-सत्येंद्र पीएस।।
छत्तीसगढ़ के कांकेर में एक पत्रकार सतीश यादव को रेत माफिया ने पीट दिया और उन्हें पीटते हुए थाने पर ले गए। इसकी सूचना जब वरिष्ठ पत्रकार कमल शुक्ल को मिली तो वह कुछ और पत्रकारों को लेकर थाने पर पहुंच गए। वहां पुलिस के सामने ही कमल शुक्ल को बुरी तरह पीटा गया।
जो पत्रकार जमीनी स्तर की पत्रकारिता करते हैं उन पर दोहरी मार पड़ती है। वह अधिकारियों, गुंडों, नेताओं तीनों के निशाने पर होते हैं। साथ ही जिस संस्थान में काम कर रहे होते हैं, वह भी उन्हें भूखों मरने भर को ही पेमेंट करते हैं।
कमल शुक्ल से मेरी कई साल पहले मुलाकात जंतर मंतर पर हुई थी। उस समय वह कुछ पत्रकारों को लेकर धरने पर बैठे थे और उनकी मांग थी कि पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कानून बनाया जाए। छत्तीसगढ़ के कस्बाई पत्रकार नक्सल से लेकर नेताओं तक के हमले के शिकार हो रहे हैं।
छत्तीसगढ़ के ही पत्रकार अनिल मिश्र के कहने पर मैं कमल के धरने में शामिल होने छुट्टी लेकर गया था। उस धरने में प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, वूमेन प्रेस क्लब सहित जितने भी दिल्ली के पत्रकार संगठन हैं, कोई शामिल नजर नहीं आया। देेश के हर जिले क्या, हर कस्बे में पत्रकार संगठन हैं। लेकिन कभी कहीं सुनने में नहीं आया कि किसी पत्रकार की पिटाई या उसकी हत्या के विरोध में अखबार चैनल 24 घण्टे के लिए ठप कर दिए जाएं। हत्याओं की तमाम खबरें आती रहती हैं। कभी नक्सली मार देते हैं, कभी कोई बाबा मार देता है, कभी कोई पड़ोसी ही खुंदक में मार देता है, कभी पुलिस वाले हाथ पैर तोड़ देते हैं। अब कोरोना में इलाज के अभाव में पत्रकारों के मरने, बेरोजगारी के कारण आत्महत्या की खबरें आ रही हैं।
दिल्ली में या राजधानियों में पत्रकार सबसे सुरक्षित हैं। सेलरी मिल जाती है, लाइफ थोड़ा इंज्वाय करते हैं। लेकिन छोटे शहरों और कस्बों में स्थिति बहुत बुरी है। और अब तो हालत यह है कि पत्रकारों के हक, उनकी जिंदगी की बात करना भी बेमानी है।
मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2014 में मीडिया को बिका हुआ बताकर सत्ता में आए। अब विपक्ष के लोग मीडिया को मोदी के हाथों बिका हुआ बता रहे हैं। वहीं बसपा जैसे संगठन तो मीडिया को गरियाकर, उसे मनुवादी बताकर ही सुर्खियां बटोरने की रणनीति में सफलता की चाबी पाते रहे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार अम्बरीष कुमार, रामदत्त त्रिपाठी, राजेन्द्र तिवारी, शंभूनाथ शुक्ल की बातचीत फेसबुक लाइव पर सुनी। यह लोग टॉप पोस्ट पर रहे हैं, पत्रकारों के नेता रहे हैं। उन लोगों की भी यही चिंता कि पत्रकारों की स्वतंत्रता के साथ उनकी जिंदगी, रोजी रोटी कैसे बचाया जाए। आज ही सत्य हिंदी पर शीतल पी सिंह का एक प्रोग्राम देखा, जिसमें उन्होंने बताया कि सत्ता के हाथ पत्रकारों के गिरेबान तक पहुंच चुके हैं।
अभी केंद्र सरकार ने श्रम कानून पास किया है। सम्भव है कि वर्किंग जर्नलिस्ट भी उसी श्रेणी में आ जाएं और इलेक्शन के समय काम बढ़ने पर संस्थान 3 माह के लिए सीजनल पत्रकार रखने लगे!
पत्रकारिता की सबसे बड़ी समस्या है कि सभी को अपनी सुविधा के मुताबिक “सही वाली खबर” चाहिए होती है। पत्रकारों की स्वतंत्रता, उनके दाल रोटी के इंतजाम, उनकी नौकरी की स्थिरता के बारे में कोई सोचने को तैयार नहीं है।
कई तरह के विचार आते हैं कि मीडिया में पैसे लगाने वाले सेठों को अन्य धंधे में निवेश न करने दिया जाए। पत्रकार, खासकर वर्किंग जर्नलिस्ट को नौकरी चले जाने का टेंशन न दिया जाए। संपादक को समाचार के चयन की स्वतंत्रता हो। अब यह सब दिवा स्वप्न बनता जा रहा है। डिजिटल और न्यू मीडिया थोड़ा बहुत स्थिति बदल रही हैं लेकिन पैसे वालों के प्रोपेगैंडा वहां भी प्रभावी हो जाएंगे, यह तय है।
समाचार की जरूरत तो सबको है। संभवतः सत्तासीन सरकार को भी इसकी जरूरत होती है जिससे कि सही जानकारी उन तक पहुँच सके। इस मसले पर केंद्र के स्तर पर दबाव बनाने की जरूरत है, जिससे पत्रकार और पत्रकारिता कोमा से बाहर आ सकें।
पत्रकारों के लिए भारत जहन्नुम बनता जा रहा है। हिंसा और गृहयुद्ध प्रभावित कुछ इलाकों को छोड़ दें तो भारत के पत्रकार सबसे खतरनाक जिंदगी जी रहे हैं। हाल के दिनों में जिस तरह विनोद दुआ, आकार पटेल से लगायत तमाम पत्रकारों पर सत्तासीन दलों ने मुकदमे कराए हैं, उसका समाधान निकालने की जरूरत है। जब तक स्वतंत्रता नहीं होगी, कलम को खामोश किया जाता रहेगा। एकाध गिरफ्तारी या फर्जी मुकदमों में सुप्रीम कोर्ट से राहत मिलने जैसे मामलों से इस फील्ड में कुछ सुधरने वाला नहीं है। आज भी आम पब्लिक मीडिया को गालियां देते हुए यह कहती पाई जाती है कि बिकी हुई मीडिया इसे नहीं दिखाएगी,उसके साथ साक्ष्य के रूप में किसी अखबार की कतरन लगी होती है। पत्रकारिता को बचाने की जरूरत है। एक निश्चित कानून हो, जिसके दायरे में काम हो, स्वतंत्रता से काम हो, वह ढांचा बनाने की जरूरत है। ठेके पर काम करने वाले, मामूली सेलरी पर या भविष्य में सेलरी मिलेगी इस आस में मुफ्त में काम करने वाले, जान जोखिम में डालकर काम करने वाले पत्रकारों से आस लगाना बेमानी है। अगर पत्रकारिता को धंधा ही बनाना है तो उस धंधे के ही कुछ उसूल बनें, जिससे न्यूज सप्लायर भी जिंदा रह सकें!
फिलहाल कमल शुक्ल को थाने के सामने पीटे जाने का वीडियो देखिए। रेत माफिया कांग्रेस के स्थानीय नेता बताए जा रहे हैं। साथ ही सुनने में आ रहा है कि 4 हमलावरों को हिरासत में ले लिया गया है।