हिंदुस्तान के हालिया इतिहास में शायद ऐसा पहली बार हो रहा है जब एक निर्वाचित प्रधानमंत्री के जन्मदिवस को किसी बड़ी समस्या के दिन के रूप में याद रखा जाए। 17 सितम्बर नरेन्द्र मोदी का जन्मदिन है। 2014 से पहले मोदी जी इस दिन को किन लोगों के साथ, कैसे मनाते थे, इस बारे में तो कोई खास जानकारी नहीं है। वे तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, इसलिए उस प्रदेश तक ही यह आयोजन सीमित रहता होगा। लेकिन 2014 से 2019 तक भारत की जनता ने हर साल इस दिन पर लगभग एक जैसी तस्वीरें देखीं। मोदीजी अपनी वृद्धा मां का आशीर्वाद ले रहे हैं, उनकी मां उनका मुंह मीठा करा रही हैं या उनके साथ खाना खा रही हैं और उन्हें शगुन में कुछ दे रही हैं।
लेकिन इस बार मोदीजी और उनकी मां की अद्भुत वात्सल्य से भरी तस्वीरें लेने का सौभाग्य मीडिया को नहीं मिल पाएगा। क्योंकि कोरोना और संसद के मानसून सत्र के कारण मोदीजी अपनी मां से मिलने गांधीनगर नहीं जा रहे हैं। कम से कम उनके कार्यालय से इस तरह की कोई सूचना नहीं है। हां, वे अगर चौंकाने वाले अंदाज में गांधीनगर पहुंच जाएं, तो बात अलग है। वैसे भी देश को सरप्राइज करने में मोदीजी माहिर हैं। कभी वे अचानक नोटबंदी का ऐलान कर देते हैं, कभी अचानक देश में सब कुछ बंद कर देने का और कभी वे अचानक ही पाकिस्तान भी पहुंच जाते हैं। पहले पहल उनकी यह सरप्राइजी अदा लोगों को बहुत पसंद आती थी। युवा उनमें अपना आदर्श ढूंढने लगे थे।
बच्चों के लिए तो बाल नरेन्द्र की चरित्रकथा गढ़ी ही इसलिए गई थी कि कम उम्र से बच्चों को उनका मुरीद बना दिया जाए। लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि मोदीजी की हर-हर मोदी, घर-घर मोदी वाली छवि अब बिखर रही है। देश का युवा देख रहा है और समझ रहा है कि केवल लच्छेदार बातों, लुभावने नारों से पेट नहीं भरता, जिंदगी नहीं चलती, न ही देश चल सकता है।
सत्ता में पहली बार आने के लिए मोदीजी ने युवाओं पर अपनी पकड़ मजबूत बनानी शुरु की थी। फरवरी 2013 में उन्होंने दिल्ली के श्रीराम कॉलेज ऑफ कामर्स में युवाओं को संबोधित करते हुए कहा था कि राजनीतिक दल भले ही युवाओं को ‘न्यू ऐज वोटर’ मानते हों, लेकिन वे युवा वर्ग को ‘न्यू एज पावर’ मानते हैं। इन्हीं युवाओं की मेहनत से आज दुनिया में भारत की धाक जमी है। यही युवा 21वीं सदी को भारत की सदी बना सकता है।
इसी मंच से उन्होंने युवाओं को उम्मीद का नया पाठ पढ़ाया था, और पानी से आधे भरे गिलास को उठाकर कहा था कि कुछ लोग इसे आधा भरा या आधा खाली कहेंगे, लेकिन वे इस गिलास को भरा कहेंगे, जो आधा पानी और आधा हवा से भरा है। उनके भाषण के बाद मौजूद छात्र-छात्राओं ने खड़े होकर देर तक ताली बजाई थी। इस दिन राजनैतिक गलियारों में मोदी के सत्ता में आने के चर्चे तेज हो गए थे, क्योंकि युवा शक्ति उनके साथ नजर आ रही थी।
लेकिन 7 सालों में देश की तस्वीर बदल चुकी है। रसातल में पहुंची जीडीपी और आसमान छूती बेरोजगारी अब उम्मीद के गिलास को पूरी तरह खाली दिखा रही है। अगर इसमें पूरी तरह हवा भरी भी है, तो वो युवाओं को अपने काम की नजर नहीं आ रही। युवाओं की हताशा अब तक छिटपुट प्रदर्शनों में दिखाई देती थी। कहीं परीक्षा के आयोजन में देरी पर विरोध होता था, कहीं रिजल्ट घोषणा की देरी पर तो कभी परीक्षाओं में धांधली को लेकर विरोध होता था। 2018 में एसएससी परीक्षा में धांधली पर लंबा विरोध छात्रों ने किया था। लेकिन सरकार ऐसे विरोध प्रदर्शनों को किसी न किसी तरह मैनेज करती रही। विश्वविद्यालयों में छात्रों के विरोध-आंदोलनों ने तो सीधे देशभक्ति बनाम देशद्रोह का मुद्दा खड़ा कर दिया।
जेएनयू, जामिया मिलिया इस्लामिया, डीयू, हैदराबाद विश्वविद्यालय, बीएचयू उच्चशिक्षा के ऐसे कई नामी-गिरामी संस्थानों में निम्नस्तरीय राजनीति बीते बरसों में देखने मिली, जिससे यहां अच्छे भविष्य की चाहत में आए युवाओं ने खुद को ठगा महसूस किया। देश में नौकरियों के घटते अवसर और सरकार की इस दिशा में सुधार की अनिच्छा भी अब युवाओं को साफ नजर आने लगी है। इसलिए इस सितम्बर महीने में बेरोजगारी के खिलाफ युवाओं ने खुलकर अपनी आवाज बुलंद की है। पहले 5 सितम्बर को ताली-थाली बजाई, फिर 9 सितम्बर को 9 मिनट के लिए लाइट बुझाकर 9 मिनट तक दिए जलाए और अब 17 सितम्बर को मोदीजी के जन्मदिन को राष्ट्रीय बेरोजगारी दिवस के रूप में युवा मना रहे हैं। सोशल मीडिया पर यह हैशटैग तेजी से ट्रेंड कर रहा है। भाजपा दावा करती है कि मोदीजी अब तक के सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री हैं। पार्टी उन्हें राष्ट्रीय स्तर से लेकर स्थानीय चुनावों तक पोस्टर बॉय की तरह भुनाती है।
इस बार 14 सिम्बर से 20 सितम्बर तक मोदीजी के जन्मदिन के उपलक्ष्य पर भाजपा सेवा सप्ताह मना रही है। शायद पार्टी इस बात को अनदेखा करना चाहती है कि जिनकी लोकप्रियता का दम वो भरती है, उनके जन्मदिन को बेरोजगारी जैसी राष्ट्रीय समस्या के साथ इतिहास में दर्ज कराया जा रहा है। ऐसी अनदेखी भाजपा के लिए ही नुकसानदायक है। देश में बीते कुछ महीनों में करोड़ों नौकरियां जा चुकी हैं और नई नौकरियों का आलम एक अनाज, लाख बीमार वाला हो गया है। आंकड़े बताते हैं कि सरकारी पोर्टल पर नौकरी पाने की इच्छा से करीब 1 करोड़ से अधिक लोगों ने अपना पंजीकरण कराया है लेकिन केवल 1.77 लाख नौकरियां ही उपलब्ध हैं।
बिहार में रोजगार चुनावी मुद्दा बन चुका है। राजद ने बेरोजगारी हटाओ पोर्टल शुरु किया है, जिसमें दावा है कि इस पर 9 दिन के भीतर ही 5 लाख से ज्यादा रजिस्ट्रेशन हो चुके हैं। उधर उत्तरप्रदेश में तो ग्रुप ‘बी’ और ‘सी’ की नौकरियों के लिए संविदा पर नौकरी का फैसला लेकर सरकार ने बता दिया कि उसकी दिलचस्पी केवल मंदिर निर्माण में है, युवाओं के बेहतर भविष्य निर्माण में नहीं।
सरकार ने तय किया है कि पांच साल के कॉन्ट्रैक्ट पर काम कराया जाएगा, इन पांच साल में हर छह महीने पर एक टेस्ट लिया जाएगा, जिसमें कम से कम 60 फीसद अंक पाना अनिवार्य होगा इसके बाद ही स्थायी नौकरी के मौके मिलेंगे। इस व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठ रही है, लेकिन सरकार शायद ही किसी की सुने। गुजरात में भी इसी तरह फिक्स पे सिस्टम लागू हुआ था, जिसे अदालत ने न्यूनतम वेतन के नियम का उल्लंघन वाला बताया था। बहरहाल, राष्ट्रीय बेरोजगारी दिवस पर युवा अपनी हताशा और निराशा प्रकट कर रहे हैं। सरकार क्या संसद में इस पर चर्चा करेगी या पकौड़ों के घोल में इसे भी मिला कर राजनीति को नया स्वाद देगी।
(देशबंधु)
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