कोविड काल में मोदी सरकार ने कई ऐसे फैसले लिए, जो अंतत: देशहित और जनहित के साबित नहीं हुए। यानी सरकार की मनमानी का खामियाजा देश की आम जनता को भुगतना पड़ा। स्वास्थ्य आपदा के मद्देनजर या गिरती अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए त्वरित फैसले लेने की जरूरत थी, ऐसा लचर तर्कसरकार दे सकती है। लेकिन नई शिक्षा नीति, 20 लाख करोड़ के राहत पैकेज का ऐलान, निजीकरण जैसे कुछ फैसले भी सरकार ने विपक्ष को भरोसे में लिए बिना किए। मार्च से संसद बंद है और संसदीय समितियों की बैठक भी नियमित तौर पर नहीं हो पा रही है, इसलिए सरकार को अकेले के बूते फैसले लेने का बहाना भी मिल गया। मगर अब संसद का मानसून सत्र जल्द ही आयोजित किया जाएगा। मार्च से संसद को बंद रखने के पीछे भी महामारी का ही हवाला दिया गया।
हालांकि इस बीच कहीं राज्य सरकार को गिराने की कोशिश, विधायकों की खरीद-फरोख्त, दलबदल, कुछ सभाएं, कुछ समर्थन रैलियां और अयोध्या में भूमिपूजन जैसे राजनैतिक प्रयोजन साधने वाले सारे काम होते रहे। इनमें कोरोना कहीं आड़े नहीं आया। लेकिन लंबे अरसे तक संसद ठप्प रखने के लिए कोरोना से अच्छा बहाना कोई नहीं था। अब संवैधानिक मजबूरियों के चलते मानसून सत्र आयोजित हो रहा है, तो इसमें तमाम सावधानियां बरती जा रही हैं, ताकि माननीयों को किसी किस्म का डर नहीं रहे। लेकिन सरकार के लिए बीमारी से बढ़कर भी एक डर है, जवाबदेही का। सरकार ये अच्छे से जानती है कि संसद जैसे ही शुरु होगी, उसे विपक्ष के कई चुभते सवालों का जवाब देना होगा। जिसमें उसके लिए असुविधा पैदा हो जाएगी।
लॉकडाउन का फैसला, मजदूरों की दुर्दशा, करोड़ों की बेरोजगारी, जीडीपी में ऐतिहासिक गिरावट, चीन के साथ जारी तनाव, छात्रों के विरोध के बावजूद परीक्षाओं का आयोजन, कोरोना मरीजों की संख्या में रिकार्ड वृद्धि जैसे कई मामलों पर विपक्ष सवाल जरूर पूछेगा, जिन पर कहने के लिए सरकार के पास कोई पुख्ता बातें नहीं हैं, केवल गोल-मोल भावनात्मक मुद्दों की जुगाली है।
इसलिए शायद अपनी सुविधा के लिए सरकार ने प्रश्नकाल ही स्थगित कर दिया था। गौरतलब है कि लोकसभा सचिवालय ने एक अधिसूचना में कहा था कि सत्र के दौरान कोई प्रश्नकाल नहीं होगा। महामारी के मद्देनजर सरकार के अनुरोध को देखते हुए अध्यक्ष ने निर्देश दिया कि सत्र के दौरान सदस्यों के निजी विधेयकों के लिए भी कोई दिन तय नहीं किया जाए। राज्यसभा सचिवालय ने भी ऐसी ही अधिसूचना जारी की थी, जिस पर राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने सदन के सभापति एम. वेंकैया नायडू को 31 अगस्त को लिखे गए अपने पत्र में कहा था कि सांसदों को राष्ट्रीय महत्व और सार्वजनिक सरोकार के मुद्दों को उठाने का मौका देने के बाद उन्हें रोकना अनुचित होगा।
आजाद ने सुझाव दिया था कि अगर समय की बहुत कमी है तो शून्यकाल को आधे घंटे का किया जा सकता है, जबकि प्रश्नकाल को एक घंटे तक जारी रखना चाहिए। तृणमूल कांग्रेस के सांसद और पार्टी के राज्यसभा नेता डेरेक ओ ब्रायन ने कहा कि विपक्षी सांसद सरकार पर सवाल उठाने का अधिकार खो देंगे और आरोप लगाया कि महामारी का इस्तेमाल लोकतंत्र की हत्या के लिए किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि पूर्व में विशेष उद्देश्य के लिए संसद का सत्र बुलाए जाने के दौरान प्रश्नकाल को निलंबित कर दिया जाता था, लेकिन मानसून सत्र एक नियमित सत्र है। वहीं कांग्रेस ने ट्वीट कर कहा, चूंकि प्रधानमंत्री ने कभी किसी सवाल का जवाब नहीं दिया तो वह दिन दूर नहीं है जब उनकी सरकार भी ऐसा ही करेगी। सवालों से बचने के लिए बीजेपी की मंशा दिखाती है कि वे न तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास करते हैं और न ही सुशासन पर। लोकसभा सांसद असदुद्दीन औवैसी ने भी प्रश्नकाल हटाए जाने पर आपत्ति जताते हुए पूछा कि यह फैसला केंद्र ने अकेले कैसे कर लिया?
उन्होंने इसके साथ ही प्रश्नकाल कराए जाने को लेकर सुझाव भी रखे जैसे, सवाल पूछने के लिए नोटिस पीरियड की अवधि कम करना, या सत्र के दौरान एक दिन बस प्रश्नों के लिए भी रखा जाना। विपक्ष के इस चौतरफा विरोध के बाद अब सरकार ने थोड़ा झुकने का फैसला लिया है कि अब संसद सत्र के दौरान लिखित में सवाल पूछे जा सकेंगे जिसका जवाब भी लिखित में ही मिलेगा। यानी अब अतारांकित सवाल ही पूछे जा सकेंगे।
गौरतलब है कि लोकसभा की बैठक का पहला घंटा सवाल पूछने के लिए होता है, इसे प्रश्नकाल कहते हैं। इस दौरान लोकसभा सदस्य प्रशासन और सरकार के कार्यकलापों के प्रत्येक पहलू पर प्रश्न पूछ सकते हैं। प्रश्नकाल के दौरान पूछे गए प्रश्न तीन प्रकार के होते हैं- तारांकित प्रश्न, अतारांकित प्रश्न और अल्प सूचना प्रश्न। तारांकित प्रश्न वह होता है जिसका सदस्य सदन में मौखिक उत्तर चाहता है और जिस पर तारांक लगा होता है। अतारांकित प्रश्न वह होता है जिसका सदस्य सदन में मौखिक उत्तर नहीं चाहता है। अतारांकित प्रश्न पर पूरक प्रश्न नहीं पूछे जा सकते हैं। अतारांकित प्रश्नों के उत्तर लिखित रूप में दिए जाते हैं। जबकि अल्पसूचना प्रश्न के तहत लोक महत्व के विषय के संबंध में कोई प्रश्न पूरे 10 दिन से कम की सूचना पर पूछा जा सकता है। इस व्यवस्था से सरकार की जवाबदेही तय होती है और विपक्ष को भी अपनी भूमिका बेहतर निभाने का अवसर मिलता है।
लेकिन मोदी सरकार शायद विपक्षहीन संसद चाहती है, इसलिए प्रश्नकाल की मांग को भाजपा के कुछ नेताओं ने फर्जी विमर्श खड़ा करने की कोशिश बताया, जबकि यह उनका लोकतांत्रिक अधिकार है। जो अब उन्हें कुछ कम होकर मिल रहा है। सरकार की जवाब न देने की मंशा तो नजर आ ही गई है, लेकिन विपक्ष को अब और सतर्क होकर अपनी भूमिका का निर्वाह करना होगा और संसद के हरेक कार्यकारी मिनट का देशहित में इस्तेमाल करना होगा।
(देशबंधु)