पिछले डेढ़ सालों से बिना पूर्णकालिक अध्यक्ष के चल रही कांग्रेस पार्टी में आज जब नेतृत्व के मसले पर कार्यसमिति की बैठक हुई तो उसमें अंदरूनी कलह और गलतफहमियां देखने को मिलीं। इससे कांग्रेस के समर्पित कार्यकर्ताओं और उसके शुभेच्छुओं को जरूर तकलीफ हुई होगी। दरअसल देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस इस वक्त कई तरह की चुनौतियों का सामना कर रही है। अपने राजनैतिक मूल्यों और परंपराओं को बरकरार रखते हुए अस्तित्व बचाए रखने की चुनौती पार्टी के सामने है ही, इसके अलावा एक सर्वमान्य नेतृत्व की भी पार्टी को सख्त दरकार है, जो सारे भारत के कांग्रेस कार्यकर्ताओं, क्षेत्रीय दिग्गजों और महत्वाकांक्षी बुजुर्ग व युवा नेताओं को साथ ले कर चल सके। जो कांग्रेस के अंतर्कलह को शांत कर एकजुटता कायम करवाए।
फिलहाल इन सारे कामों के लिए कांग्रेसजन गांधी परिवार की ओर ही देखते हैं। सोनिया गांधी पिछले एक साल से कांग्रेस के अंतरिम अध्यक्ष का पद संभाल ही रही थीं। लेकिन अब एक साल का कार्यकाल समाप्त होने के बाद उन्होंने फिर इस महती दायित्व को उठा लिया है। उनके ताजा नेतृत्व में कांग्रेस ने झारखंड और महाराष्ट्र में सरकार बनाई, हरियाणा में अच्छा प्रदर्शन किया, लेकिन सरकार बनाने से चूक गई। मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सत्ता, बगावत की भेंट चढ़ गई, लेकिन राजस्थान में ऐसा ही परिणाम झेलने से कांग्रेस को बचा लिया गया। मध्यप्रदेश और राजस्थान इन दो राज्यों की हालिया घटनाओं ने इस तथ्य को फिर उजागर कर दिया कि क्षेत्रीय नेताओं की महत्वाकांक्षाओं को संभालना आसान नहीं है। इसमें जरा सी चूक सत्ता पर भारी पड़ सकती है। साथ ही यह सबक भी दे दिया कि दिल्ली में बैठकर राज्यों को संभाला नहीं जा सकता। उसके लिए कार्यकर्ताओं और जमीनी स्तर से जुड़े नेताओं का आलाकमान से सहज संवाद जरूरी है, अन्यथा गलतफहमियां बढ़ते देर नहीं लगती। आज की बैठक में संवादहीनता के परिणाम का एक ऐसा ही नजारा देखने मिला।
पिछले कई दिनों से कांग्रेस में अध्यक्ष पद को लेकर अटकलें चल रही थीं। बहुत से कांग्रेस नेताओं ने राहुल गांधी से फिर से अध्यक्ष पद संभालने का आग्रह किया। याद रहे कि बीते आम चुनावों में मिली हार के बाद राहुल गांधी ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था, हालांकि वे मोदी सरकार की नीतियों और फैसलों पर एक सक्रिय विपक्षी सांसद की भूमिका का निर्वाह करते हुए लगातार सवाल उठाते हैं और जनहित, देशहित के मसलों पर सरकार से सवाल पूछते रहते हैं।
राहुल गांधी ने यह बार-बार स्पष्ट किया है कि वे कांग्रेस का अध्यक्ष पद नहीं संभालेंगे। बीते दिनों प्रियंका गांधी ने भी उनका समर्थन करते हुए कहा कि किसी गैर-गांधी को अध्यक्ष की भूमिका में आना चाहिए। अतीत में भी ऐसा हुआ है कि गांधी-नेहरू परिवार से बाहर के लोगों ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद का दायित्व संभाला है, लेकिन तब और अब की परिस्थितियों में बहुत अंतर है। पहले कांग्रेस का जनाधार अन्य दलों की अपेक्षा अधिक था। वह सत्ता में भी लगातार बनी रही और दूर हुई तो कुछ समय के लिए। लेकिन इस वक्त कांग्रेस का मुकाबला भाजपा से है, जो सदस्यता अभियानों और मिस्ड कॉल जैसे प्रयोगों के साथ देश की सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी है।
लगातार छह सालों से सत्ता में है और लोकसभा चुनावों में उसे बाकी दलों से कहीं ज्यादा वोट मिले हैं। देश के कई राज्यों में भाजपा की सत्ता है और जहां नहीं है, वहां किस तरह सत्ता में आना है, इसके लिए लगातार योजनाएं बनाई जाती हैं। लेकिन कांग्रेस में एक ओर सिमटता जनाधार है, दूसरी ओर नेताओं का सिमटता समर्थन भी है। सत्ता और शक्ति के मोह में पिछले छह सालों में कई दिग्गज कांग्रेसियों ने भाजपा की सदस्यता ले ली है। ऐसे कठिन वक्त में कांग्रेस के अध्यक्ष पद का दायित्व संभालना कांटो भरा ताज पहनना है।
हैरानी इस बात की है कि एक ओर बहुत से कांग्रेसी यह चाहते हैं कि यह जिम्मेदारी गांधी परिवार से ही कोई उठाए और दूसरी ओर पार्टी के ही कुछ लोगों का यह भी मानना है कि कांग्रेस को गांधी परिवार से बाहर का नेतृत्व चाहिए। लेकिन इसके लिए किसी एक नाम पर आम सहमति कम से कम अब तक बनती नहीं दिखी है।
आज की बैठक में ऐसे ही किसी नाम पर सहमति बननी थी, जो कांग्रेस का पूर्णकालिक अध्यक्ष बने, लेकिन जब अंदरूनी कलह ने जोर पकड़ा तो आखिरकार फिर सोनिया गांधी को ही कार्यकारी अध्यक्ष की भूमिका में वापस आना पड़ा। दरअसल 7 अगस्त को लिखी एक चिठ्ठी कलह का कारण बनी। इस चिठ्ठी में 23 बड़े नेताओं के हस्ताक्षर हैं। इन कांग्रेसी नेताओं ने चिठ्ठी में पूर्णकालिक और प्रभावी नेतृत्व की मांग की है। इसके साथ भी पार्टी को ‘आत्मावलोकन’ और शक्तियों का विकेंद्रीकरण, राज्य की इकाइयों का सशक्तिकरण और हर स्तर पर संगठनात्मक चुनाव कराने की भी मांग की गई है।
बताया जा रहा है कि राहुल गांधी चिठ्ठी की टाइमिंग पर नाराज हुए, उन्होंने कहा कि जब सोनिया गांधी बीमार थीं तब यह चिठ्ठी लिखी गई। कहा यह भी गया कि राहुल गांधी ने इन नेताओं के भाजपा से मिलीभगत की बात की। इस बात पर कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आजाद जैसे कुछ नेता नाराज हो गए। जहां आजाद ने मिलीभगत साबित होने पर इस्तीफे की पेशकश कर दी, वहीं कपिल सिब्बल ने तो राहुल गांधी को तंज भरा जवाब देते हुए ट्वीट किया कि कैसे राजस्थान और मणिपुर में उन्होंने कांग्रेस के लिए वकालत की और उन पर भाजपा से सांठ-गांठ की बात कही जा रही है। बाद में उन्होंने यह कहते हुए अपना ट्वीट हटा दिया कि राहुल गांधी ने निजी तौर पर उन्हें बताया है कि उन्होंने भाजपा से मिलीभगत की बात नहीं की। यह प्रकरण कांग्रेस की भावी चुनौतियों का एक संकेत है। कपिल सिब्बल यूपीए सरकार में मंत्री रहे, वे एक अरसे से कांग्रेस में हैं।
जो गलतफहमी उन्होंने बाद में राहुल गांधी से बात कर दूर की, क्या वो ये काम पहले नहीं कर सकते थे। सरेआम नाराजगी जाहिर कर उन्होंने भले अपना पक्ष मजबूत बनाया हो, लेकिन कांग्रेस इससे कमजोर ही हुई है। कांग्रेस के नेता, कार्यकर्ता, कार्यकारिणी के सदस्य किस तरह का नेतृत्व चाहते हैं, यह उनका अंदरूनी मसला है और इसे अंदरूनी बैठकों में ही तय होना चाहिए। इसमें मतभेद भी हो सकते हैं।
लेकिन उनका सार्वजनिक तौर पर तमाशा बनाना, किसी न किसी रूप में पार्टी को कमजोर करने की ही कोशिश है। और चाहे-अनचाहे इससे भाजपा को ही लाभ होगा, जो पहले भी कांग्रेस की कमजोर कड़ियों को अपने लिए इस्तेमाल करती आई है।
बहरहाल, बिहार चुनाव के पहले सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कमान एक बार फिर ले ली है, इसका थोड़ा फायदा तो मिलेगा ही।
लेकिन अब सोनिया गांधी और कांग्रेस के तमाम सच्चे सिपाहियों को कांग्रेस से भीतर लग रही दीमक को पहचानना और समय पर उसका इलाज करना जरूरी है। अन्यथा इस तरह आपसी मतभेदों का तमाशा बनता ही रहेगा।
(देशबंधु)
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