-सुब्रतो चटर्जी॥
आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, हर मायने में देश आज एक अंधे मोड़ पर खड़ा है । आज़ादी के बाद यह पहला मौक़ा है कि हमारे पास कोई दृष्टि नहीं बची है किसी भी समस्या के निपटारे के लिए । एक तरफ़ अतिवाद का प्रलोभन है तो दूसरी तरफ़ आत्मसमर्पण का विकल्प । कोई बीच का रास्ता नहीं है ।
दो महीने से ज़्यादा हो गए किसान आंदोलन को , लेकिन कोई नतीजा नहीं । इस आंदोलन के शुरू से ही मुझे लगा कि अहिंसक आंदोलन का कोई असर फ़ासिस्ट लोगों पर नहीं होगा। मैं आज भी इस बात पर क़ायम हूँ । आप इसे मेरी नासमझी कह सकते हैं, लेकिन यही सच है ।
आज ६ फ़रवरी है और किसान यूनियनों के आह्वान पर देश भर में तीन घंटे के लिए चक्का जाम किया जा रहा है । ये सब सांकेतिक है और नाज़ी भारत को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता ।
इसी तरह, नाज़ी भारत को आपके भूख हड़ताल या धरना प्रदर्शन से भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है ।
कारण स्पष्ट है । पहली बात तो ये है कि वे हम लोगों को बाँट कर ही सत्ता में आए हैं, और यह बँटवारा सिर्फ़ धर्म और जाति के आधार पर नहीं हुआ है । दरअसल, किसान और मज़दूर बंटे हुए हैं, मज़दूर और मज़दूर बंटे हुए हैं, किसान और किसान बंटे हुए हैं, व्यापारी और व्यापारी बंटे हुए हैं, नौजवान और छात्र बंटे हुए हैं । सबके अपने अपने दायरे हैं और कोई भी इनके बाहर आने को तैयार नहीं है ।
आपने कितनी बड़ी फ़ैक्टरियों में नियमित श्रमिकों को ठेका मज़दूरों की जायज़ माँगो के समर्थन में हड़ताल करते देखा है ? एक भी उदाहरण नहीं है । ठीक इसी तरह जब रेलकर्मी हड़ताल पर जाते हैं तब कोलकर्मी साथ नहीं देते । हर स्तर पर यही कहानी है ।
क्रांतिकारी नेतृत्व की सबसे बड़ी चुनौती यही है; सारे कामगारों, किसानों और नौजवानों को लड़ाई के मैदान में एक साथ उतारना । कहना आसान है, लेकिन करना उतना भी मुश्किल नहीं है जितना लोग सोचते हैं ।
सबसे पहले इसके लिए एक कॉमॉन कॉज़ की ज़रूरत होती है । आज़ादी की लड़ाई के सामने एक स्पष्ट लक्ष्य था , इसलिए यह कामयाब हुई । इसी तरह, एक स्पष्ट लक्ष्य चाहिए । अगर आपकी लड़ाई कहीं पर सैलरी बढ़ाने के लिए है और कहीं पर अवैध छँटनी के ख़िलाफ़ और कहीं पर एम एस पी के लिए है, तो आपकी हार निश्चित है । वे तो यही चाहते हैं कि हम सब अपने अपने निकटवर्ती स्वार्थ की लड़ाई लड़ें ताकि वे आसानी से हम सबको अलग अलग निपटा लें । पूँजी वादी व्यवस्था इसी कुटिलता के सहारे ज़िंदा रहती है ।
इसके उलट , अगर क्रांतिकारी नेतृत्व लोगों को ये समझा सके कि सारी लड़ाईयों का सार एक ही है, व्यवस्था परिवर्तन के ज़रिए एक समतामूलक समाज की स्थापना, तो ये काम आसान होगा ।
किसान आंदोलन राजनीतिक लोगों और पार्टियों से अब तक खुद को अलग रखा है । हमारे मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवी इस बेवक़ूफ़ी पर तालियाँ पीटते नहीं थकते । वे तो यहाँ तक कहते हैं कि किसान आंदोलन की सफलता का कारण ही राजनीति से दूर रहना है । अब इन मूर्खों को कैसे समझाया जाए कि सरकार के बनाए हुए हर क़ानून के पीछे एक राजनीति होती है, इसलिए इसका लोकतांत्रिक विरोध मूलतः राजनीतिक ही होता है ।
सवाल ये है कि किसान आंदोलन को तथाकथित रूप से ग़ैर राजनीतिक रख कर किसे फ़ायदा हो रहा है? ज़ाहिर है उसी सरकार और उसकी राजनीति को जिसने ये काले क़ानून लाए हैं । आंदोलन में राजनीतिक दलों का नहीं होना विपक्ष की एकजुटता के लिए नुक़सानदायक है, और सत्ता बिखरे हुए विपक्ष से बहुत खुश रहती है । इसलिए मैंने पहले कभी लिखा था कि किसान क़ानून के विरुद्ध हैं, मोदी या सरकार के विरुद्ध नहीं ।
सवाल ये है कि जो आंदोलन सरकार के विरुद्ध ही नहीं है वह व्यवस्था के विरुद्ध कैसे हो सकती है? राजनीतिक दलों के बहिष्कार का कारण अब आप समझ गए होंगे ।
फूट डालो और राज करो हर स्तर पर हर सत्ता का आख़िरी सच है ।