-अनिल शुक्ल॥
बीते मंगलवार ‘बॉम्बे हाईकोर्ट ने विपरीत धर्म की एक शादी का आदेश सुनाया। लड़के द्वारा अपनी प्रेमिका को उसके घरवालों द्वारा जबरन घर में रोके जाने के मामले में दायर ‘बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका’ की सुनवाई के दौरान जस्टिस एसएस शिंदे और जस्टिस जगदीश पिटाले की डिवीजज बेंच ने लड़की को तलब करके उसकी राय पूछी। लड़की द्वारा यह कहे जाने पर कि उसकी आयु 23 वर्ष है, वह स्नातक है और अपनी इच्छा से उक्त लड़के से विवाह करना चाहती है, न्यायालय ने इंसाफ़ करते हुए कहा कि ”लड़की कही भी विचरण करने के लिए स्वतंत्र है और उसके माता-पिता को उसकी स्वतंत्रता पर रोक लगाने का कोई अधिकार नहीं।”
उधर मप्र के बड़वानी ज़िले में 9 जनवरी से लागू हुए लव जिहाद क़ानून-‘धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम 2020’ के पहले मामले में पुलिस ने एक मुस्लिम नवयुवक को गिरफ़्तार किया है-एक हिन्दू लड़की की शिकायत पर कि उसने विवाहित होने के बावजूद लड़की से झूठ बोला और उसे विवाह के लिए फ़साना चाहा। इन आरोपों में कितनी सच्चाई है यह तो अदालत में ही पता चलेगा लेकिन यदि यह सचमुच धोखाधड़ी है तो उसके लिए आईपीसी की धाराओं में विधिवत प्रावधान हैं। इस मामले में नवयुवक पर आईपीसी की धारा 376 (बलात्कार-10 साल की सज़ा ), 294 (अश्लीलता-3 माह की सजा), 323 (मारपीट-1 वर्ष की सज़ा), 506 (जान से मारने की धमकी देना-7 साल की सजा) भी लगायी गयी हैं। इन धाराओं में कम गंभीरता नहीं फिर इसके अतिरिक्त ‘अधिनियम’ की धारा 3 और 5 भी लगाने का क्या औचित्य? जबरन धर्म परिवर्तन के लिए भी सख्त क़ानून पहले से मौजूद थे।
प्रेम विवाहों को लेकर बने नए क़ानून (अधिनियम) आज की विशिष्ट राजनीति का हिस्सा हैं, इससे भला कौन इंकार करेगा? लेकिन क्या स्वेच्छा से विवाह का विरोध सिर्फ़ राजनीतिक प्रलाप है या यह यह हमारी व्यापक भारतीय परंपरा का अवश्यम्भावी हिस्सा है? यह संस्कार अकेले हिन्दू धर्म में व्याप्त हों, ऐसा नहीं है। इसके पीछे गहरे सामाजिक कारण हैं जिसके चलते यह युगों-युगों से हमारी सामंती-संस्कृति का अंग बने हुए हैं। अन्य धर्मों में भी माता-पिता की नज़रों में बेटे-बेटियां, निजी संपत्ति सरीके हैं जिनका विवाह भी उनकी (अभिवावकों की) इच्छा से होना चाहिए। इसके अलावा बच्चों का विवाह उनके लिए एक व्यवसाय भी है जिसमें ‘कैश’ और ‘काइंड’ का खुला चलन है। आज यदि उन्हें बेटी के लिए देना पड़ रहा है तो कल बेटे के लिए छाती चौड़ी करके मांगने में भी नहीं चूकेंगे। बेशर्मी भरे इस लेन-देन पर धर्म, जातीयता और अभिवावकों की पसंद का मुलम्मा चढ़ाया जाता है और विरोध करने वाले बेटे-बेटियों को माता-पिता और समुदाय के जरिये प्रताड़ित किया जाता है। ऐसे बहुत से निर्धन माता-पिता (लड़की के) दिखते हैं जिनके पास बेटी के दहेज़ को बेशक कौड़ी भर धन-संपत्ति नहीं फिर भी वे इसी सामंती और व्यावसायिक (बेटे के टाइम पर कैसे हाथ पसारेंगे) सोच के चलते बेटी के प्रेम विवाह का विरोध करते हैं।
भाजपा और ‘संघ’ परिवार एक तीर से दो शिकार कर रहे हैं। एक तरफ वे ‘लव जिहाद’ के नाम पर समाज में राजनीतिक एकीकरण साध रहे हैं दूसरी ओर वे विवाह को लेकर गढ़े गए सामंती और व्यावसायिक मूल्यों की पराकाष्ठ में लगे हैं।
कैसी विडंबना है कि सभी राज्यों में दायर लव जिहाद के मामलों में अभी तक कोई भी मुक़दमा अदालतों में अपनी रीढ़ पर टिक नहीं सका है। क्या यह लोकतान्त्रिक समाज का गहरा अंतर्विरोध नहीं है कि स्वैच्छिक विवाह न्याय की तराजू में खांटी तुल रहे हैं लेकिन सियासत उनका दमन करने में लगी हुई है?