पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा नहीं होती, ऐसी आम धारणा बना ली गई है और कट्टरपंथ की कुछ घटनाएं होने पर अक्सर इस धारणा पर सौ फीसदी सही होने की मुहर लगा दी जाती है। भारत में नागरिकता संशोधन कानून जैसे कदम भी सरकार ने इसलिए उठाए ताकि पड़ोसी मुल्कों में रह रहे गैरमुस्लिमों के रक्षक हम बन सकें। वैसे अपने देश में अल्पसंख्यकों, दलितों के साथ किस तरह का बर्ताव जारी है, इसके उदाहरण रोजाना मिल जाते हैं।
कठिन कोरोनाकाल में भी यह सांप्रदायिक वैमनस्य खत्म नहीं हो सका, बल्कि वायरस के बहाने इसे और बढ़ाने की कोशिश की गई। अब एक बार फिर सरकार की ओर से ऐसा फैसला लिया गया है, जिससे अल्पसंख्यकों के हितों पर सवाल उठते हैं। उस फैसले पर बात की जाए, उससे पहले एक अच्छी खबर इस्लामी देश पाकिस्तान से आई है। खैबर पख्तूनख्वा के करक जिले के तेरी गांव में कृष्ण द्वार मंदिर में 30 दिसम्बर को धर्मस्थल पर विस्तार कार्य का विरोध करते हुए कट्टरपंथी जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम पार्टी (फजल उर रहमान समूह) के सदस्यों की अगुवाई में एक भीड़ ने मंदिर में तोड़फोड़ की थी और आग लगा दी थी। इस घटना पर पुलिस प्रशासन ने फौरन एफआईआर दर्ज की और लगभग सौ लोगों को गिरफ्तार किया। अब पाक सुप्रीम कोर्ट ने खैबर पख्तूनख्वा की प्रांतीय सरकार को आदेश दिया कि वह मंदिर और उस के साथ श्री परमहंस जी महाराज की समाधि का दो सप्ताह में पुनर्निर्माण करे।
मुख्य न्यायाधीश ने यह भी कहा कि मंदिर में तोड़फोड़ करने वाले लोगों को ही इसके पुनर्निर्माण में पैसा देना होगा। अपने अल्पसंख्यक नागरिकों की धार्मिक भावनाओं और मानवाधिकारों की रक्षा का यह फैसला सराहनीय और अनुकरणीय है। कट्टरता के कारण मानवता में बढ़ती कड़वाहटों को ऐसी घटनाएं ही कम कर सकती हैं। दुख इस बात का है कि भारत जैसे उदार, धर्मनिरपेक्ष देश में अब ऐसे दृष्टांत तलाशने पड़ते हैं। राजनैतिक प्रयोजनों के कारण बढ़ाई गई धार्मिक कट्टरता अब हमारे सामाजिक जीवन के साथ-साथ आर्थिक पहलू को भी प्रभावित करने लगी है। निर्यात के लिए रेड मीट के पैकेट पर हलाल न लिखने का फैसला इसी का उदाहरण है।
गौरतलब है कि सरकारी एजेन्सी एग्रीकल्चरल एंड प्रोसेस्ड फूड प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलपमेंट अथॉरिटी (एपीईडीए यानी एपेडा) ने एक अहम फैसले में कहा है कि ‘रेड मीट’ के पैकेट पर अब ‘हलाल’ शब्द नहीं लिखा जाएगा। इसके साथ ही इसके निर्यात मैनुअल में भी ‘हलाल’ शब्द निकाल दिया जाएगा और निर्यात किए जाने वाले मांस को अब हलाल सर्टिफिकेट की जरूरत भी नहीं होगी। बता दें कि मैनुअल में अब तक यह लिखा जाता रहा है कि जानवर को मान्यता प्राप्त इस्लामी संगठन की देखरेख में शरीयत के नियमानुसार इस्लामी तरीके से काटा गया है। हलाल सर्टिफिकेट मान्यता प्राप्त इस्लामी संगठन ने दिया है, जिसके प्रतिनिधि की देखरेख में जानवर को काटा गया है। लेकिन अब इन पंक्तियों को हटा दिया गया है।
गोवंश, भैंस, बकरा, भेड़ और ऊंट जैसे बड़े जानवरों के मांस को ‘रेड मीट’ कहते हैं। इस श्रेणी के तहत भारत से मुख्य रूप से बीफ़ का निर्यात होता है, भारत ब्राजाल के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बीफ़ निर्यातक देश है। हलाल सर्टिफिकेट जरूरी करने के पीछे सोच यह थी कि इस्लामी देश इसे तुरन्त स्वीकार कर लेंगे, क्योंकि वे हलाल के अलावा दूसरा मांस नहीं ले सकते। मध्य-पूर्व बीफ़ का बहुत बड़ा बाजार है और उस पर भारत का लगभग एकाधिकार है। लेकिन विश्व हिन्दू परिषद और भाजपा इस हलाल सर्टिफिकेट के खिलाफ रहे हैं।
हलाल नियंत्रण मंच ने भी इसके खिलाफ मुहिम चलाई थी। इनका मानना है कि हलाल सर्टिफिकेट लेने की जबरदस्ती कांग्रेस की देन है। इनका तर्क है कि भारत का बीफ़ चीन, वियतनाम, हांगकांग और म्यांमार भी जाता है, जो मुस्लिम-बहुल देश नहीं हैं और जिन्हें हलाल मीट की जरूरत नहीं है। यह सही है कि गैरमुस्लिम देशों को मीट के हलाल होने या न होने से फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन संयुक्त अरब अमीरात, मिस्र और इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम देश ऐसा मांस नहीं लेंगे जिसे हलाल सर्टिफिकेट प्राप्त नहीं है। इन देशों को होने वाले निर्यात के रुकने का अर्थ है भारत में मांस निर्यातक कंपनियों को इसका नुकसान उठाना पड़ेगा। और इसमें मुस्लिम मालिकों के साथ-साथ हिंदू मालिकों को भी समान नुकसान होगा। जिस तरह शाकाहार या मांसाहार का ताल्लुक धर्म से न होकर खान-पान की व्यक्तिगत पसंद से है, उसी तरह मांस उद्योग में संलग्न होने का ताल्लुक धर्म से नहीं कारोबार के चयन से है।
यह जानना रोचक है कि भारत के मांस उद्योग की सबसे बड़ी कंपनी अल कबीर के मालिक हिन्दू हैं। कुछ और बड़ी मांस निर्यातक कंपनियों के मालिक भी हिंदू हैं, कुछ मुस्लिम भी इस व्यवसाय में हैं। इसी तरह बूचड़खाने और मांस प्रसंस्करण के क्षेत्र में हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही हैं। बल्कि मांस प्रसंस्करण के क्षेत्र में मोटे तौर पर दलित समुदाय के लोग अधिक हैं। और एपेडा के ताजा फैसले से अब इन सब पर असर पड़ेगा। भारत पहले ही नोटबंदी, जीएसटी और लॉकडाउन के कारण अर्थव्यवस्था में काफी नुकसान देख चुका है। अब अगर व्यापारिक फैसलों पर धार्मिक भावनाएं हावी दिखेंगी, तो यह नुकसान और बढ़ सकता है।
(देशबंधु)