-कँवल भारती।।
कबीर साहेब के निर्गुणवाद पर कतिपय हिन्दू और मुस्लिम विद्वानों ने भी अपनी स्थापनाएँ दी हैं। हिन्दू मत यह है कि कबीर साहेब पर वेदांत दर्शन का प्रभाव है, जबकि मुस्लिम मत उन पर सूफ़ी प्रभाव मानता है, जिसके अनुसार निर्गुण इस्लामिक तौहीद की छाया है। तौहीद यानी एकेश्वरवाद।
ये दोनों मत दरअसल निर्गुणवाद को अपने-अपने खांचे में फिट करने की क़वायद के सिवा कुछ नहीं है। आइए, देखते हैं कि इन दोनों मतों में कितना दम है।
वैसे ये दोनों मत कबीर के इस एक ही पद–‘पंडित मुल्ला जो लिख दीना, छोड़ चले हम कुछ नहीं लीना’– से ध्वस्त हो जाएंगे। लेकिन अच्छा होगा कि हम निर्गुणवाद के दर्शन से ही इन मतों पर विचार करें।
तौहीद का मतलब बेशक एकेश्वरवाद है, यानी
अल्लाह एक है, निराकार है, वह वाहिद है, उसका कोई शरीक नहीं है। उसके मातापिता नहीं हैं, अर्थात उसे किसी ने पैदा नहीं किया। इससे यह तो साबित होता है कि अल्लाह निराकार है, उसका रंग रूप नहीं है, पर यह साबित नहीं होता कि वह निर्गुण भी है। निराकार होने के बावजूद अल्लाह निर्गुण नहीं है। वह सगुण है, क्योंकि इस्लाम के अनुसार, वह जीवों को पैदा करता है, मारता है। वह आख़िरत के दिन सारे मृतकों को उठाएगा, उनके कर्मों का हिसाब किताब करेगा और सुकर्मों के लिए ज़न्नत और कुकर्मों की सज़ा दोज़ख़ में भेजकर देगा।
लेकिन कबीर साहेब के निर्गुण ईश्वर में ऐसा कोई गुण नहीं है। वह न किसी को पैदा करता है और न मारता है। इसलिए निर्गुणवाद में न ज़न्नत है, न जहन्नुम है और न परलोक है। कबीर मानते हैं कि जीव की उतपत्ति पांच तत्वों से हुई है, और मरने के बाद सभी पांचों तत्व अपने-अपने तत्वों में मिल जाते हैं, शेष कुछ भी नहीं रहता। इसलिए आदमी का न पूर्वजन्म होता है और न पुनर्जन्म। इस दृष्टि से कबीर पर इस्लाम के तौहीद का आरोप ध्वस्त हो जाता है।
अब आते हैं, वेदांत पर। वेदान्त का सन्देश है—‘ब्रह्म सत्यं जगनमिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:’—अर्थात, ब्रह्म सत्य है, और जगत मिथ्या है, और यह जीव ब्रह्म ही है, और कुछ नहीं। पर यह केवल ज्ञानकांड है, व्यवहार में वह वर्णव्यवस्था ही मानता है। ब्राह्मणों ने केवल इसी एक सूत्र को पकड़कर कि–‘यह जीव ही ब्रह्म है’, बस निर्गुण पर वेदान्त आरोपित कर दिया। कबीर ने कहा कि न मैं पूजा करता हूँ, न नमाज़ पढ़ता हूँ, मुझे इस सबकी जरूरत ही नहीं है, मैं जो काम करता हूँ, वही पूजा है, जहां जहां जाता हूँ , वही परिक्रमा है। उन्होंने वेदान्तियों से पूछा, जीव ही ब्रह्म है, तो वर्णभेद क्यों? कबीर ने सवाल किया— ‘व्यापक ब्रह्म सबनि में एकै, को पंडित को जोगी, राणा राव कवन को कहिए, कवन वैद को रोगी?’
निर्गुण सन्त वेदांत के इस दर्शन को भी नहीं मानते कि जगत मिथ्या है। वे लोक को सत्य मानते हैं, परलोक को नहीं। यह निर्गुणवाद में वेदान्त का जबरदस्त खंडन है। वेदांती ब्राह्मण जगत को मिथ्या मानते हैं, इसलिए वे संसार के दुखों को भी मिथ्या मानते हैं। वे गरीबों के शोषण के प्रति भी संवेदनशील नहीं हैं, क्योंकि उनके लिए वह सब झूठा है। लेकिन निर्गुणवाद संसार के प्रति संवेदनशील है। कबीर साहेब सती के प्रति भी संवेदनशील हैं, गरीबों के प्रति भी और पीड़ित किसानों के प्रति भी। वे कहते हैं–‘सुखिया सब संसार है खावे अरु सोवे, दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवे।’ वेदान्त को मानने वाले सब सुखिया हैं, वे वैसे भी गरीबी और अमीरी को कर्मफल का परिणाम मानते हैं, इसलिए वे दुखी नहीं होते।
इस प्रकार कबीर आदि सन्त न तो इस्लाम से जुड़े थे, और न वेदान्त से।