-दीपक असीम॥
हर नया साल कैलेंडर पर तो नया होता है, मगर क्या हर नया साल किसी देश के जीवन में भी कुछ नयापन लाता है? अगर बात अपने देश के संदर्भ में हो, तो लगता है कि ये देश आगे जाने की बजाय पीछे जा रहा है। आजादी के सत्तरवें साल में हमें और ज्यादा उदार, और ज्यादा सहिष्णु, और ज्यादा कानून पसंद, और ज्यादा तार्किक, और ज्यादा शांत, सुशील होना था। मगर ठीक उल्टा हो रहा है। जब ऐसी कोई दुर्घटना किसी देश के साथ होती है, तो आत्मनिरीक्षण ज़रूर करना चाहिए।
कुछ लोग कहते हैं कि देश के लोग उन तोहफों के लायक नहीं थे, जो तोहफे उन्हें हमारी आज़ादी के महान योध्दाओं ने दिये जैसे लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, बोलने की आज़ादी…। यह चीज़ें लड़ कर प्राप्त की जाएं तो ज्यादा अच्छी लगती हैं और इनका मोल भी हमें समझ में आता है। हमारी सबसे पहली चाहत तो आज़ादी थी और वो हमें 1947 में मिल गई। उसके बाद हमें कैसा राष्ट्र बनाना है, यह हम तय नहीं कर पाए और तय कर भी पाए तो हम आगामी पीढ़ियों के दिल में उस सपने को रोप नहीं पाए। नौजवानों से जिस तरह का संवाद होना था, वो नहीं हो पाया।
देश के लोगों को केवल संपन्नता ही नहीं चाहिए होती। उन्हें कोई लक्ष्य भी चाहिए होता है। निजी जीवन के लक्ष्य अलग हो सकते हैं जैसे किसी को पुलिस इंस्पेक्टर बनना है, किसी को बिजनेस में सफल होना है, मगर कुछ सामूहिक लक्ष्य भी होते हैं। 1947 के पहले वो सामूहिक लक्ष्य आजादी था। बाद की पीढ़ी को वो सामूहिक लक्ष्य नहीं मिल पाया। बाद की पीढ़ी समझ नहीं पाई कि इस संपन्नता का, इस लोकतंत्र का, इस आजादी का, इस बराबरी का क्या करें। इसका फायदा सांप्रदायिक संगठनों ने उठाया और उन्होंने नई पीढ़ी को सबसे पहले तो लोकतंत्र, संविधान, धर्मनिरपेक्षता और बराबरी के खिलाफ भड़काया और फिर उन्मादी राष्ट्र बनाने का सपना उनके दिल में ज़हरीले चाकू की तरह पैबस्त कर दिया। जिस तरह आज नौजवान सांप्रदायिक मुहिम पर निकलते हैं, उत्तेजक नारे लगाते उसी तरह 47 से पहले अंग्रेजों के खिलाफ अपनी जान हथेली पर रख कर निकला करते थे। लाठी गोली खाते थे और इंकलाब जिंदाबाद बोलते थे। नौजवान वही हैं, पर उनकी दिशा बदल गई, उद्देश्य बदल गया। पहले उद्देश्य था देश को आजाद कराना अब उद्देश्य है देश को एक ही रंग में रंगना।
इन युवकों को सच्चाई नहीं पता है। इन युवकों को देश का इतिहास अच्छी तरह नहीं मालूम है। इन युवकों में से अधिकांश अपने राज्य से शायद ही कभी बाहर गए हैं। ये लोग भारत की प्रकृति को नहीं समझते। जिस सरदार पटेल की ये लोग जय-जयकार दिन रात करते हैं, इन युवकों को नहीं पता कि उन सरदार पटेल ने साढ़े पांच सौ से ज्यादा रियासतों को मिलाकर देश बनाया और उनसे यह वादा किया था कि आपके धर्म, आपके विश्वास, आपके खान-पान, आपके रीति रिवाजों में सरकार कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी। अगर हम देश को एक ही रंग में रंगना चाहते हैं, पूरे देश को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं, तो बाकी के राज्य बेचैनी महसूस करेंगे। वे निकल भागना चाहेंगे। वे आजाद होना चाहेंगे। जिस तरह रूस टुकड़े टुकड़े हो गया क्या उसी तरह हम चाहेंगे कि हमारा देश साढ़े पांच सौ अलग अलग टुकड़ों में बंट जाए।
नौजवानों को सच्चा इतिहास बताने की जिम्मेदारी कांग्रेस की थी। कांग्रेस ने जो गलतियां की उनमें एक बड़ी गलती यह भी थी कि अपने कार्यकर्ता तैयार नहीं किये, अपनी विचारधारा का फैलाव नहीं किया। सबसे बड़ी गलती यह कि कोई उद्देश्य सामने नहीं रखा। उद्दे्श्य होना था अमेरिका से ज्यादा जीवंत लोकतंत्र बनाने का। स्विटज़रलैंड से ज्यादा धनी होने का। अंदर ही अंदर सांप्रदायिक शक्तियां अपने कुप्रचार में लगी रहीं और उस कुप्रचार को सरकारी ताकत और साधन होते हुए भी सत्तर साल में कभी काउंटर नहीं किया। सांप्रदायिक ताकतें अंदर ही अंदर लोकतंत्र का सहारा लेकर पनपती रहीं। कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता को कभी परिभाषित नहीं किया। आज़ादी मिलने के बाद कांग्रेस अपने चिरशत्रु को भूलकर शासन करने में लगी रही। अगर धर्मनिरपेक्षता को परिभाषित किया होता तो मालूम पड़ता कि सर्वधर्म समभाव असली धर्मनिरपेक्षता नहीं है, बल्कि धर्मनिरपेक्षता अलग ही चीज है।
असल बात यह है कि नेहरू के बाद देश को किसी कांग्रेस नेता ने कोई विजन नहीं दिया। नेहरू जी की मृत्यु के बाद कांग्रेस का वैचारिक पराभव शुरू हुआ जिसका अंजाम हम आज देख रहे हैं। कांग्रेस केवल एक सियासी पार्टी ही नहीं है, वह देश के इतिहास का अमिट हिस्सा है। कांग्रेस को षड्यंत्रपूर्वक मिटाया जा रहा है। कांग्रेस का मिटना लोकतंत्र का मिटना हो सकता है, धर्मनिरपेक्षता का मिटना तो है ही। कांग्रेस शासन करने वाली पार्टी है और उसे विपक्ष की भूमिका अदा करना नहीं आती। भाजपा विरोध करने वाली पार्टी है और उसे नहीं पता कि सत्ता में जाकर क्या किया जाता है, कैसे किया जाता है। इसीलिए ज्यादाकर मामलों में वो वही करती है, जो कांग्रेस करना चाह रही थी, मगर अलग अंदाज़ से करती है। नतीजतन बड़े हंगामे होते हैं।
नए साल में हम सबको देखना होगा कि वो कौनसी गलती है जिसके कारण हम आगे जाने की बजाय पीछे जा रहे हैं। यह ऐसे ही है जैसे गाड़ी में रिवर्स गियर लग गया हो और एक्सिलेटर पर पांव का दबाव बढ़ता ही जा रहा हो। हम सबको आत्मनिरीक्षण करना है और देश को आगे ले जाने की सोचना है। जहां भी जैसी भी गलती दिखे, उसे सुधारा जाना ज़रूरी है। संविधान हमारा सहारा है। अगर हम अब भी संविधान की शरण में जाएं और वहां से दिशा निर्देश प्राप्त करें, तो देश आगे की तरफ चल सकता है। दिक्कत यह है कि सांप्रदायिक शक्तियां संविधान को मिटाना, बदलना चाहती हैं।
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