सबसे तेज होने का दावा करने वाले एक न्यूजअ चैनल की सवर्ण एंकर ने इस आशय का ट्वीट किया है कि फिल्मों में अरसे तक सूदखोर बनिया, ढोंगी ब्राह्मण और जालिम ठाकुर जैसे चरित्र दिखाए गए हैं, लेकिन ड्रग्स को लेकर जब हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री के कलाकारों पर जांच चल रही है, तो इस इंड्रस्टी को इमेज खराब होने की बेचैनी हो रही है। नाम की बड़ी ये पत्रकार हिंदुस्तान और हिंदुस्तान के समाज की कितनी जानकारी रखती हैं, अब इस पर संशय होने लगा है। वे खुद हिंदी पट्टी से हैं और इस नाते स्कूल में मजबूरी में ही सही उन्होंने प्रेमचंद को भी पढ़ा ही होगा। और इस ट्वीट के बाद ये कहा जा सकता है कि उन्हें प्रेमचंद की कहानियों-उपन्यासों पर भी आपत्ति होगी, क्योंकि उसमें भी सवर्ण जातियों का पाखंड बड़े आसान शब्दों में पाठकों के सामने खोलकर रख दिया गया है और प्रेमचंद हमेशा दलित, वंचित, शोषित समुदाय के साथ खड़े नजर आते हैं। इन महोदया को हिंदी की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में शुमार मदर इंडिया भी नागवार गुजरती होगी।
किताबें और फिल्में या कोई भी रचना कल्पना से ही उपजती है, लेकिन उसकी जड़ें कहीं न कहीं यथार्थ में दबी होती हैं। और प्रेमचंद से लेकर हिंदी फिल्मों तक का सारा नैरेटिव इसी यथार्थ से उपजा है। बॉलीवुड में ड्रग कनेक्शन को लेकर जो भी रिपोर्टिंग की जा रही है, उसका सच-झूठ निष्पक्ष जांच से सामने आ ही जाएगा।
फिलहाल यह समझ आ गया है कि इस ट्वीट के जरिए एक सवर्ण ने फिर अपने सवर्ण होने का घमंड समाज को दिखा दिया है। यही घमंड हम इस वक्त हिंदुस्तान में फिर उभरते देख रहे हैं। इस बार उसका जरिया बना है हाथरस। जहां एक युवती के साथ हुए अनाचार में जब उसके दलित होने का एंगल भी सामने आया, तो अचानक सवर्ण वर्चस्ववाद से ग्रसित लोगों को इस पर आपत्ति होने लगी। इस प्रदेश में हजारों बलात्कार या छेड़खानी की घटनाएं हुई हैं और सैकड़ों दलित लड़कियां इसका शिकार हुई हैं। लेकिन इस बार सवर्ण मुख्यमंत्री के शासन में कई सवर्ण लोग और संगठन इस बात से असहज महसूस करने लगे हैं कि उनके समाज पर ऐसा गंभीर लांछन लगा है। और आपत्ति शायद इस बात पर भी है कि दलित इतनी हिम्मत कैसे दिखा रहे हैं।
लिहाजा अब मामले को बिल्कुल पलट दिया गया है। जैसे भीमा-कोरेगांव में दलितों के साथ खड़े कई बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता ही कानून की नजर में गंभीर साजिश करते पाए गए, जैसे दिल्ली दंगों में अल्पसंख्यकों के साथ खड़े होने वाले लोग ही कसूरवार ठहराए गए, वैसे ही अब हाथरस में सरकार को अंतरराष्ट्रीय स्तर की कोई गहरी साजिश नजर आ रही है, मामला ईडी तक पहुंच गया है। कई करोड़ की फंडिंग की खबरें हैं। एक वेबसाइट भी है, जिसके कंटेट का खुलासा द वायर में हुआ है, जिसके मुताबिक उत्तरप्रदेश के गांव वालों को जातीय दंगे करने के लिए उकसाया जा रहा है, इसके साथ उन्हें समझाइश दी जा रही है कि वे प्रदर्शन में शामिल होने से पहले पूरी रिसर्च कर लें।
चेतावनी दी गई है कि न्यूयॉर्क पुलिस विभाग विरोध प्रदर्शनों की वीडियो रिकॉर्डिंग करेगा। ग्रामीणों को उबर का इंतजार न कर बाइक का इस्तेमाल करने को कहा गया है। प्रदर्शनकारियों को ढीले कपड़े और स्विमिंग गॉगल्स पहनने के निर्देश दिए गए हैं। उन्हें स्नीकर्स (स्पोर्ट्स शू) पहनने को कहा गया है, जो भागने में आरामदायक हो, साथ ही हैट लगाने को कहा गया है। उत्तरप्रदेश पुलिस का कहना है कि राज्य में जातीय और सांप्रदायिक दंगे कराने और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बदनाम करने के लिए अंतरराष्ट्रीय साजिश रची गई थी। पुलिस के मुताबिक जस्टिसफॉरहाथरसविक्टिम डॉट सीएआरआरडी डॉट को इस अंग्रेजी वेबसाइट पर ऊपर बताए गए दिशा-निर्देश दिए गए थे। अब ये वेबसाइट हटा दी गई है।
पुलिस अब हाथरस मामले में अंतरराष्ट्रीय साजिश की पड़ताल कर रही है। लेकिन ये समझ नहीं आ रहा कि अगर किसी को उत्तरप्रदेश के ग्रामीणों को उकसा कर सरकार को बदनाम करवाना था तो हिंदी, अवधी, ब्रज आदि में निर्देश न देकर अंग्रेजी में क्यों दिए। क्या षड्यंत्र रचने वाले को उत्तरप्रदेश की भौगोलिक-सामाजिक समझ जरा भी नहीं है, जो वह अमेरिका के लोगों की तरह यहां के ग्रामीणों को स्नीकर्स और गॉगल्स पहनने कह रहा है, उन्हें न्यूयार्क पुलिस का डर बता रहा है। दरअसल ये सारा मामला बिना अकल के नकल का लग रहा है। जिसमें ब्लैकलाइव मैटर्स वाले आंदोलन के दिशानिर्देश हूबहू कॉपी-पेस्ट कर दिए गए। पुलिस जब भी षड्यंत्रकारी को पकड़े तो उससे ये जरूर पूछे कि उसने अगर योगी सरकार को बदनाम करने की साजिश रची तो थोड़ी बहुत अकल का इस्तेमाल क्यों नहीं किया।
वैसे हैरानी इस बात की भी है कि भाजपा की सवर्ण मुख्यमंत्री वाली सरकार को बदनाम करने की कोशिश में एक लड़की को ही क्यों निशाना बनाया गया। या शायद हमें कुछ दिनों में ये सुनने भी मिल सकता है कि न कोई हाथरस था, न कोई बाजरे का खेत था, न कोई घास काटने वाली दलित थी। सब हिन्दी फिल्मों के प्रेमचंदनुमा लेखकों के दिमाग की उपज है। पर अगर कोई घासवाली नहीं थी, तो बाराबंकी के उन भाजपा नेता के सवाल का जवाब कौन देगा कि ये लड़कियां बाजरे, मक्के या गन्ने के खेत में ही घास काटने क्यों जाती हैं। सवाल सही है, अगर सरकार ने इन घासवालियों के लिए सम्मानजनक वेतन पर रोजगार का विकल्प दिया होता तो इन्हें खेतों में जाकर मजूरी की नौबत ही नहीं आती। दिक्कत ये है कि घास केवल खेतों में ही नहीं, संपन्न, सक्षम, सवर्ण समाज के दिमाग में भी खूब बढ़ गई है। यहां इसे कोई काट नहीं रहा, इसलिए कुतर्कों और खोखले घमंड के कीड़े बिलबिला रहे हैं।
(देशबन्धु)