शायर इरतजा निशात का चर्चित शेर है-
”कुर्सी है तुम्हारा यह जनाजा तो नहीं है
कुछ कर नहीं सकते तो उतर क्यों नहीं जाते?”
आज ये पंक्तियां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण पर बिल्कुल सटीक बैठ रही हैं। उनकी नीतियों, फैसलों और लापरवाहियों की वजह से देश 40 साल में भयावह मंदी की चपेट में आ गया है। 2008 में जब सारी दुनिया मंदी का शिकार हुई थी और अमेरिका, यूरोप की अर्थव्यवस्थाएं तबाह हो गई थीं, तब भी भारत के कदम लड़खड़ाए नहीं थे। उस वक्त यूपीए सरकार थी, जो इस मोदी सरकार से प्रचार में काफी पीछे रह गई। अगर मोदीजी के शासन में ऐसा कुछ हुआ होता तो न जाने सोशल मीडिया में तारीफों की कैसी सुनामी आ जाती।
गुणगान के लिए चाटुकारिता की सारी हदें पार हो जाती। गोदी मीडिया चीख-चीख कर बताता कि कैसे मोदीजी के जादू से देश मंदी में आने से बच गया। मोदी है तो मुमकिन है का नारा देश का नया गान बन जाता। लेकिन गनीमत है कि 2008 में मोदी जी सत्ता में नहीं थे। वर्ना जो हाल आज देश का हुआ है, वो 12 बरस पहले देश भुगत रहा होता। भाजपा भक्त बार-बार ये सवाल करते हैं कि 60 सालों में कांग्रेस ने क्या किया।
नेहरूजी ने देश को क्या दिया। ऐसे फिजूल के सवाल करने वालों को शायद अब सटीक जवाब देने का समय आ गया है कि 60-70 सालों में देश को अपने पैरों पर खड़ा करने का, सही मायनों में आत्मनिर्भर बनाने का काम कांग्रेस की सरकारों ने किया। आजादी के बाद जब हर ओर से चुनौतियां मिल रही थीं, देश को चलाने के लिए संविधान बनाया जा रहा था, तब नेहरूजी के कारण भारत विश्वशक्तियों का मोहरा बनने से बचा रहा और अपनी साख कायम रखते हुए आर्थिक प्रगति के लिए दूसरे देशों की मदद लेते हुए आगे बढ़ा। कई बड़े कारखाने और उद्योग उस वक्त खड़े हुए, आज जिन्हें बेचकर मोदीजी देश को आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं।
आजादी के बाद देश ने कई मुश्किल दौर भी देखे। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने, चीन और पाकिस्तान के साथ हुए युद्धों, सूखे औऱ बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं और कभी खाड़ी युद्ध जैसी स्थिति बनने के कारण, देश में कई बार आर्थिक संकट आया। लेकिन तब शासकों ने मोर को दाना चुगाने या मन की बात कर लोगों का ध्यान भटकाने की कोशिश नहीं की, बल्कि त्वरित उपायों के बारे में सोचा। नए नोट छापना, आयात कम कर, निर्यात को बढ़ावा देना, बाजार में उदार व्यवस्था लागू करना जैसे कदम उठाकर हालात संभाले गए और सही मायनों में आपदा को अवसर बनाया गया।
नेहरूजी से लेकर शास्त्रीजी, और इंदिरा गांधी से लेकर पी.वी. नरसिम्हा राव और डॉ. मनमोहन सिंह तक हरेक प्रधानमंत्री ने देश को मंदी में जाने से बचा लिया या आर्थिक कठिनाई के वक्त ऐसे फैसले लिए जिससे जनता को रोजगार या महंगाई की समस्या से कम से कम जूझना पड़े। कल्पना कीजिए, अगर आजादी के बाद आज जैसे शासक मिले होते तो क्या देश में इतने सार्वजनिक उपक्रम खड़े होते, क्या देश तभी दूसरी आर्थिक गुलामी में नहीं चले जाता। क्योंकि आज भी निजीकरण के नाम पर यही खेल तो हो रहा है।
चंद औद्योगिक घरानों की दौलत इस कठिन वक्त में भी बढ़ रही है, उनका कारोबार फैलता जा रहा है, विदेश से भारी-भरकम निवेश उनकी कंपनियों में हो रहा है। सारा देश कर्ज में डूब रहा है, लेकिन ये उद्योगपति कर्जमुक्त होने का दावा कर रहे हैं। क्या ये सब भारत को गुलाम बनाने वाली ईस्ट इंडिया कंपनी की याद नहीं दिलाते हैं। राजनीति और व्यापार का सारा खेल आज भी वैसा ही है, लगता है केवल किरदार बदल गए हैं। देश में जीडीपी 23.9 प्रतिशत गिर गई है।
जीडीपी देश के विकास की सही तस्वीर दिखाती है। जैसे बच्चे की मार्कशीट देखकर हम समझ जाते हैं कि उसने परीक्षा में कितनी मेहनत की, वैसे ही जीडीपी देखकर समझा जा सकता है कि शासकों ने देश की तरक्की के लिए कितनी मेहनत की है। इसलिए जीडीपी का घटना या बढ़ना मायने रखता है। लेकिन इस सरकार में शायद तर्कों की कोई बात मायने ही नहीं रखती है। इसलिए वित्तमंत्री इस महामारी को एक्ट ऑफ गॉड बताकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ना चाहती हैं। अगर उन्हें जिम्मेदारियां उठाना ही नहीं हैं, तो फिर वित्तमंत्री की कुर्सी पर वे क्यों बैठी हैं।
कोरोना तो इस साल आया है, लेकिन देश के आर्थिक हालात पहले से बिगड़ रहे हैं। पिछले छह सालों में बेरोजगारी बढ़ी है, महंगाई बढ़ी है और जीडीपी घटी है। इसके लिए कोई भगवान नहीं, सरकार जिम्मेदार है। लाल कपड़े में लपेट कर बजट को बही-खाता बना देने से देश के हालात नहीं बदलते न ही कांग्रेस को कोसने या उसकी आतंरिक कलह पर चर्चा से आर्थिक प्रगति होगी। यह तो तभी हासिल होगी, जब देश में अमीरों के साथ गरीबों को भी आगे बढ़ने के अवसर मिलेंगे। जब हेटस्पीच फैलाने की जगह काम के अवसर बढ़ाने पर ध्यान दिया जाएगा। जब गरीबों की जेब में नकदी होगी, बाजार में मांग बढ़ेगी और इस वजह से उत्पादन बढ़ेगा, तब जाकर विकास का पहिया भी घूमेगा।
अर्थशास्त्र की इन आसान बातों को प्याज न खाने वाले मंत्री और झोला उठा कर चले जाने वाले फकीर प्रधानमंत्री जब समझ जाएंगे, तब जीडीपी भी ऊपर उठने लगेगी।
(देशबंधु)
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