-संजय कुमार सिंह||
यह दिलचस्प है कि भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के अपने घोषणा पत्र में नई शिक्षा नीति की बात की थी। चुनाव जीतने के बाद इसे इतनी प्राथमिकता दी जानी थी कि स्मृति ईरानी को शिक्षा मंत्री बनाया गया जिनकी अपनी डिग्री और शिक्षा को लेकर बना भ्रम तीसरी बार चुनाव लड़ने के समय दूर हुआ। जो डिग्री है उसपर बात करने की जरूरत नहीं है क्योंकि शिक्षा नीति बनाने का मामला लटका ही रह गया। काम शुरू जरूर हुआ पर ….। अब नई नीति घोषित हुई है उसे 10+2 की जगह 5+3+3+4 कर दिया गया है। वैसे तो यह बूझो तो जानें जैसा लगता है पर असल में 12 साल की शिक्षा को 15 साल का बना दिया गया है।

इसे ऐसे समझिए कि आज के बच्चों के दादाजी छठी में पढ़ाई शुरू करते थे तो ग्यारहवीं में बोर्ड पास करते थे। पिता जी ने तीसरी कक्षा से पढ़ाई शुरू की वो 12वीं में स्कूल छोड़ते थे और जिन लोगों ने कक्षा एक से पढ़ाई शुरू की उनके लिए 10+2 दो आया। अब यह 5+3+3+4, उन लोगों के लिए है जो डायपर में स्कूल जाते हैं। हम सब ने अपने बच्चों को नर्सरी ही नहीं प्री नर्सरी में पढ़ाया है और तीन साल का या उससे कम का भी बच्चा स्कूल जाने लगता था। उसका नाम अलग हो पर बेचारा बच्चा।
अब स्कूली शिक्षा से पहले अंग्रेजी स्कूलों में प्री नर्सरी या प्ले स्कूल की शिक्षा दी जाने लगी थी। नई शिक्षा नीति में उसे 5+3+3+4 में शामिल कर लिया गया है। सरकारी स्कूलों के लिए यह आंगनबाड़ी शिक्षा है। अब उसे भी 10 जमा दो में जोड़कर 5+3+3+4 यानी 15 साल का कर दिया गया है। प्रधानमंत्री ने कहा है कि बच्चों को ग्लोबल स्टूडेंट्स बनाने के साथ जड़ों से भी जोड़े रखना है। इसलिए नई नीति के तहत हर साल परीक्षा नहीं होगी बल्कि कक्षा तीन, पांच और आठ में होगी। बोर्ड की परीक्षा 10 और 12 में होगी पर अभी उसमें बदलाव होंगे। इससे परीक्षा से डर पैदा होगा और बोर्ड परीक्षा का हौव्वा बढ़ेगा। दूसरी ओर 12वीं के बच्चों से ट्वीट करवाकर उन्हें आईटी सेल की नौकरी के लिए तैयार किया जा रहा है।
प्रधानमंत्री कहते हैं (कल फिर कहा है। आज के अखबारों में छपा है) परिवारों के लिए मार्कशीट को प्रेशर शीट या प्रेस्टिज (प्रतिष्ठा) शीट नहीं होना चाहिए। वोट लेने के लिए यह अच्छी बात है लेकिन इसे सच बनाने के लिए नौकरी की परीक्षाएं ठीक से होनी होंगी (रिश्वत चले तो पढ़ने की जरूरत नहीं होगी पर परिणाम तो आए, नौकरियां तो मिलें)। पर उसका जो हाल है आप जानते हैं। दूसरी नौकरियां नहीं हैं, बेरोजगारी बढ़ी है फिर भी सरकार काम के नाम पर परीक्षाओं का आयोजन करके नौकरी नहीं दे पा रही है। बात शिक्षा नीति की हो रही है क्योंकि 2014 के चुनाव घोषणा पत्र में था। नई शिक्षा नीति में परीक्षा हर साल नहीं होगी बल्कि कक्षा 3, 5 और 8 में होगी। अगर बच्चा हर साल परीक्षा देता रहेगा तब परीक्षा का दबाव कम होगा या सिर्फ 10वीं या 12वीं में देने से। अब आप तय कीजिए कि हर साल परीक्षा नहीं होने का क्या मतलब है।
शिक्षकों का जो हाल है वह सबको पता है। उन्हें जनगणना से लेकर कोरोना मरीजों को अस्पताल पहुंचाने तक के काम में लगाया जाता है (अगर नौकरी दे दी गई तो) और नौकरी न मिलने पर गेस्ट लेक्चरर या अस्थायी शिक्षकों को मान और मानदेय मिलता है उस स्थिति को सुधारे बगैर अब शिक्षक प्रशिक्षण चार साल का होगा। एक देश, एक तानाशाह के लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए एक देश नौकरी की एक जरूरत का नारा भी लग सकता है। और इस क्रम में हरेक डिग्री का कोर्स चार साल का ही होना चाहिए चाहे वह शिक्षक बनने के लिए हो, पत्रकार या डाक्टर। उच्च शिक्षा के लिए भारतीय उच्च शिक्षा परिषद और विश्वविद्यालयों में दाखिले के लिए एक नेशनल टेस्टिंग एजेंसी बनाई जाएगी। कहने की जरूरत नहीं है कि ये सब योजनाएं तब हैं जब नौकरी देने वाली परीक्षाओं की नाकामी सर्वविदित है।