‘उत्पादक और श्रमिक समाज के सबसे महत्वपूर्ण अंग हैं लेकिन शोषक वर्ग उनकी मेहनत की गाढ़ी कमाई को भी लूट लेता है और उन्हें उनके मूलभूत अधिकारों से भी महरूम रखता है। किसान, जो सबके लिए अन्न उगाते हैं खुद परिवार-सहित भूखे मरते हैं, जुलाहे जो दुनिया भर के लिए कपड़े बुनते हैं अपने बच्चों के तन नहीं ढंक पाते, बढ़ई, लोहार, मिस्त्री जो भव्य महल बनाते हैं खुद झुग्गी-झोपड़ी में रहने को मजबूर हैं। पूंजीपति और अन्य शोषक वर्ग जोंक की तरह उनका खून चूस-चूस कर एशो-आराम की जिन्दगी जी रहे हैं।’ ये बयान आज के माहौल का सटीक वर्णन है।
लेकिन ये आज से 9 दशक पहले का है, जब भगत सिंह और और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल, 1929 को ट्रेड यूनियन डिस्प्यूट बिल के विरोध में असेंबली में बम फेंका था और उसके बाद अदालत में यह बयान दिया था। किसानों, मजदूरों के लिए हालात तब भी पूंजीपतियों और शासकों के गठजोड़ ने कठिन बनाकर रखे थे और आज भी इसमें कोई बदलाव नहीं आया है। आज देश में शहीदे आजम भगत सिंह की जयंती पर उन्हें खूब याद किया जा रहा है।
कंगना रनौत से लेकर देश के कई बड़े नेता उन्हें सोशल मीडिया पर याद कर रहे हैं। उनके बसंती चोले के गीत गा रहे हैं। लेकिन लोगों को ये भी याद करना चाहिए कि भगत सिंह केवल पब्लिसिटी हासिल करने के लिए क्रांतिकारी नहीं बने थे, न ही निजी दुश्मनी के लिए वे क्रांति का बसंती चोला पहनते थे, न ही अपने देशप्रेम के आगे वे दूसरे के देशप्रेम को फर्जी साबित करने की कोशिश करते थे। भगत सिंह एक ऐसे क्रांतिकारी थे, जो अपना सर्वस्व दांव पर लगाने से पीछे नहीं हटे और अपने जीते-जी उन्होंने हर हाल में भारत में सांप्रदायिक, धर्मांध, नफरत फैलाने वाली ताकतों का विरोध किया। समाज में शोषितों-वंचितों को न्याय मिले, इसके लिए वे लगातार कोशिश करते रहे और इस काम में कोई ट्रोल आर्मी खड़ी करने की जगह उन्होंने भारतीय युवाओं में क्रांति की अलख जगाने का प्रयास किया।
2 फरवरी, 1931 को नौजवान राजनैतिक कार्यकर्ताओं के नाम अपने एक पत्र में वे लिखते हैं कि भारतीय क्रान्ति के निम्न लक्ष्य होने चाहिए: 1. जमींदारी प्रथा का अंत, 2. किसानों के कजोर्ं की माफी, 3. क्रांतिकारी सरकार द्वारा जमीन का राष्ट्रीयकरण और धीरे-धीरे उसे सामूहिक खेती की ओर ले जाना, 4. सभी को आवास की गारंटी, 5. किसानों से लिए जाने वाले हर प्रकार के टैक्स ख़त्म किये जाएं सिवाय न्यूनतम भूमि-कर के, 6. देश का औद्योगीकरण और उद्योगों का राष्ट्रीयकरण, 7. सार्वभौमिक शिक्षा और 8. काम करने के घंटे कम से कम किये जायें।
भगत सिंह के क्रांति के इन उद्देश्यों के विपरीत आज देश की तस्वीर सरकार ने बना दी है। देश के सार्वजनिक निकायों का निजीकरण किया जा रहा है। जमींदारी प्रथा नए रंग-ढंग से पेश करने में सरकार लगी हुई है। किसानों की कर्जमाफी केवल चुनावी घोषणापत्र तक सीमित रह गई है। सामूहिक खेती की जगह कांट्रैक्ट खेती का रास्ता खोल दिया गया है। किसानों को अधिक कमाई का लालच देकर उनकी अब तक की सम्मानजनक कमाई को भी दांव पर लगा दिया गया है। नए श्रम कानून लाकर मजदूरों के अधिकारों को रौंदने की तैयारी कर ली गई है। इस देश में पूंजीपतियों की सरकार अब खुलकर अपने असली शक्ल दिखा रही है। कहीं-कोई पर्दादारी नहीं है।
पूंजीपतियों की जो मंशा है, सरकार उसे पूरा करने के लिए संसद का अच्छे से इस्तेमाल कर रही है और बाकी देश में जो आंदोलन-वांदोलन चल रहे हैं, उस पर मिट्टी डालने के लिए बॉलीवुड का ड्रग्स कनेक्शन कैसे भुनाना है, यह टीवी चैनलों को अच्छे से आता है। भगत सिंह आज होते तो शायद उनके देशप्रेम पर भी सवाल खड़े किए जाते, क्योंकि वे तो हर हाल में सर्वहारा के पक्ष में ही खड़े होते, उन्हें न राज्यसभा की सांसदी चाहिए होती, न उस सदन में कोई आसंदी चाहिए होती। लेकिन भगत सिंह आज नहीं हैं, वैसे भी देश के सामने हर वक्त कोई गांधी, कोई नेहरू, कोई भगत सिंह, कोई आजाद नहीं हो सकता। हां, इन लोगों ने जो आदर्श-विचार प्रस्तुत किए हैं, वे देश के सामने हैं और जनता चाहे तो अपने उत्थान के लिए हमेशा किसी नायक का इंतजार न कर, इन आदर्शों और उच्च विचारों से भरे समाज की स्थापना की कोशिश खुद करे, शायद इसी से दुखों-तकलीफों से मुक्ति की कोई राह निकले।
बीते छह सालों में जनता ने देखा है कि कैसे उसकी भावनाओं को भुनाकर उसे ही ठगा गया। न लोगों के खाते में 15-15 लाख आए, न देश से भ्रष्टाचार गायब हुआ, न महंगाई खत्म हुई, न नौजवानों को रोजगार मिला, न किसानों की आय दोगुनी होने की कोई दिशा तैयार हुई। हां इन छह सालों में भाजपा का राजनैतिक ग्राफ लगातार ऊपर की ओर बढ़ता गया। घोषणापत्र में जम्मू-कश्मीर, राम मंदिर जैसे भावनात्मक मुद्दे तो पूरे हो गए, लेकिन देश का पेट केवल भावनाओं से भर जाता तो क्या बात थी। कड़वी सच्चाई यही है कि पेट केवल अनाज से भरता है और देश भरपेट खुशहाल रहे, इसके लिए जरूरी है कि देश का किसान भी खुशहाल हो। आज कर्नाटक से लेकर पंजाब तक नजर दौड़ा लीजिए, पता चल जाएगा कि देश का किसान सड़क पर उतर कर अपने लिए हक मांग रहा है।
देश की राजधानी में इंडिया गेट पर अपने ट्रैक्टर को आग लगा रहा है, जो दरअसल उसके सीने में उठ रही रोष की आग है। इस सरकार ने पहले भी महीनों तक आंदोलन देखे हैं और उनकी उपेक्षा की है। उसके लिए एक बार फिर वैसा ही करना मुश्किल नहीं होगा।
कुछ लोगों पर देश की सुरक्षा के नाम पर कठिन धाराएं लगा दी जाएंगी, कुछ को जेल में बंद कर दिया जाएगा, कुछ लाठियों-पानी की बौछारों का सामना करेंगे। आंदोलन देशविरोधी साबित हो, ऐसी कोशिश प्रशासनिक अमले की ओर से होगी, जिनके कुछ अधिकारियों को जल्दी से वर्दी उतारकर आखिरकार अपने आकाओं की जी-हूजूरी का इनाम पाने राजनीति में शामिल होना है। आंदोलनकारियों की हिम्मत टूटे, इसके लिए हर तिकड़म भिड़ाई जाएगी। हो सकता है ये कोशिशें, तिकड़में कामयाब भी हो जाएं। लेकिन इसके बाद देश एक बार फिर कार्पोरेट गुलामी की ओर बढ़ चुका होगा, इस बार कानूनन। भगत सिंह के सपनों का देश ऐसा तो कभी नहीं था।
(देशबंधु)