-संजय कुमार सिंह॥
वैसे तो राजनीति जानने-समझने वालों के लिए पहली ही तस्वीर काफी है पर दूसरी तस्वीर भी कम नहीं है। पहली तस्वीर कल (शुक्रवार, 8 जनवरी को) सोशल मीडिया पर तरह-तरह के कैप्शन के साथ शेयर हो रही थी। पर सोशल मीडिया पर किसने किस टिप्पणी के साथ सबसे पहले इसे पोस्ट किया, यह पता नहीं चला। मुझे जहां कहीं से उम्मीद थी वहां यह फोटो नहीं मिली। पत्रकारिता में इसे ‘लीक’ करना / करवाना कहते हैं। हालांकि वह महत्वपूर्ण नहीं है। इसी क्रम में मुझे CM Office, GoUP @CMOfficeUP पर दूसरी तस्वीर मिली और इससे पहली तस्वीर के ज्यादा शेयर होने का मतलब समझ में आता है। इस संबंध में न्यू इंडियन एक्सप्रेस में 4 सितंबर 2020 की एक खबर के साथ प्रकाशित तीसरी तस्वीर चार महीने (ही) पुरानी है और तब कोरोना का टीका दूर था और नारा था जब तक दवाई नहीं तब तक ढिलाई नहीं। इसलिए मास्क तो है पर दूरी?



जहां तक कोरोना की दवाई का मामला है, बहुत सारे लोगों के साथ मुझे भी थोड़ी जल्दबाजी लग रही है और सरकार का कार्यकाल जब 2024 तक है तो इसमें जल्दबाजी की जरूरत नहीं थी। उसका कारण समझने की कोशिश करें तो भी कई तरह की अटकलों पर यकीन होने लगता है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि नरेन्द्र मोदी को मंदिर का श्रेय जाता या कम लग रहा हो और टीका का श्रेय लेने की कोशिश हो रही है। ठीक है कि दोनों में कोई मुकाबला नहीं है। पर ब्रांड मोदी को अगर अंतरराष्ट्रीय बनाना हो, बदलना हो तो, कौन जानता है। समझने के लिए इन तस्वीरों के साथ ‘द प्रिंट’ की एक खबर महत्वपूर्ण है जिसका शीर्षक हिन्दी में होता तो कुछ इस प्रकार होता, “योगी बनाम मोदी शुरू हो चुका है। और यह 2024 के पहले दिलचस्प होगा।“
इसे इस तथ्य के आलोक में देखिए कि किसान यूनियन से एक दो नहीं आठ दौर की वार्ता विफल हो चुकी है यह स्पष्ट तौर पर राजनीतिक नाकामी है। आंदोलन का चलते रहना और खालिस्तानी, विदेशी देशद्रोही कहना तथा मुकरना पुराने तरीकों का नाकाम होना भी है। ऐसे में सरकार (या अकेले सिर्फ नरेन्द्र मोदी) क्या जान-बूझकर एक ऐसे कानून के लिए भारी जोखिम ले रहे हैं जो बिना मांगे, जल्दबाजी में पास कराया गया है और विरोधियों को पर्याप्त ‘गोला-बारूद’ दे रहा है। ‘द हिन्दू’ की आज की खबर के अनुसार, केंद्र ने किसान नेताओं से कहा है कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट निपटाए तो सर्वश्रेष्ठ है और किसानों से कहा गया है कि वे अगली सुनवाई पर उपस्थित रहें। इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट में और बाहर अभी तक जो हुआ है उससे लगता नहीं है कि यह राजनीतिक दृष्टि से अच्छा फैसला है।
तो क्या हाल तक राजनीति के उस्ताद बताए जाने वाले एंटायर पॉलिटकल साइंस के स्नातकोत्तर, हमारे प्रधानमंत्री अपने पद या पदभार से निराश हो चले हैं? मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री के रूप में उनका पहला कार्यकाल ठीक-ठाक था। दोबारा जीतने की उम्मीद मुझे नहीं थी पर पुलवामा से लेकर अंतरिक्ष में भारत की कार्रवाई का श्रेय मिलने से वे जीत भले गए पर बाद में उनकी पोल खुलती ही गई है। नामुमकिन मुमकिन तो हुए पर चौंकाते ही रहे और भाजपा व उसकी राजनीति का नुकसान ही हुआ है। प्रशासन से लेकर राजनीति तक में उनकी और पार्टी की कमजोरी ही सामने आई है। किसान आंदोलन उसका चरम है। और तीनों कानूनों को वापस लेकर इससे आराम से निपटा जा सकता था। अभी तक नरेन्द्र मोदी जैसे काम करते रहे हैं उससे यह कोई मुश्किल भी नहीं लगता है।
यही नहीं, इससे पूंजीपतियों के लिए काम करने का दाग भी थोड़ा कम होता। लेकिन सरकार और पार्टी को जैसे उसकी परवाह ही नहीं है। ऐसा नहीं है कि पार्टी की लोकप्रियता आसमान छू रही है। दिल्ली की हार के बाद बिहार में मुश्किल से सत्ता बची है। फिर भी कृषि कानून पर यह अड़ियल रवैया क्यों है या किस दम पर है यह जानना राजनीति का सबसे दिलचस्प रहस्य है। पुराने समय में इसपर अटकल लगती रहती पर अब उसे गोपनीय रखने की कोशिश पूरी होगी इसलिए दिलचस्पी और बढ़ेगी। खासकर इसलिए कि एक ऐसा कानून जो निश्चित रूप से लोकप्रियता नहीं दिलाएगा उसके लिए जोखिम क्यों लिया जा रहा है? इसके कई कारण हो सकते हैं।
पहला तो यही कि 2024 में वे मार्गदर्शक मंडल में जाने की उम्र में पहुंच जाएंगे। अगर उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनना है (इस या किसी और कारण से) तो क्या वे अपना उत्तराधिकारी विकसित होते देखना चाहते हैं या छोड़ दिया है कि जब मुझे नहीं बनना है तो भाजपा की सरकार रहे या नहीं। अगर दूसरा कारण सही होगा तो क्या भाजपा सब कुछ ऐसे ही स्वीकार कर लेगी? नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने ही प्रधानमंत्री को आगे कर चुनाव लड़ने की शुरुआत की है। क्या अगले चुनाव में वह बदल जाएगा या नया नेता तैयार करना है? अगर यह सब होना भी हो तो पार्टी स्तर पर होगा या नरेन्द्र मोदी के स्तर पर। कहने की जरूरत नहीं है कि दोनों अगर मिलकर नहीं करें तो देस जनता के लिए दिलचस्प होगा।
अभी तक जो चल रहा है उससे कुछ भी साफ नहीं है। सिर्फ यह कहा जा सकता है कि सब कुछ सामान्य नहीं लग रहा है। कृषि कानून को मुद्दा बनने देना क्या सरकार और भाजपा दोनों की रणनीति का भाग है? क्या दोनों मानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट से मामला निपट जाएगा? अगर हां, तो आने वाले दिन दिलचस्प होंगे। नहीं तो क्या पार्टी सरकार से कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए नहीं कहेगी? अगर कहेगी तो क्या वह मोदी की हार नहीं होगी? मोदी उसके लिए क्यों तैयार होंगे? और नहीं होंगे तो क्या होगा? इस हाल में भी आगे की राजनीति दिलचस्प होने वाली है। कहने की जरूरत नहीं है कि विपक्ष को ईडी और सीबीआई से डराकर नियंत्रण में रखने के बाद क्या मोदी और शाह की जोड़ी सत्ता इतनी आसानी से छोड़ देगी। बेशक स्थिति दिलचस्प है। नजर रखिए। इसलिए भी कि नामुमकिन मुमकिन है।