देश में इस वक्त राम मंदिर के भूमि पूजन का शोर है। अयोध्या में 5 अगस्त के इस मेगा इवेंट की सारी तैयारियां हो चुकी हैं और वहां से पल-पल की खबरें टीवी चैनल दर्शकों तक पहुंचा रहे हैं। कुछ चैनल ये भी बता रहे हैं कि श्रीराम के आने से अब कैसे सारे दुख-दर्द दूर होने वाले हैं। 5 अगस्त के बाद अयोध्या में मंदिर निर्माण की खबरें अब शायद टीवी चैनलों का स्थायी फीचर हो जाए। वैसे इस वक्त राम मंदिर भूमिपूजन की चर्चा नहीं होती तो शायद जम्मू-कश्मीर को खबरों में थोड़ा स्थान मिल जाता।
पिछले साल इसी वक्त जब अचानक अमरनाथ यात्रा रोक दी गई थी। पर्यटकों को लौटने कहा गया था। लोगों से तेल, राशन आदि का इंतजाम करने कहा गया था। तब ही अंदेशा हो गया था कि सरकार जम्मू-कश्मीर पर कोई बड़ा फैसला लेने वाली है।
370 खत्म करना, भाजपा के घोषणापत्र का वादा रहता आया है, लेकिन फिर भी यह अनुमान एकदम से नहीं लग पाया था कि मोदी-शाह की जोड़ी ऐसा कोई बड़ा कदम उठाने जा रही है। मगर न केवल जम्मू-कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा लिया गया, बल्कि उसे जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को दो हिस्सों में बांट दिया गया। अमूमन केंद्र शासित प्रदेशों का दर्जा बढ़ाते हुए उन्हें पूर्ण राज्य बनाया जाता है, लेकिन यहां राजनीति नीचे की ओर कदम बढ़ाती गई और जम्मू-कश्मीर से पूर्ण राज्य का दर्जा वापस लेते हुए उसे दो हिस्सों में बांटकर केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया। जम्मू-कश्मीर से केवल विशेषाधिकार ही खत्म नहीं हुई, बल्कि साल भर से तो ऐसा लग रहा है मानो वहां नागरिक अधिकार ही खत्म हो गए। एक अरसे तक कर्फ्यू लगा रहा।
स्कूल-कालेज बंद रहे, पर्यटन तो खत्म हुआ ही, फल से लेकर हस्तशिल्प तक कई कारोबार ठप्प हो गए। नागरिकों की आवाजाही पर पहरा लग गया और एनएसए अजीत डोभाल के बीच सड़क पर बिरयानी खाने के बाद भी आम कश्मीरी खुद को आजाद महसूस नहीं कर पाया। मीडिया खासकर प्रिंट मीडिया भी सरकारी फैसले का बंधक हो गया। इंटरनेट और आवाजाही न होने के कारण खबरों को पहुंचाना और खबरें लेना, दोनों ही नामुमकिन हो गए। जो मीडिया आजादी महसूस कर रहा था, वही बता पा रहा था कि सरकार के फैसले से आम जनता कितनी खुश है और अब यही मीडिया बता रहा है कि एक साल में जम्मू-कश्मीर में कितनी तरक्की हो गई।
हालांकि इस एक साल में वहां लोकतंत्र ने कितनी तरक्की की, इस बारे में सरकार समर्थक मीडिया कुछ नहीं कहेगा। अनुच्छेद 370 हटाने से पहले ही मोदी सरकार ने कश्मीर के कई नेताओं को नजरबंद किया था या हिरासत में लिया था। पीएसए के तहत गिरफ्तार लगभग 3 सौ लोग अब आजाद हो चुके हैं लेकिन 144 अब भी नजरबंद हैं। नेशनल कांफ्रेंस के फारुख अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला तो आजाद हो गए हैं, लेकिन पीडीपी की मुखिया और भाजपा की सहयोगी रहीं महबूबा मुफ्ती की नजरबंदी की अवधि तीन महीने के लिए और बढ़ा दी गई है। इस मियाद के खत्म होने पर महबूबा एक साल तीन महीने की कैद गुजार चुकी होंगी। न जाने सरकार को उनसे किस तरह का खतरा नजर आता है, कि उन्हें आजाद करने का जोखिम वह नहीं उठा रही।
लोकतंत्र की रक्षा, संवैधानिक मूल्यों को बचाना और आतंकवाद खत्म करना, अक्सर इसी तरह के बहाने सरकार अपने फैसले के पीछे देती है। लेकिन जम्मू-कश्मीर में न आतंकवाद खत्म हुआ है, न लोकतंत्र ही बचा है। कुछ दिनों पहले ही भाजपा के नेता और उनके पिता व भाई की हत्या कर दी गई। इसके अलावा भी छिटपुट आतंकी घटनाएं हो ही जाती हैं। और लोकतंत्र तो नेताओं की हिरासत के साथ ही कैद हो गया है।
मार्च 2015 में जम्मू-कश्मीर में जब विपरीत विचारधारा की बीजेपी और पीडीपी ने मिलकर सरकार बनाई तो इसे लोकतंत्र में एक नए प्रयोग के तौर पर देखा गया। जून 2018 में ये गठबंधन टूटा और राज्य एक बार फिर गवर्नर के शासन में चला गया। दिसंबर 2018 में यहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था, इधर जम्मू-कश्मीर में चुनाव कराने और नई सरकार के गठन की मांग उठ रही थी और उधर दिल्ली में जन्नत के टुकड़े करने की पटकथा लिखी जा रही थी। अब जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के केंद्र शासित प्रदेशों को दिल्ली से नियुक्त किए अधिकारी चला रहे हैं और उन नेताओं की जनता तक पहुंच के सारे रास्ते बंद हो गए हैं, जिन पर लोकतंत्र चला करता था। बेशक इस रास्ते में कई पत्थर, कई रोड़े थे, नेताओं की अलग विचारधाराएं थीं, लेकिन फिर भी ये जनता की आवाज हुआ करते थे।
गौरतलब है कि बीते 73 साल में कश्मीर की राजनीति दो विचारधाराओं में बंटी थी, एक ओर अलगाववादी थे और दूसरी तर$फ भारत का समर्थन करने वाले लोग, लेकिन अब अलगाववादियों और मुख्यधारा की राजनीति करने वालों में कोई अंतर नहीं रह गया है। ऐसे में कश्मीर में फिर से राजनीतिक प्रक्रिया का शुरु होना बहुत आसान नहीं होगा। जब तक नेता आजाद होकर फिर से जनता के बीच न पहुंचने लगें और उसकी आवाज को मुखर करने लगें, तब तक लोकतंत्र हाशिए पर ही पड़ा रहेगा।
भारत की राजनीति में अलोकतांत्रिकता के ऐसे उदाहरण क्या असर डालेंगे, इस बारे में गंभीरता से सोचने की जरूरत है। फिलहाल सोचने-विचारने से लेकर आवाज उठाने का जिम्मा उन लोगों पर है, जो विरोध के परिणाम सहने तैयार हैं। बाकी राम-नाम की धुन में मगन रहने वालों को इतनी फुर्सत कहां कि वे लोकतंत्र के बारे में सोचें, जनता के बारे में सोचें, नागरिक अधिकारों के बारे में सोचें। अब तो रामजी ही बेड़ा पार लगाएंगे।
(देशबंधु)
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