाहे जितना काबिल हो, अकेला ही होगा। और नरेन्द्र मोदी की ‘एकला चलो’ की कार्यशैली का नुकसान दिख रहा है। ठीक है कि प्रचारकों ने सभाल रखा है या अपनी योग्यता से वे चुनाव जीत जाते हैं, जिता ले जाते हैं पर देश का क्या भला हो रहा है? काम करने के लिए वे भिन्न किस्म के प्रतिभाशाली लोगों को सहायता के लिए जोड़ सकते है पर वित्त मंत्री अर्थशास्त्री न हो, शिक्षा मंत्री डिग्री का अर्थ न जाने, रिटायर जनरल खुशी खुशी ‘चौकीदार’ हो जाए और एक रिटायर बाबू को आप विदेश मंत्री बना दें तो आपकी टीम भावना पर बोलने के लिए कुछ रह नहीं जाता है। रिजर्व बैंक से पैसे लेने के लिए गर्वनर के पद के साथ जो किया गया उसे दुनिया ने देखा है।