भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुद्दा। दुष्यंत कुमार की इन पंक्तियों में आम आदमी की बदहाली और सत्ताधीशों की उनके प्रति उदासीनता को लेकर जबरदस्त तंज है। लेकिन आज के हालात से तुलना करें तो ऐसा लगता है कि तब दिल्ली में भूख के मुद्दे पर बहस होने से कहीं न कहीं ये उम्मीद तो थी कि कभी शायद सरकार अपने आऱामगाह से निकल कर ये देखेगी कि जनता किस हाल में रह रही है। लेकिन आज तो ये उम्मीद रखना भी व्यर्थ है। जब संसद सत्र लगवाने में ही लोकतांत्रिक सरकार बहानेबाजी करने लगे तो देश किस राह पर चल पड़ा है, ये समझा जा सकता है।

वैसे मोदी सरकार का तो कहना है कि देश विकास की राह पर चल रहा है। अब सरकार की विकास की परिभाषा क्या है, यह तो वह ही बता सकती है। क्योंकि आंकड़े तो यही बताते हैं कि देश में न आर्थिक वृद्धि हो रही है, न सबको आगे बढ़ने के समान अवसर मिल रहे हैं। बीते कुछ समय में तेल की कीमतें तेजी से बढ़ी हैं, जो महंगाई बढ़ने का एक बड़ा कारण है। इस बीच करोड़ों लोग या तो नौकरियों से हाथ धो बैठे हैं या फिर बेहद मामूली तनख्वाहों पर काम कर रहे हैं, जिसका असर जीवन स्तर पर पड़ा है। सरकार शायद यह समझ ही नहीं रही है कि विकास का मतलब केवल जीडीपी का बढ़ना, या कुछ लोगों का नाम अरबपतियों की सूची में आना नहीं है, विकास का सही मतलब है प्रति व्यक्ति आय बढ़ने के साथ-साथ हरेक नागरिक को शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन, आवास की सुविधा, लोकतांत्रिक अधिकारों की प्राप्ति और सामाजिक सुधारों का लाभ मिलना।
यह देखना दुखद है कि इन बातों पर आवाज उठाने वालों को आज सरकार विरोधी करार दिया जाता है, उनकी देशभक्ति पर सवाल उठाए जाते हैं औऱ कई बार उन्हें अर्बन नक्सल जैसे विशेषण भी मिल जाते हैं। इन्हीं वजहों से आज भूख, कुपोषण जैसी समस्याओं पर राष्ट्रीय विमर्श की जरूरत नहीं समझी जाती। इस जिम्मेदारी से भी सरकार ने शायद पल्ला झाड़ लिया है। हालांकि सरकार के ही आंकड़े बता रहे हैं कि भूख की आग में 21वीं सदी का भारत जल रहा है। कुछ समय पहले ग्लोबल हंगर इंडेक्स -2020 जारी हुआ था, जिसमें भारत का स्कोर 27.2 रहा, जो एक गंभीर स्थिति है।
दुनिया के 107 देशों में हुए इस सर्वेक्षण में भारत 94वें नंबर पर रहा, जबकि पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश हमसे ऊपर रहे। इसके बाद भारत के 11 राज्यों में सर्वेक्षण के बाद राइड टू फूड कैंपेन ने हंगर-वॉच की रिपोर्ट जारी की। इसके लिए किए गए सर्वे में दावा किया गया है कि लॉकडाउन के दौरान भारत के कई परिवारों को कई रातें भूखे रह कर गुज़ारनी पड़ीं। करीब 27 प्रतिशत लोगों के पास खाने के लिए कुछ नहीं था। लॉकडाउन से पहले जिन 56 प्रतिशत लोगों को रोज़ खाना मिलता रहा, उनमें से भी हर सात में से एक को सितंबर-अक्टूबर के महीने में अक्सर खाना नसीब नहीं हुआ। करीब 71 प्रतिशत लोगों के भोजन की पौष्टिकता में लॉकडाउन के दौरान कमी आई।
ये केवल 11 राज्यों के सर्वे में पता चला, अगर पूरे देश में यह सर्वे किया जाता तो न जाने आंकड़े कहां पहुंचते। और अब सरकार के आंकड़े भी भूख औऱ कुपोषण की कहानी ही सुना रहे हैं। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने 2019-20 में किए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) की पांचवीं रिपोर्ट का पहला हिस्सा बीते दिनों जारी किया, जिसमें दावा किया गया है कि देश के बच्चों में कुपोषण और मोटापा बढ़ा है।
हालांकि इस पहले हिस्से में देश के 22 राज्यों को ही शामिल किया गया है। खास बात ये है कि ये सर्वेक्षण तीन सालों बाद किया गया है। इससे पहले 2015-16 में जारी की गई राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) की चौथी रिपोर्ट में यह दावा किया गया था कि देश में बच्चों में कुपोषण कम हुआ है जबकि अब जारी की गई पांचवीं रिपोर्ट में इसके बढ़ने की बात कही गई है। 22 राज्यों के सर्वे से पता चला है कि महिलाएं खून की कमी यानी एनिमिया का शिकार हो रही हैं औऱ बच्चे कुपोषित पैदा हो रहे हैं। इस कारण पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की लंबाई 13 राज्यों में सामान्य से कम है। 12 राज्यों में इसी उम्र के बच्चों का वजन लंबाई के मुताबिक नहीं है। 16 राज्यों में कम वजन वाले बच्चों की संख्या बढ़ी है, तो वहीं 20 राज्यों में अधिक वजन वाले बच्चों की संख्या में इजाफा हुआ है। दोनों ही बातें स्वास्थ्य के लिहाज से ठीक नहीं हैं। भूख औऱ कुपोषण के ये आंकड़े सरकार की नीतियों और फैसलों की खामियां बतला रहे हैं।
भारत के वैभवशाली अतीत, महान संस्कृति और उच्च संस्कारों के गुणगान करने वाले अब भी शायद इसी मुगालते में हैं कि देश में दूध-दही की नदियां बहती हैं। लेकिन अब वक्त आ गया है कि आंख खोलकर सच्चाई का सामना किया जाए। भूख और कुपोषण की यह स्थिति नोटबंदी, लॉकडाउन जैसे फैसलों के कारण भयावह हुई है। सरकार की प्राथमिकताओं में भव्य स्मारक, मूर्तियां और धार्मिक स्थल हैं, जिन पर हजारों करोड़ खर्च किए गए हैं। लेकिन मिड डे मील जैसी योजनाओं के लिए बजट कम किया गया है। आंगनबाड़ी जैसी व्यवस्था का पूरा लाभ भी गरीब बच्चों को नहीं मिल रहा, क्योंकि वहां हमारी सामाजिक रुढ़ियां बाधक बन रही हैं। ऊंची जाति के लोगों को बहुत सी चीजें आसानी से उपलब्ध हैं, लेकिन निचली जाति के लोगों, आदिवासियों औऱ अल्पसंख्यकों के लिए इन सरकारी सुविधाओं का लाभ उठाना आसान नहीं हो रहा। इसके लिए भी बहुत हद तक सरकार ही जिम्मेदार है, क्योंकि वहां सवर्ण मानसिकता हावी है। इस भूखे भारत में विकास की बात बेमानी लगती है।
(देशबंधु)
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