-सुधेंदु पटेल||
कवि-नाटयकार व्योमेश शुक्ल ने अपनी फेसबुक पोस्ट ‘एक बवाल हिंदी वालों की जान पर यह भी है’ लिखकर आज मेरी दुखती रग को छेड़ दिया है l मैं ही नहीं साथी नरेन्द्र नीरव, विश्वनाथ गोकर्ण आदि भी उद्धवेलित हुए l नीरव ने तो पुनः सभा के लिए आंदोलन करने की बात कही है।
क्या अब मीडिया के ऐसे समर्थन की उम्मीद कर सकते हैं ? और सुरेन्द्र प्रताप सिंह सरीखी चिंता l हिंदी के लिए समर्पित एक सौ सत्रह साल पुरानी संस्था नागरी प्रचारिणी सभा को साहित्यिक पुरखों ने जिस स्वप्न-संकल्प के साथ रोंपा और पल्लवित किया था , उसे सत्ता पोषित एक परिवार ने अपनी निजी संपत्ति सालों से बना लिया है l
सातवें दशक के उत्तरार्ध में संघर्ष समिति बनाकर उसकी मुक्ति के लिए किए गये संघर्ष को हिंदी संसार का व्यापक समर्थन मिलने के बावजूद तत्कालीन सत्ता के कानों पर जूं तक नहीं रेंग़ी थी और अंततः संघर्ष की परिणति ‘ढाक के तीन पात’ की ही रही थी l
देश की दलीय सत्ता बदलती रही लेकिन कांग्रेसी सांसद भाइयों सुधाकर पाण्डेय और रत्नाकर पाण्डेय ने जाने किस तिकड़म से सबको बराबर साधे रखा और अबतक उनकी औलादों ने भी साधे रखा है l यह आकस्मिक नहीं था कि पंडित कमलापति त्रिपाठी की भी नहीं चली थी कि क्योंकि उन दो शातिर सांसदों में से एक रत्नाकर पाण्डेय श्रीमति इंदिरा गांधी की पुत्रवधु सोनिया गांधी को हिन्दी भाषा सिखलाने की ड्युटी निभा रहे थे l यह जानना कम रोचक नहीं होगा कि बाद के दो कवि प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी को कौन-सा मंतर देकर यथास्थिति क़ो बरकरार रखा गया जो अब भी मिलीभगत से जारी है l