-अजित वडनेरकर॥
हिन्दी से खाने, कमाने और नाम हासिल करने वाले गाहे-ब-गाहे हिन्दी को बदनाम क्यों करते हैं ? मंगलेश डबराल को हिन्दी वाला होने पर शर्म आती थी। कृष्ण कल्पित जी ने कुछ दिन पहले अशोक वाजपेयी के प्रति दुर्वचनों का मुज़ाहिरा करते हुए हिन्दी को लुटी – पिटी भाषा कह डाला। ये कैसा फ़ैशन है ? मैं इसे हिन्दी वालों की बदक़िस्मती मानता हूँ कि उन्हें अपनी बोली-भाषा पर शर्म आती है। वे उसे इतना हीन समझते हैं कि चाहे जब कोसना पुण्य समान हो जाता है।
अव्वल तो बरती जा रही कोई भी भाषा लुट-पिट नहीं सकती। भाषाएँ या तो निरन्तर बरती जाती हैं या अत्यधिक नियमन से संस्कृत की तरह संस्कारित और परिनिष्ठ बना दी जाती हैं। ऐसे तमाम प्रयत्न उस शै को एक सीमित दायरे में बांध देते हैं। यह कहते हुए मैं संस्कृत के मौजूदा रूप के प्रति कतई नकारात्मक नहीं हूँ। बल्कि कहना चाहता हूँ कि नियमन के प्रयत्नों से ही आज हम वैश्विक स्तर पर संस्कृत के माध्यम से भाषाशास्त्र का सम्यक अध्ययन कर पा रहे हैं।
मुझे अरविंद जी जैसे इक्के-दुक्के लोगों के अलावा हर कोई हिन्दी के नाम पर स्यापा करता नज़र आता है। अरविंद कुमार हमेशा कहते हैं कि “हिन्दी बढ़ रही है”। भाषा के मूल स्वभाव को समझना क्या इतना कठिन है कि हमें उसमें सर्वदा गिरावट ही नज़र आए ? बोली जा रही भाषाएँ भ्रष्ट नहीं, समृद्ध होती हैं। दिमाग़ के कपाट अगर बन्द हो तो घर की औरतें भी खिड़कियाँ नहीं खोल पातीं। तब भाषाएँ भी अति सुसंस्कृत होकर बस आपके ही लायक रह जाती हैं। या शायद नहीं रह जाती। क्योंकि आप भाषा नहीं, उपकरण बरत रहे होते हैं। उसे संगी नहीं, चेरी समझते हुए।
बरतने से भाषा बढ़ती है, यह सामान्य सी बात है। भाषा उपकरण नहीं है। चलने से जूता ज़रूर घिसता है, मगर पैर मज़बूत होते हैं, जानकारी बढ़ती है। भाषा को जूता क्यों समझ रहे हैं जो बरतने से घिस जाएगा ? जितना ज्यादा बरती जाएगी, भाषा उतनी ही बढ़ती जाएगी। भारतीयता मज़बूत होगी। प्रसारित होगी। अंग्रेजों के राज में सूरज नहीं डूबता था। अंग्रेजी दुनिया भर में बरती जा रही थी। आज वह दुनिया के अनेक देशों के बीच सम्पर्क भाषा है।
अब लिखने-बोलने से आने वाले बदलावों को आप अगर लुटना-पिटना कहते हैं अथवा फिल्मों व ओटीटी जैसे माध्यमों पर बोले जा रहे अपशब्दों की वजह से हिन्दी को निम्नस्तरीय समझते हैं तो क्या कहा जाए ? हिन्दी बहुत तेज़ी से तरक़्क़ी करती भाषा है। उसे तो हमारे पुरखों ने प्राकृतों में जीवित रखा। लोकबोलियों में हिन्दी को पहचानिये। उसके बाद निग़ाहें चौड़ी करते हुए मथुरा से महरौली के बीच बहुप्रचारित गैल को नए सिरे से देख लीजिए। कौरवी-मेरठी के आधुनिक रूपों की तो बहुत बात हो चुकी है।
हमारा अटूट भरोसा है कि गुणाढ्य ने वृहत्कथा अगर पैशाची प्राकृत में लिखी होगी तो वह भी हिन्दवी ही थी। ख़ुसरो जो लिखते थे वह भी हिन्दवी थी। फोर्ट विलियम का गिलक्रिस्ट भी हिन्दवी को बचा रहा था। बनारस का प्रेमचंद नाम का उर्दू प्रेमी शिक्षक भी हिन्दवी को बढ़ा रहा था। मुम्बई की टाल पर पहुँचा राही मासूम रज़ा नाम का अदीब भी हिन्दवी का काम कर रहा था। यहाँ रेख़्ता और दक्कनी की बात नहीं। और अगर है तो रेख़्ता को भी किसी ज़माने में अधकचरी ज़बान कहा गया था। आज रेख़्ता फ़ैशन हो गयी।
हिन्दी भी फ़ैशन में है मियाँ। आप पर नज़र रखी जा रही है। कोसना है तो उन्हें कोसिये जो ‘ताण्डव’ कर रहे हैं, लिख रहे हैं। बाकी हिन्दी में ही क्यों, आप तो उर्दू, अरबी, स्पेनी या अंग्रेजी में अल्लाह, गॉड, भगवान की निन्दा कर लीजिए। गाँधी से लेकर मार्टिन लूथर तक के लिए अपशब्द निकलवा लीजिए। भाषा फ़ाँसी पर नहीं चढ़ेगी। चढ़ेंगे आप।