-संजय कुमार सिंह॥
यह संयोग ही है सुप्रीम कोर्ट ने छुट्टियों के दौरान जिस विशेष मामले पर सुनवाई कर व्यक्ति की आजादी का बचाव किया वही आजादी अगले दिन तार-तार होती नजर आई। बेशक, एक दूसरे व्यक्ति के मामले में। वैसे तो कानून के नजर में हर कोई बराबर है लेकिन ऐसा व्यवहार में नहीं है और यह वैसे ही है कि न्याय होना ही नहीं चाहिए, होता हुआ दिखना भी चाहिए। पर यह भी नहीं होता है और अब तो ना इसकी जरूरत समझी जाती है ना किसी को परवाह है। मुझे सगता है समस्या यही है।



मीडिया जब कुछेक अपवाद को छोड़कर पूरी तरह सरकार के नियंत्रण में है तो सरकार की आलोचना सोशल मीडिया पर होती है और सोशल मीडिया पर बचाव करने के लिए ना प्रेस कांफ्रेंस करनी पड़ती है ना अधिकृत प्रवक्ता की जरूरत है और ना आधिकारिक बयान की। इस तरह उचित मामले चर्चा में आते ही नहीं है और अगर आ गए तो उन्हें बहुमत की ताकत से दबा दिया जाता है। दबाने के कई तरीके हैं और उनमें सर्वश्रेष्ठ है उसकी चर्चा ही छोड़ दो। संभव है कुणाल कामरा का मामला इसी हश्र को प्राप्त करे। इसलिए मामले को समझने का मौका है।
पुणे के दो वकीलों और एक विधि छात्र ने अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल से कॉमेडियन कुणाल कामरा के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही शुरू करने सहमति मांगी और उन्हें सहमति मिल गई। इस पर कुणाल कामरा ने जजों और केके वेणुगोपाल को पत्र लिखकर कहा है कि वे माफी नहीं मांगेगे और अगर उनके मामले को भी प्राथमिकता के आधार पर सुना जाएगा तो क्या, महत्वपूर्ण मामलों को समय देने से आकाश गिर पड़ेगा? सवाल दमदार है और गंभीर भी।
सुप्रीम कोर्ट की आलोचना इतनी बड़ी बात नहीं है जितनी आलोचना करने की स्थिति बनना। बेशक, वह स्थिति एक दिन में नहीं बनी है और ना एक व्यक्ति के कारण बनी है। अगर किसी एक व्यक्ति के कारण बनी है तो कार्रवाई उसके खिलाफ होनी चाहिए। आलोचना से बचना है तो वैसे काम से बचना चाहिए लेकिन जो स्थिति है वह सबको मालूम है। अर्नब गोस्वामी के मामले में तो यह भी कहा जाता है कि उनका मामला न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की बेंच में पड़ना ही अर्नब के साथ पक्षपात था। वे ऐसे फैसलों और राय के लिए जाने जाते हैं। इसीलिए मामला जल्दी लिस्ट करने पर विवाद था और उसपर जो दलीलें आई वे अलग दिलचस्प हैं। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के पुराने फैसले और टिप्पणियां लोग भूल गए नया सबके दिमाग में चढ़ गया। उनकी आलोचना होने लगी।
देश भर की अदालतों में जो हालत है और सुप्रीम कोर्ट में पिछले कई वर्षों से जो हो रहा है उसकी आलोचना तो होगी ही। खासकर इसलिए भी कि स्थिति को सुधारने की कोई कोशिश नजर नहीं आ रही है। मुकदमे से 130 करोड़ लोगों को नहीं डाराया जा सकता है। अवमानना के सभी मामलों पर प्राथमिकता से सजा देकर या सजा बढ़ाकर भी नहीं। जरूरी यह है कि आलोचना पर कार्रवाई हो।
दिलचस्प यह भी है कि अवमानना का मामला चलाने की मांग आम लोग ही करते हैं और वे ऑन एयर गाली देने वालों के मामले में चुप रहते हैं। आबादी का एक वर्ग जो मांग रहा है, पा रहा है। दूसरा उसी के लिए जेल में है। यानी रिपोर्टिंग के लिए जेल और चैनल पर चुनौती देने की आजादी के लिए बेल। रिपोर्टिंग के लिए बेल नहीं मिलने और मामला नहीं सुने जाने के तो कई उदाहरण मिल जाएंगे।
कुछ लोग इस पूरी स्थिति को विचारधारा का मामला मानते हैं। अर्नब को बेल निश्चित रूप से बोलने की आजादी का मामला है। पर यह आजादी दूसरे को क्यों नहीं? एक की आजादी न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ तय करेंगे हरीश साल्वे की दलीलों पर दूसरे की अटार्नी जनरल तो तय नहीं करेंगे और फिर मामला लिस्टिंग में फंसेगा और फिर बेंच आवंटन में। सुप्रीम कोर्ट अपनी अवमानना के मामले खुद क्यों नहीं देखे? लोग क्यों सुझाएं? या जैसा न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने सुझाया था नजरअंदाज क्यों नहीं कर दें। उदार क्यों नहीं हो जाएं?
पेश है कुणाल कामरा के पत्र का अनुवाद : शीर्षक उन्हीं के पत्र से है।
माननीय जजों, श्री केके वेणुगोपाल
मैंने हाल ही में जो ट्वीट किए हैं, उन्हें कोर्ट की अवमानना माना गया है। मैंने जो ट्वीट किए हैं, उन्हें अवमानना माना गया है। मैंने जो ट्वीट किए हैं वे सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक प्राइम टाइम लाउडस्पीकर (भोंपू) के पक्ष में सुनाए गए आंशिक निर्णय से संबंधित मेरे विचार हैं। मुझे लगता है कि मुझे यह मान लेना चाहिए कि मुझे अदालत लगाना और मंत्रमुग्ध श्रोताओं का मंच हो तो बहुत अच्छा लगता है। श्रेताओं / दर्शकों में सुप्रीम कोर्ट के जज और देश के शिखर के विधि अधिकारियों का समूह संभवतः उतना ही वीआईपी होगा जितना उसे हासिल होता है। पर मैं महसूस करता हूं कि मनोरंजन की किसी जगह से अलग, सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक समय सीमा दुर्लभ चीज है।
मेरा नजरिया इसलिए नहीं बदला है कि दूसरों की निजी आजादी के संबंध में भारत की सर्वोच्च अदालत की चुप्पी बिना आलोचना के नहीं रह सकती है। मैं अपने ट्वीट वापस लेने का कोई इरादा नहीं रखता हूं ना ही उनके लिए माफी मांगूगा। मेरा मानना है कि वे अपने आप में पर्याप्त हैं। मैं स्वेच्छा से अपनी अवमानना मामले की सुनवाई के लिए दिए जाने वाले समय (कम से कम 20 घंटे अगर प्रशांत भूषण की सुनवाई से अंदाजा लगाऊं तो) अन्य मामले और पक्षों को देना चाहूंगा जो बिना बारी के मामले की सुनवाई के लिहाज से मेरी तरह भाग्यशाली और विशेषाधिकार संपन्न नहीं हैं।
क्या मैं सुझा सकता हूं कि नोटबंदी से संबंधित याचिका, जम्मू और कश्मीर की विशेष स्थिति खत्म किए जाने को चुनौती देने वाली याचिका, चुनावी बांड की वैधता से संबंधित मामला और ऐसे अनगिनत अन्य मामले जिनपर समय और ध्यान दिए जाने की ज्यादा जरूरत है, उन्हें प्राथमिकता दी जाए। वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने जो कहा है, उसी अंदाज में कहूं तो, “क्या मेरा समय ज्यादा महत्वपूर्ण मामलों को दिए जाने से आकाश गिर पड़ेंगे?”
सुप्रीम कोर्ट ने अभी तक मेरे ट्वीट्स पर कुछ नहीं कहा है पर अगर और कभी वे ऐसा करते हैं तो मैं उम्मीद करता हूं कि वे उन्हें अदालत की अवामानना घोषित करने से पहले थोड़ा हंस भी सकते हैं। अपने एक ट्वीट में मैंने यह भी कहा है कि सुप्रीम कोर्ट में महात्मा गांधी की तस्वीर की जगह हरीश साल्वे की फोटो लगा दी जाए। मैं यह जोड़ना चाहूंगा कि पंडित नेहरू की फोटो भी महेश जेठमलानी की फोटो से बदली जा सकती है।