लोकप्रिय शायर राहत इंदौरी ने मंगलवार सुबह जब यह जानकारी ट्विटर पर दी कि वे कोरोना संक्रमित हैं तो उनके जल्द सेहतमंद होने की कामना उनके प्रशंसक करने लगे थे, लेकिन शाम होते-होते यह दुखद समाचार आ गया कि राहत साहब इस दुनिया को अलविदा कह चुके हैं। इस खबर ने सबको गमगीन कर दिया, उन्हें भी जो उनकी शायरी के मुरीद थे और उन्हें भी जिन्हें शायरी की समझ हो न हो, लेकिन राहत साहब के होने से यह आश्वस्ति रहती थी कि हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी सभ्यता के पक्ष में खुलकर बोलने और लिखने वाला कोई शख्स आज भी है। मौजूदा दौर में कलाकारों के भी गुट बन गए हैं, अलग-अलग राजनैतिक दलों से बहुत से कलाकारों की प्रतिबद्धताएं हैं, जो उनके कला क्षेत्र में भी झलकने लगती है। लेकिन राहत इंदौरी ने हमेशा हिंदुस्तान की तहजीब के पक्ष में लिखा और इस तहजीब के राजनीतिकरण की जमकर खबर ली।
‘लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में,
यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है।
सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में,
किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है।’
ये लाइनें पढ़ने में जितनी आसान लगती हैं, क्या लिखने में भी उतनी ही आसान रही होंगी। इस सवाल का जवाब तो राहत इंदौरी ही दे सकते थे। लेकिन इन दो लाइनों में उन्होंने हिंदुस्तानियत का सारा फलसफा बयां कर दिया और धर्म, जाति के नाम पर दूसरों को सताने वालों को चेतावनी भी दे दी। इकबाल ने सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा, लिख कर यही बताने की कोशिश की थी कि सभी लोगों को साथ लेकर मिल-जुलकर रहने के कारण ही हिंदोस्तां दुनिया के बाकी देशों से अलहदा है और उसी बात को ठेठ देसी अंदाज में लिखकर राहत इंदौरी ने समझाने की कोशिश की कि किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है, यानी इस पर कोई अपनी मिल्कियत न समझे, ये सबका है, सब इसके हैं। उनकी ये पंक्तियां एनआरसी और सीएए विरोधी आंदोलनों का प्रतीक बन गई थीं और न जाने कितने बार, कितने लोगों ने इन्हें हाल-फिलहाल में उद्धृत किया। यही राहत इंदौरी की शायरी की खूबी थी कि वे बड़ी से बड़ी बात को सहजता से व्यक्त कर देते थे।
बशीर बद्र, निदा फाजली, अदम गोंडवी, मुनव्वर राणा जैसे शायरों की तरह उनकी शायरी आम आदमी की जुबां पर चढ़ गई। वे जितनी सहजता से लिखते थे, उतनी ही खूबसूरती से मंच पर अपनी शायरी को आवाज देते थे। उनके कहने का तरीका भी लोगों को बेहद पसंद आता था। समकालीन राजनीति की हलचलों पर उनकी पैनी नजर थी और गलत को गलत कहने का साहसी जज्बा उनमें कूट-कूट कर था। इसी साल जनवरी में हैदराबाद में सीएए-एनआरसी के खिलाफ आयोजित मुशायरे में उन्होंने कहा था कि-
‘साथ चलना है तो तलवार उठा मेरी तरह,
मुझसे बुजदिल की हिमायत नहीं होने वाली।’
यह एक संदेश था उन लोगों के लिए जो सोशल मीडिया पर ही सारी क्रांति कर देते हैं और चाहते हैं कि उनके हक के लिए कोई और आवाज उठाए। अभी देश राम मंदिर के भूमिपूजन की खुशियां मना रहा है। बहुत से लोग यह समझाने की कोशिश भी कर रहे हैं कि इससे हिंदू-मुस्लिम एकता बढ़ेगी, लेकिन मस्जिद गिराने के दोषी अब भी सजा से बचे हुए हैं और यह एक कड़वी सच्चाई है कि एक ऐतिहासिक धरोहर धर्म की राजनीति की भेंट चढ़ गई। इस दुख को राहत इंदौरी ने कुछ इस तरह बयां किया था कि-
टूट रही है, हर दिन मुझमें एक मस्जिद,
इस बस्ती में रोज दिसंबर आता है।
राष्ट्रवाद और देश की रक्षा के नाम पर सियासी फायदा कैसे लिया जाता है, इसका सटीक विश्लेषण उन्होंने इन पंक्तियों में किया था-
‘सरहद पर तनाव है क्या? / जरा पता तो करो चुनाव है क्या?’
कोई आश्चर्य नहीं अगर हुक्मरान ऐसे अशआर सुनकर तिलमिला न जाते हों। चुनाव के वक्त सर्जिकल स्ट्राइक और पाकिस्तान का नाम लेने का जो चलन पड़ गया है, वे इसी बात का तो प्रमाण हैं। केवल राजनैतिक ही नहीं समसामयिक तमाम तरह के हालात राहत इंदौरी की शायरी का विषय बने। बेरोजगारी की समस्या पर बड़ी खूबसूरती से उन्होंने नौजवानों की उदासी और पीड़ा को व्यक्त किया-
कालेज के सब बच्चे चुप हैं, कागज की एक नाव लिए,
चारों तरफ दरिया की सूरत फैली हुई बेकारी है।
इसी तरह बढ़ते प्रदूषण पर उन्होंने लिखा-
शहर क्या देखें कि हर मंजर में जाले पड़ गए,
ऐसी गर्मी है कि पीले फूल काले पड़ गए।
राहत इंदौरी जितनी खूबसूरती से शायरी में रंग भरते थे, उसी तरह रेखाओं को आवाज देते थे। वे एक बेहतरीन चित्रकार थे और उनके बनाए साइनबोर्ड, पोस्टर भी जनता खूब पसंद करती थी। राहत इंदौरी ने उर्दू अध्यापन को आजीविका के लिए चुना था, लेकिन इससे पहले वे मुफलिसी के दिनों में चित्रकारी से रोजगार कमाते थे। बाद में वे मंच के शायर के रूप में देश-विदेश में प्रसिद्ध हुए और उन्होंने मुन्ना भाई एमबीबीएस, सर, खुद्दार, मर्डर, मिशन कश्मीर, करीब, तमन्ना और बेगम जान जैसी कई फिल्मों के गीत भी लिखे। एम बोले तो मास्टर में मास्टर से लेकर बूम्बरो बूम्बरो श्याम रंग बूम्बरो जैसे गीतों में उनके हुनर की विविधता झलकती है।
एक ही नदी के हैं ये दो किनारे दोस्तो, दोस्ताना जिंदगी से मौत से यारी रखो, जैसी सीख देने वाले राहत इंदौरी ने कोरोना की खबर भी खूब ली थी कि-
शाखों से टूट जाए, वो पत्ते नहीं हैं हम,
कोरोना से कोई कह दे कि औकात में रहे।
कोरोना ने भले उन्हें मौत का तोहफा दिया, लेकिन राहत इंदौरी ने यह लिखकर पहले ही अपनी जीत निश्चित कर ली थी कि-
‘मैं जब मर जाऊं, मेरी अलग पहचान लिख देना,
लहू से मेरी पेशानी पे हिंदुस्तान लिख देना।’
ऐसे हिंदुस्तानी को सच्ची श्रद्धांजलि तभी मिलेगी, जब उनके दिए संदेशों को जमाना सुनेगा और समझेगा।
(देशबंधु)
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