26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाने से पहले 26 नवंबर को सरकारी स्तर पर संविधान दिवस मनाने की औपचारिकता निभाई गई। संविधान की महत्ता का गुणगान करने की रस्मअदायगी की गई। लेकिन इन सबके बीच संविधान की आत्मा पर लगातार जो चोटें की जा रही हैं, उस बारे में सरकार या तो बात नहीं करना चाहती, या उन लोगों की ओर से आंख मूंद लेती है, जो संविधान की भावना के विरुद्ध काम कर रहे हैं या खुद ऐसे फैसले ले रही है, जिससे संविधान की गरिमा को ठेस पहुंच रही है। याद करें बीते दिनों टीवी शो कौन बनेगा करोड़पति में एक सवाल पूछा गया था कि 25 दिसंबर 1927 को डॉ. अंबेडकर और उनके समर्थकों ने किस धार्मिक पुस्तक की कॉपियां जलाई थीं। जिसका जवाब मनुस्मृति है। अंबेडकर द्वारा मनुस्मृति की प्रतियां जलाए जाने की घटना इतिहास में दर्ज है, इसे न बदला जा सकता है, न मिटाया जा सकता है।
लेकिन इससे उन लोगों को आज भी बहुत तकलीफ पहुंचती है, जो मनु के बनाए विधान पर ही देश को चलाना चाहते हैं। जिसमें दलितों और स्त्रियों के लिए निचला स्थान तय है और उन्हें सवर्णों व पुरुषों से बराबरी का अधिकार नहीं है। अब देश के संविधान में इस तरह की गैरबराबरी की कोई जगह नहीं है, शायद यही बात मनुवादियों को खलती है। इसलिए मनुस्मृति जलाए जाने के सवाल को उन्होंने अपनी आस्था पर चोट बताया और इसके खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई। कैसी विडंबना है कि जब सरकारें संविधानविरोधी कोई फैसला लेती हैं, तो इन लोगों को तकलीफ नहीं पहुंचती। यही वजह है कि देश में इस वक्त लव जिहाद के खिलाफ कानून बनाने की तैयारी कई भाजपा शासित राज्य कर रहे हैं। जबकि हमारा संविधान देश के सभी नागरिकों को समानता का अधिकार देता है, इन नागरिकों में अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, आदिवासी, महिलाएं सभी आते हैं। लेकिन मनुविधान से चलने वाले पितृसत्तात्मक समाज को यह समानता स्वीकार्य नहीं है।



इसलिए अब दो अलग धर्मों के बालिगों पर प्रेम विवाह करने के अधिकार पर चाबुक चलाने की कोशिश हो रही है ताकि महिलाओं, दलितों और अल्पसंख्यकों को और दबाया जा सके। संविधान में कहीं भी भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की बात नहीं है। अगर कोई ऐसा करे तो सरकार को उस पर सख्ती बरतना चाहिए। लेकिन भारत में इस विषय पर उल्टी गंगा बह रही है। हाल ही में एक राष्ट्रीय स्तर के अखबार के पहले पन्ने पर एक यज्ञ और धार्मिक अनुष्ठान का विज्ञापन छपा है, जिसकी पहली पंक्ति में भारतवर्ष को हिंदू राष्ट्र बनाने की कामना की गई है। यह विज्ञापन साफ तौर पर संविधान विरोधी है और अगर सरकार की सचमुच संविधान में आस्था है तो इस तरह का विज्ञापन देने वालों और इसे प्रकाशित करने वालों के खिलाफ कार्रवाई होना चाहिए, लेकिन ऐसा होगा इसमें संदेह है, क्योंकि इस देश के सभी लोगों को जबरन हिंदू साबित करने की सनक देश पर हावी दिख रही है।
संविधान की आत्मा यानी प्रस्तावना में भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक, गणराज्य बनाने की बात कही गई है तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, सुनिश्चित करने की बात कही गई है। संविधान निर्माताओं ने बहुत सोच-समझकर प्रस्तावना का एक-एक शब्द लिखा है। पहले सामाजिक न्याय की बात कही गई है फिर आर्थिक और राजनीतिक न्याय की। यानी जब समाज से गैर-बराबरी समाप्त हो जाएगी। और सबको आर्थिक न्याय मिलेगा तो राजनैतिक न्याय का मार्ग भी प्रशस्त होगा। लेकिन आज के भारतीय समाज में सामाजिक गैर-बराबरी बढ़ चुकी है और आर्थिक न्याय गरीबों की पहुंच से बहुत दूर है। सरकारें लोककल्याण के अपने दायित्व को सौगात जैसे शब्दों के साथ आधे-अधूरे तरीके से निभा रही हैं। और अगर गरीब, वंचित, शोषित तबका अपने हक के लिए संवैधानिक तरीके से आवाज उठाए, तो उसका तानाशाही अंदाज में दमन किया जा रहा है।
गौरतलब है कि 26 नवंबर को जब सरकार संविधान दिवस मना रही थी, तब देश के करीब 25 करोड़ कर्मचारी, कामगार कई संगठनों के साथ सरकार की नीतियों के खिलाफ हड़ताल पर थे। यह दुनिया की शायद सबसे बड़ी हड़ताल है। केंद्र सरकार के नए कृषि कानूनों के खिलाफ हरियाणा-पंजाब, उत्तरप्रदेश से हजारों किसान सरकार तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए दिल्ली आने की तैयारी में हैं। लेकिन इन किसानों को दिल्ली की सीमाओं के बाहर ही रोक दिया गया। उन पर आंसू गैस छोड़ी गई, कड़ाके की ठंड में पानी की बौछार प्रदर्शनकारियों पर की गई। इस सख्त कार्रवाई से सरकार का किसान विरोधी चेहरा उजागर हुआ ही, यह भी नजर आ गया कि सरकार अपने फैसलों के विरोध की इजाजत इस लोकतांत्रिक देश में नहीं दे रही है। एक के बाद एक घट रही ये तमाम घटनाएं साफ संकेत दे रही हैं कि देश संविधान के मुताबिक नहीं चल रहा है और मनु के बनाए विधान पर देश को धकेला जा रहा है, जिसमें केवल कुछ लोगों का हित है, कुछ लोगों का विकास है।
(देशबंधु)