गुजरात में एक दलित युवक को इसलिए मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना सहनी पड़ी, क्योंकि उसका सरनेम कथित तौर पर ऊंची जातियों जैसा था। महाराष्ट्र की एक जेल में बंद मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा को पुराना चश्मा चोरी होने पर नया चश्मा परिजनों ने भेजा, उसमें जेल अधिकारियों ने अड़ंगा लगाया। कुछ ऐसा ही 83 बरस के सामाजिक कार्यकर्ता फादर स्टेन स्वामी के साथ किया गया, जिन्हें गंभीर बीमारियां हैं, फिर भी उनकी सुविधा के लिए उन्हें स्ट्रॉ और सिपर की मंजूरी जेल में काफी देर से मिली। सुशांत सिंह की मौत के मामले में उनकी मित्र रिया चक्रवर्ती को लगातार मीडिया ट्रायल का सामना करना पड़ा, कई तरह के लांछन उन पर लगाए गए और उनकी गिरफ्तारी भी हुई। उनके भाई शौविक को भी गिरफ्तार किया गया था। लेकिन अब अदालत ने शौविक चक्रवर्ती को जमानत देते हुए कहा कि जो आरोप उन पर लगाए गए, वे उन पर लागू ही नहीं होते।
अल्पसंख्यक समुदायों के नौजवानों को कभी विजातीय प्रेम प्रकरण के कारण प्रताड़ित होना पड़ता है, कभी अपने पहनावे और खान-पान को लेकर। सरकार के खिलाफ आवाज उठाने वालों या विरोधी विचार रखने वालों को या तो देशद्रोही ठहरा दिया जाता है या उनसे देशभक्ति का सबूत मांगा जाता है। कफील खान, कन्हैया कुमार जैसे लोगों की एक लंबी फेरहिस्त तैयार हो चुकी है, जिन्हें कानून व्यवस्था के नाम पर प्रताड़नाएं सहनी पड़ीं। गोविंद पानसरे, एम एम कलबुर्गी, गौरी लंकेश जैसे लोगों ने अभिव्यक्ति की आजादी की कीमत अपनी जान देकर चुकाई है।
उपरोक्त सभी प्रकरण उसी हिंदुस्तान के हैं, जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करता है। जिसका संविधान जब तैयार हुआ तो अपने समय से बहुत आगे था, सही अर्थों में प्रगतिशील। क्योंकि इसमें न किसी के लिए गैरबराबरी की गुंजाइश रखी गई, न अन्याय की। राजा और रंक को एक तुला पर रखकर लोकतंत्र की बुनियाद पर देश को आगे बढ़ाने की इबारत संविधान में लिखी गई। लेकिन आज संविधान की इबारत धुंधली करने की तैयारियां हो रही हैं। देश के किसान विगत दो हफ्ते से देश की राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर धरना देकर बैठे हुए हैं। उनके समर्थन में देश-विदेश से आवाज उठ रही हैं। जिस पर सरकार को आपत्ति हो रही है, क्योंकि वह इस आंदोलन को भी राजनीतिक लाभ-हानि के नजरिए से देख रही है। लेकिन यह नहीं देख रही कि इसमें देश का कितना नुकसान हो रहा है।
किसानों को आतंकवादी, खालिस्तानी कहकर अपमानित करने की कुचेष्टा भी की जा चुकी है। और अब देश में नाजुक डोर पर चल रहे लोकतंत्र के लिए नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने कहा कि भारत में लोकतंत्र कुछ ज़्यादा ही है लेकिन मोदी सरकार सभी सेक्टरों में सुधार को लेकर साहस और प्रतिबद्धता के साथ आगे बढ़ रही है। उन्होंने कहा कि मोदी सरकार ने कोयला, श्रम और कृषि क्षेत्र में सुधार को लेकर साहस दिखाया है।
गौरतलब है कि मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था में आर्थिक नीतियों को ‘कॉर्पोरेट फ्रेंडली’ बनाने की प्रक्रिया को रिफॉर्म यानी सुधार नाम दिया जाता है या फिर नीतियों को ‘उदार’ बनाने की बात कही जाती है। आसान शब्दों में कहें तो देश के संसाधनों पर पूंजीपतियों को खुली छूट दी जाए तो उसे विकास के लिए सुधार कहा जाता है। और आज के दौर में शायद यह सवाल करना तथाकथित सुधारवादियों के लिए बेमानी है कि ये विकास आखिर किसके लिए है। कुछ लोगों के लिए विकास के इस इंतजाम पर आवाज उठाई जाए, तो इसे टू मच डेमोक्रेसी यानी जरूरत से ज्यादा लोकतंत्र कहा जा रहा है।
संविधान दिवस मनाने से लेकर नए संसद भवन बनाने तक मोदी सरकार देश में कई प्रयोग कर चुकी है और करने वाली है। और हर प्रयोग के पीछे जनता के हित का ढिंढोरा भी खूब पीटा जा रहा है। नोटबंदी, जीएसटी, सीएए, एनआरसी और अभी नए कृषि कानूनों तक सरकार का रवैया यही रहा कि हम जो कुछ कर रहे हैं, उसके पीछे जनता का हित है। लेकिन ये कौन सी जनता है, जिसके हित की बात सरकार कहती है। क्योंकि कभी मजदूरों, कभी किसानों, कभी महिलाओं, कभी अल्पसंख्यकों की शक्ल में ये जनता बार-बार अपने अधिकारों के लिए सड़क पर उतर रही है। क्या सरकार की डेमोक्रेसी के दायरे में इस आम जनता के लिए कोई जगह नहीं है। लोकतंत्र तो लोकतंत्र ही होना चाहिए,उसमें कम या अधिक का कोई पैमाना नहीं होता। अगर ऐसा कोई पैमाना सरकार बनाने का इरादा रख रही है, तो फिर तय जानिए कि इस इरादे में लोकतंत्र हाशिए पर धकेल दिया जाएगा।
(देशबंधु)
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