-राजीव मित्तल॥
बेहद अफसोस कि जन आंदोलनों से निकले 1977 के ज़्यादातर युवा नेताओं की सोच कुछ ही समय बाद इस कदर सड़ी साबित हुई कि इसके चलते 1977 के बदलाव देश की राजनीति के लिए बेहद घातक साबित हुए..वरना 1977 से पहले एक बेहद ईमानदार, जुझारू और जन चेतना से लबालब विपक्ष भारतीय लोकतंत्र का सबसे मजबूत पक्ष था, जिसे नष्ट करने का काम जयप्रकाश नारायण ने अंधकांग्रेस विरोध के चलते किया..
उस समय जेपी ने सशक्त कांग्रेस सरकार का विकल्प जल्दबाजी में जुटाए विपक्षी नेताओं की भीड़ में तलाशा..जेपी ने वही गलती की जो गलती 1967 में राममनोहर लोहिया ने की थी..आज़ादी के बाद सत्तारूढ़ कांग्रेस का विकल्प बने सबसे बड़े और सबसे मजबूत विपक्ष समाजवादी दल को सबसे ज़्यादा नुकसान पहुंचाने में इन दोनों ही नेताओं का बहुत बड़ा हाथ था..खासी टूटफूट कर जेपी तो बीच रास्ते में ही सब कुछ छोड़छाड़ कर विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से जुड़ गए और संगठनकर्ता के नाम पर शून्य लोहिया ने ऐसे समाजवादी नेताओं की पौध तैयार की जो कांग्रेस को विष दे कर उसके खात्मे का काम करने लगी..
जेपी के अचानक यूटर्न और लोहिया की तोड़फोड़ वाली राजनीति से मधु लिमये जैसे कई समाजवादी नेता बेहद क्षुब्ध थे..खास कर लोहिया के जनसंघी नेताओं से जुड़ाव के मद्देनजर..लेकिन किसी की न सुनते हुए लोहिया ने 1963 में ही जनसंघ से पूरी तरह हाथ मिला लिया ताकि कैसे भी नेहरु और कांग्रेस को बरबाद करना है.. अपनी इस सोच को अमलीजामा 1967 के आमचुनाव में लोहिया पूरी तरह पहना पाते कि उनका निधन हो गया..तब पहली बार उत्तरप्रदेश समेत कई राज्यों में कांग्रेस से इतर जो उखड़ी उखड़ी संविद सरकारें बनीं, उनमें शामिल हो कर जनसंघ ने न केवल अपनी स्थिति मजबूत की, बल्कि उद्देश्य पूरा करने के बाद उन सब संविद सरकारों को गिराने की पूरी साजिश रची..इधर समाजवादी नेता कभी भी शासन प्रशासन वाली व्यवस्था से अपने को जोड़ नहीं पाए.
12 साल बाद 1979 आते आते दो साल कर अंदर ही केंद्र में पहली बार बनी गैर कांग्रेसी सरकार ठीक उन्हीं अंतर्विरोधों का शिकार हुई जैसे 1967 में राज्यों की संविद सरकारें हुई थीं.. कारण वही तोड़क फोड़क समाजवादी सोच, वही अपनी ज़मीन मजबूत बनाने की साजिशन संघी सोच.. और विडंबना यह कि बीस साल बाद ये दोनों ही सोच आपस में मिल गयीं..और अधिकांश बड़े नाम वाले समाजवादी नेता अटलबिहारी सरकार का अंग बन गए…
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