देश की राजधानी दिल्ली समेत उत्तर भारत के कई शहरों में प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुंच चुका है। आमतौर पर ठंड शुरु होने और दीवाली के दौरान चले पटाखों के कारण हवा की गुणवत्ता खराब होती थी। लेकिन इस बार लोगों को पहले ही जहरीली और दमघोंटू हवा में सांस लेना पड़ रहा है। पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में पराली जलाने के अलावा गाड़ियों से निकलने वाला काला धुआं, निर्माण कार्यों से उड़ने वाले पीएम कण, सड़कों पर फैली धूल, और उद्योगों से होने वाले उत्सर्जन के कारण प्रदूषण बढ़ रहा है। रविवार को देश का सबसे प्रदूषित शहर उत्तर प्रदेश का आगरा रहा जबकि दूसरा नंबर गाजियाबाद था। बढ़ते प्रदूषण के कारण लोगों को सांस लेने में तकलीफ, आंखों में जलन, सर्दी-जुकाम जैसी बीमारियां होने लगी हैं, ऐसे में लोगों को घर पर रहने की हिदायत दी जा रही है।



इंडियन मेडिकल एसोसिएशन का कहना है कि दिल्ली में पिछले कुछ दिन में रोजाना कोविड-19 के 6,000 से अधिक मामले सामने आए हैं, इसमें 13 प्रतिशत बढ़ोतरी वायु प्रदूषण के कारण होने का अनुमान है। प्रदूषण के हालात को देखते हुए एनजीटी ने सोमवार को दिल्ली-एनसीआर में 30 नवंबर तक पटाखों के चलाने पर रोक लगाने का आदेश दिया है। कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि बाकी राज्यों में जहां एयर क्वालिटी खराब या खतरनाक स्तर पर है, वहां भी पटाखों को जलाने पर बैन होगा। वैसे दिल्ली सरकार ने पहले ही पटाखों पर रोक लगा दी थी, मुंबई में भी बीएमसी ने अपील की है कि इस दिवाली सभी बिना पटाखों का त्योहार मनाएं, ताकि मुंबई को प्रदूषण और कोरोना वायरस की नई लहर से बचाया जा सके।
हरियाणा में भी खट्टर सरकार ने पहले पटाखों पर पूरा प्रतिबंध लगाया था, हालांकि अब दो घंटे की छूट दी गई है। अब हरियाणा में दिवाली और गुरुपर्व के दिन रात 8 बजे से 10 बजे तक लोग पटाखा जला सकेंगे। दरअसल देश में धर्मांधता इस कदर बढ़ चुकी है कि अब प्रदूषण रोकने के लिए अगर पटाखे न चलाने की अपील की जाए, तो इसे भी धार्मिक भावनाओं पर ठेस की तरह देखा जाने लगा है। यह धारणा बना दी गई है कि दीपावली पर पटाखे जलाना त्योहार मनाने का पारंपरिक तरीका है। साल दर साल पटाखों की बिक्री और उपयोग में बढ़ोतरी हो रही है, महंगे पटाखे चलाना स्टेट्स सिंबल बना दिया गया है। इस वजह से हवा को दूषित हो ही रही है, इंसानों और पशु-पक्षियों को भी तकलीफ होती है। लेकिन समाज के एक वर्ग की नाराजगी से बचने के लिए पटाखों पर प्रतिबंध जैसे कड़े फैसले लेने में सरकारें कतराने लगी हैं और अब अदालत को इसमें दखल देना पड़ा है।
बीते कुछ सालों से बढ़ते प्रदूषण के कई मामले देश के सर्वोच्च न्यायालय से लेकर एनजीटी तक पहुंचे हैं, जहां से कड़े फैसले भी लिए गए हैं, लेकिन उन पर अमल करने में राजनैतिक इच्छाशक्ति का अभाव देखा जा रहा है। देश में अब वॉटर प्यूरीफायर के बाद एयर प्यूरीफायर भी बिकने लगे हैं और इसे न्यू नार्मल बनाया जा रहा है। जबकि ये स्थिति कतई सामान्य नहीं है कि देश के कई शहर वायु प्रदूषण का शिकार हों और लोगों को शुद्ध हवा में सांस लेने के बुनियादी अधिकार से भी वंचित होना पड़े। यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि प्रदूषण का मुद्दा भी राजनीति का कारण बन चुका है।
उदाहरण के लिए केंद्र और हरियाणा में भाजपा की सरकार है, जबकि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की और पंजाब में कांग्रेस की। ऐसे में पराली जलाने की समस्या को लेकर सर्वसम्मति से कोई फैसला नहीं लिया जा रहा, क्योंकि सभी अपने राजनैतिक हितों के हिसाब से काम कर रहे हैं। यही हाल निर्माण कार्यों को लेकर है। प्रदूषण कम करने के लिए पेड़ों की धूल हटाने का अभियान, सड़कों की धुलाई करना, धूल उड़ने से रोकने के लिए कैमिकल युक्त पानी का छिड़काव, निर्माण गतिविधियों में धूल रोकने के मानकों का पालन, इन सब उपायों पर तुरंत अमल होना चाहिए था, लेकिन इसमें कोताही देखी जा रही है।
गौरतलब है कि हर साल सर्दी का मौसम शुरू होते ही दिल्ली-एनसीआर की आबोहवा को जहरीला होने से रोकने के लिए पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण प्राधिकरण (ईपीसीए) का ग्रेडेड रेस्पांस एक्शन प्लान (ग्रेप) लागू किया जाता है। इस बार भी 15 अक्तूबर से ग्रेप लागू किया गया था, लेकिन प्रशासनिक तालमेल की कमी के चलते ये बेअसर साबित हो रहा है। विकास के नाम पर अंधाधुंध तरीके से पेड़ों की कटाई, नदियों-तालाबों को पाटना और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन अब भी जारी है। संपन्न लोग तो अपने घरों में कुछ दिन आराम से बंद रह सकते हैं, लेकिन गरीबों को रोजी-रोटी के लिए हर हाल में बाहर निकलना होगा और जिंदा रहने के लिए जहरीली हवा में सांस भी लेना होगा। लॉकडाउन के कारण पर्यावरण में काफी सुधार आया है, इस बात की काफी खुशी मनाई जा रही थी, जो अब लॉकडाउन जितनी ही बेअसर साबित हो चुकी है।
(देशबंधु)