कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने हाल ही में अपने एक लेख में भारत में खत्म होते लोकतंत्र के लिए मोदी सरकार को जिम्मेदार ठहराया था। सरकार की आलोचना करते हुए उन्होंने लिखा था कि अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है और भी कई मोर्चों पर देश मुश्किल में है लेकिन लोकतांत्रिक प्रणाली के सभी स्तंभ जिस तरह से निशाना बनाए जा रहे हैं, वो बहुत ज्यादा चिंता की बात है। आज राजनीतिक विरोधियों और सिविल सोसायटी के लोग सरकार के निशाने पर हैं। देश में अभिव्यक्ति की आजादी इस कदर खतरे में दिख रही है कि सरकार के खिलाफ बोलने वालों को देशद्रोही और आतंकवादी की तरह से पेश किया जा रहा है। अब स्वीडन से एक रिपोर्ट सामने आई है, जिसमें इसी तरह की चिंताएं व्यक्त की गई हैं।
स्वीडन की वी-डेम इंस्टिट्यूट की साल 2020 की डेमोक्रेसी रिपोर्ट हाल ही में जारी हुई है, जिसके मुताबिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार में मीडिया, नागरिक समाज और विपक्ष के लिए कम होती जगह के कारण भारत अपना लोकतंत्र का दर्जा खोने की कगार पर है। गौरतलब है कि स्वीडन के गोथेनबर्ग विश्वविद्यालय में 2014 में स्थापित वी-डेम एक स्वतंत्र अनुसंधान संस्थान है। इसकी डेमोक्रेसी रिपोर्ट दुनियाभर के देशों में लोकतंत्र की स्थिति का आकलन करती है। यह संस्थान अपने आप को लोकतंत्र पर दुनिया की सबसे बड़ी डेटा संग्रह परियोजना कहता है।
साल 2020 की रिपोर्ट का शीर्षक ‘आटोक्रेटाइज़ेशन सर्जेज- रेजिस्टेंस ग्रो’, यानी ‘निरंकुशता में उछाल- प्रतिरोध बढ़ा है, जिसमें आंकड़ों के आधार पर बताया गया है कि दुनियाभर में लोकतंत्र सिकुड़ता जा रहा है। रिपोर्ट में बताया गया कि प्रमुख जी-20 राष्ट्र और दुनिया के सभी क्षेत्र अब ‘निरंकुशता की तीसरी लहर’ का हिस्सा हैं, जो भारत, ब्राजील, अमेरिका और तुर्की जैसी बड़ी आबादी के साथ प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित कर रहा है।
उदारवादी लोकतंत्र सूचकांक (एलडीआई) के आकलन के लिए रिपोर्ट में जनसंख्या को पैमाना बनाया गया है जो जनसंख्या आकार के आधार पर औसत लोकतंत्र स्तर को मापता है जिससे पता चलता है कि कितने लोग प्रभावित हैं। यह सूचकांक चुनावों की गुणवत्ता, मताधिकार, अभिव्यक्ति और मीडिया की स्वतंत्रता, संघों और नागरिक समाज की स्वतंत्रता, कार्यपालिका पर जांच और कानून के नियमों को शामिल करता है।
रिपोर्ट में पाया गया कि भारत जनसंख्या के मामले में निरंकुशता की व्यवस्था की ओर आगे बढ़ने वाला सबसे बड़ा देश है। इस में उल्लेख किया गया, भारत में नागरिक समाज के बढ़ते दमन के साथ प्रेस स्वतंत्रता में आई कमी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वर्तमान हिंदू-राष्ट्रवादी शासन से जुड़ा है। खास बात ये है कि ये रिपोर्ट राज्यसभा से कृषि कानूनों को पास करवाने, संसद सत्र में प्रश्नकाल को शामिल नहीं करने, न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर उठने वाले सवाल और हाथरस मामले से पहले प्रकाशित हो चुकी थी, अन्यथा भारत की स्थिति और खराब दिखाई जा सकती थी। वैसे ये पहली बार नहीं है जब भारत के लोकतंत्र पर किसी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सवाल उठे हों। इस साल जनवरी में द इकोनॉमिस्ट ग्रुप की खुफिया इकाई द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट में 2019 के लोकतंत्र सूचकांक में बड़ी गिरावट दर्ज करते हुए भारत 10 पायदान फिसलकर 51 वें स्थान पर आ गया है। कुछ वक्त पहले जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने भी सरकार विरोधी आवाजों के दमन पर चेतावनी दी थी कि असहमति लोकतंत्र के लिए सेफ़्टी वॉल्व है। अगर आप इन सेफ़्टी वॉल्व को नहीं रहने देंगे तो प्रेशर कुकर फट जाएगा।
दुखद है कि हम इस वक्त देश में जगह-जगह इस सेफ़्टी वॉल्व को खराब होते देख रहे हैं। लेकिन सरकार अपनी मनमानी पर अंकुश ही नहीं लगा पा रही है। कृषि कानूनों के विरोध में अब किसान और बड़े आंदोलन का मन बना रहे हैं, क्योंकि सरकार उनकी चिंताओं को सुन-समझ ही नहीं रही है। उधर जम्मू-कश्मीर में पहले समूचे विपक्ष को नजरबंद कर राज्य का विभाजन किया गया, उसके विशेष प्रावधान खत्म कर दिए गए और अब केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर में भूमि स्वामित्व अधिनियम संबंधी कानून में बड़ा संशोधन करते हुए नए भूमि कानून का नोटिफिकेशन जारी कर दिया। इस नोटिफिकेशन के बाद कोई भी भारतीय जम्मू-कश्मीर में जमीन की खरीद-फरोख्त कर सकता है हालांकि अभी लद्दाख में ऐसा संभव नहीं होगा, क्योंकि वहां के नेताओं ने केंद्र सरकार से पहले ही इसके लिए समझौता कर लिया था। इनमें भाजपा के नेता भी शामिल थे। इन नेताओं ने राज्य की आदिवासी आबादी के अधिकारों का हवाला देते हुए अनुच्छेद 371 की मांग की।
गौरतलब है कि अनुच्छेद 371 में छह पूर्वोत्तर राज्यों सहित कुल 11 राज्यों के लिए विशेष प्रावधान हैं, इसके तहत इन राज्यों में अन्य राज्यों के लोगों द्वारा जमीन खरीदने पर प्रतिबंध है। लद्दाख के नेताओं ने यह मांग न मानने की सूरत में एलएएचडीसी के चुनाव का बहिष्कार करने की बात कही थी। लिहाजा केंद्र सरकार को उनकी बात माननी पड़ी। एलएसी पर चल रहे तनाव को देखते हुए भी सरकार ने फिलहाल लद्दाख की जमीन दूसरों को खरीदने की अनुमति नहीं दी है। लेकिन जम्मू-कश्मीर अब कार्पोरेट गिद्धों के हवाले किया जा चुका है। इसका असर भी अब दिखना शुरु हो गया है।
केंद्र सरकार और केंद्र शासित प्रदेश की मदद से देश के जाने-माने 30 कार्पोरेट घराने जम्मू-कश्मीर के युवाओं के लिए आउटरीच इनीशियटिव के तहत श्रीनगर का दौरा करने वाले हैं। प्रशासन ये उम्मीद लगा रहा है कि ये दौरा इस क्षेत्र में निवेश करने के लिए कार्पोरेट्स का भरोसा बढ़ाएगा।
दूसरे शब्दों में कहें तो अब विकास के नाम पर जम्मू-कश्मीर की प्राकृतिक सुंदरता और संसाधन दोनों दांव पर लगा दिए जाएंगे। और पूंजीवाद के चरणों में गिरी हुई सरकार के खिलाफ जो आवाज उठाएगा उसको देशविरोधी करार दिया जाएगा। वाकई देश में लोकतंत्र खत्म होने की कगार पर है, ये तभी बचेगा, जब लोक जागेगा।
(देशबन्धु)
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