-श्याम मीरा सिंह।।
आज सुबह राज्यसभा के उपसभापति धरनारत 8 सांसदों को चाय देने के लिए पहुंचे। जिसकी तस्वीरों को शेयर करते हुए प्रधानमंत्री ने उन्हें लोकतंत्र की सुंदर तस्वीरें कहा और धरनारत सांसदो को अपराधी तक साबित कर दिया। इसके बाद से ही गोदी मीडिया के बतख पत्रकारों ने उपसभापति के लिए स्तुति गान करना शुरू कर दिया है। आप इनके प्रचारतंत्र को देखिए, इनका प्रचारतंत्र इतना मजबूत है कि उपसभापति द्वारा धरनारत सांसदों को चाय देने का जबरदस्त प्रचार भी कर दिया और ये भी छुपा दिया कि कैसे किसानों का भविष्य तय करने वाला एक महत्वपूर्ण कानून देश की संसद में बिना वोटिंग के ही तानाशाही तरीके से पास करा लिया गया।
लोकतंत्र और प्रचारतंत्र में यही एक अंतर है। यहां कंगूरों और घर की बाहरी दीवारों पर रंग रोगन का प्रचार किया जाता है और छुपाया जाता है कि दीवारों की “नीम(जड़) रखते समय कितना घोटाला किया गया है। बीते दिनों देश की संसद में लोकतंत्र की खुली लूट हुई और एक चाय के प्रचार ने उस उपसभापति के प्रति आपके मन में सहानुभूति पैदा कर दी जिसने कि किसानों के भविष्य को तय करने वाले बिल को बिना चर्चा और वोटिंग के ही गुंडागर्दी के दम पर पास करवा लिया।
यही विडंबना है भारत जैसे देश की जहां नदियों से ज्यादा भावनाएं बहती हैं। जो उपसभापति की चाय लौटाने से हर्ट हो जाती हैं लेकिन उपसभापति के तानाशाही रवैये पर सुसप्त पड़ी रहती हैं। आप कह सकते हैं चाय लौटकर विपक्षी सांसदों ने राजनिति की। लेकिन उपसभापति और प्रधानमंत्री ने जो किया, क्या वह राजनीति नहीं है? कोई मतलब नहीं है ऐसी चाय का। संविधान कुचलकर चाय पिलाना राजनीति है, न कि ऐसी चाय को ठुकरा देना जो किसानों के भविष्य में आग लगाकर गर्म की गई है।
यहां उर्दू की कुछ पंक्तियां इस पूरे मैटर को समझने में आपकी मदद कर सकती हैं-
“सियासत अवाम पर इस कदर अहसान करती है
आंखें छीनती है और चश्में दान करती है।”
बस यही बात समझने की जरूरत है, फूटी आंखों वाले पीड़ित अगर अपराधी द्वारा दान किए गए चश्में लौटा दें तो वह राजनीति नहीं, बल्कि प्रतिरोध है। संजय सिंह और बाकी 8 सांसद वहां चाय पीने के लिए धरने पर नहीं हैं, यहां किसानों का भविष्य तय किया जा रहा है। प्रधानमंत्री के लिए चाय गर्व का विषय है, लेकिन संसद में लोकतंत्र की हुई खुली लूट शर्म का विषय नहीं है।
नरेंद्र मोदी एक प्रचारतंत्र के प्रधानमंत्री हैं लोकतंत्र के नहीं। अन्यथा उन्हें सभापति की चाय पे फिदा होने से ज्यादा, उनके द्वारा की गई अलोकतांत्रिक और तानाशाही प्रक्रिया पर शर्म आती।
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