-नीरज झा।।
जब हर तरफ ये चर्चा थी कि UPA-2 भारत की भ्रष्टतम सरकार है, तब ज़मीन पर कौन था? मंच पर बैठे अन्ना हजारे एण्ड टीम के नारों के साथ नारे कौन लगाता था? रामलीला मैदान में ठसाठस भरी भीड़ केवल राजनीतिज्ञों की थी क्या? नहीं। आम लोग थे। आप और मैं।
सरकार का विरोध कर रहे थे क्योंकि सरकार भ्रष्ट दिख रही थी। निर्भया बलात्कार के बाद जिस रोष कोे हम सबने देखा वो भी केवल राजनीतिक नहीं था। लोग विरोध कर रहे थे, उनकी नागरिकता बच्ची हुई थी। हम ज़िंदा थे।
उसी विरोध के सहारे दिल्ली में आप और केन्द्र में बीजेपी सत्ता जमा पाई। अब तक कुछ गलत नहीं था। यही तो लोकतंत्र की खूबसूरती थी। नागरिक गुलाम नहीं दिख रहे थे। नागरिकों में चुनी हुई सरकार को नापसंद करने की हिम्मत भी थी और उस नापसंदगी कोे दिखाने की ताकत भी। उनमें सवाल करने का जज्बा था।
लेकिन फिर धीरे-धीरे सब बदलने लगा। नागरिक, नागरिक धर्म छोड़ते चले गये। ना उन्हें मजदूरों के दुख ने उद्वेलित किया, ना रहस्यमयी PM Cares ने। बलात्कार में धर्म और जातियां दिखने लगी। मोबोक्रेसी में न्याय ढूंढा जाने लगा।
ये स्वतः नहीं हुआ है। न्यूज टीवी एंकर्स के ज़रिए लोगों की बुद्धि को चौपट किया गया और व्हाट्सएप/इंटरनेट के सहारे उनके दिमाग को नियंत्रित किया गया। उन्हें गुलाम बना लिया गया है, उस स्तर पर ले आया गया है जहां सोचते तो वो हैं, पर सोच किसी और की होती है।
इसीलिए हाथरस की दरिंदगी का विरोध करने की जगह राजस्थान की दरिंदगी कोे समांतर में खड़ा किया जा रहा है। विपक्षी नेता के खिलाफ अलोकतांत्रिक बर्बरता कोे उचित ठहराया जा रहा है। प्रधानमंत्री के मौन पर सवाल खड़े नहीं हो रहे।
यही लोग थे जिन्हें कांग्रेस की भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ते केजरीवाल में नायक दिखता था, इन्हें ही मनमोहन कि चुप्पी चुभती थी। यही रामदेव के खिलाफ हुई हिंसा के खिलाफ संवेदनात्मक रूप से एकजुट हो गए थे। इन्हीं कोे निर्भया में अपनी बेटी-बहन दिखती थी।
आज भी दिख सकती है। थोड़ी मेहनत करने पर, एक चश्मा उतारने पर, एक चोला उतार फेंकने पर, राजनैतिक गुलामी छोड़ नागरिक बन जाने पर।
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