पाकिस्तान के शहर लाहौर में गुरुद्वारा शहीदी स्थान को मस्जिद में तब्दील करने की खबरों से विवाद खड़ा हो गया है। भारत सरकार ने इसे लेकर अपनी चिंता पाकिस्तान के उच्च आयोग के समक्ष दर्ज कर दी है। इसे सिख अल्पसंख्यकों के हितों पर कुठाराघात माना जा रहा है। विदेश मंत्रालय ने एक वक्तव्य में कहा है कि गुरुद्वारा शहीदी अस्थान एक ‘ऐतिहासिक गुरुद्वारा’ है, सिखों के लिए ‘श्रद्धा का एक स्थल है’ और इसे मस्जिद घोषित किए जाने की मांग को लेकर भारत में गंभीर चिंता है।
पाकिस्तान में ‘अल्पसंख्यक सिख समुदाय के लिए न्याय’ की मांग करते हुए, मंत्रालय ने भारत में पाकिस्तान के उच्च आयोग से मांग की है कि मामले की जांच की जाए और ‘उपचारात्मक कदम’ उठाए जाएं। वहीं पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने भी इस विषय पर चिंता जाहिर कर गुरुद्वारे को मस्जिद घोषित करने की मांग की निंदा की है और विदेश मंत्री एस जयशंकर से अपील की है कि वो पंजाब के लोगों की चिंताएं पाकिस्तानी अधिकारियों के सामने मजबूत ढंग से रखें।
गौरतलब है कि लाहौर के नौलखा बाजार स्थित गुरुद्वारा शहीदी अस्थान को सिख शहीद भाई तारु सिंह की शहादत का स्थान माना जाता है। तारु सिंह 18वीं सदी में लाहौर में रहने वाले एक सिख थे और माना जाता है कि उन्होंने सिख मूल्यों की रक्षा के लिए अपनी जान दे दी थी। जहां उनकी मृत्यु हुई थी, वहीं पर उनकी याद में बाद में एक गुरुद्वारा बनाया गया जिसे शहीदी अस्थान के नाम से जाना जाता है। इस गुरुद्वारे को लेकर लंबे समय से विवाद है। कई मुस्लिम मानते हैं कि वहां स्थित एक पुरानी मस्जिद अब्दुल्ला खान मस्जिद को जबरन गुरुद्वारे में बदल दिया गया था, जब कि कई सिख इस बात से इंकार करते हैं। अब इस गुरुद्वारे को वापस मस्जिद में तब्दील किए जाने की खबरों से लगता है मानो इतिहास अपने आप को दोहरा रहा है। देश और वक्त अलग है, लेकिन धर्म के वर्चस्व का जुनून एक जैसा ही है।
हाल ही में तुर्की में ऐतिहासिक हागिया सोफिया को म्यूजियम से फिर मस्जिद बनाया गया और पिछले शुक्रवार वहां नमाज पढ़कर धर्मनिरपेक्षता को ताक पर रखते हुए कट्टरपंथ की दिशा में कदम आगे बढ़ा दिए गए। ऐसा ही कुछ जल्द ही धर्मनिरपेक्ष भारत में देखने मिलेगा। अयोध्या में राममंदिर के भूमिपूजन की तैयारियां शुरु हो गई हैं। देश भर की नदियों का पवित्र जल और मिट्टी मंदिर के लिए पहुंच रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी तो इस आयोजन का खास आकर्षण होंगे ही, बड़े उद्योगपति भी इसमें शामिल हो सकते हैं। भगवान को रत्न जड़ित वस्त्र पहनाए जाएंगे।
सरयू नदी के किनारे अभी से दिए जलाकर खुशियां मनाने की शुरुआत हो गई है। मंदिर की नींव में टाइम कैप्सूल डाला जाएगा, ताकि भविष्य में कोई विवाद हो तो पता चल जाए कि यहां मंदिर ही था। कितनी अजीब बात है कि मंदिर को लेकर कोई विवाद न हो, इसकी तैयारी अभी से की जा रही है, लेकिन धर्म को लेकर ही कोई विवाद न हो, ऐसी कोई पहल राजनीति में नहीं दिख रही। न देश में, न दुनिया में।
पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के हितों के लिए भारत सरकार हमेशा ही चिंता करती आई है। जबकि अपने देश में अल्पसंख्यक कितना सुरक्षित महसूस कर रहे हैं, इसकी फिक्र उसके कामों में, फैसलों में नजर नहीं आती। पाकिस्तान में गुरुद्वारे को मस्जिद बनाने के फैसले को कट्टरपंथी करार दिया जा रहा है। यूं भी पाकिस्तान को कट्टरपंथी देश ही दुनिया मानती है और इसके लिए वहां के शासक जिम्मेदार हैं। आजादी के बाद भारत और पाकिस्तान दोनों के हालात एक जैसे ही थे, लेकिन पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरता राजनीति पर हावी रही और कट्टरपंथियों ने इसका भरपूर लाभ उठाया।
देश में लोकतंत्र के पैर मजबूत ही नहीं होने दिए। पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना वृहद सोच रखने वाले, धार्मिक कट्टरता से दूर रहने वाले व्यक्ति थे। बंटवारे के दो दिन पहले जिन्ना ने मूलभूत अधिकारों के लिए कमेटी का गठन किया था। इसके छह सदस्य हिंदू थे। उनके लिए समानता राज्य का मूल सिद्धांत था। जिन्ना ने अपने कई भाषणों में नागरिक वर्चस्व, लोकतंत्र और अल्पसंख्यकों के समान अधिकार के महत्व का जिक्र किया था। उनका कहना था कि इस्लाम के सिद्धांत समानता पर आधारित हैं।
लेकिन उनकी व्यक्तिगत सोच उनकी राजनीति में नहीं दिखी। इसलिए पाकिस्तान के गठन के कुछ समय बाद ही धार्मिककट्टरता को पनपने के लिए खाद-पानी मिलने लगा, जिससे वहां सैन्य तानाशाही का रास्ता भी खुला और इन सबका खामियाजा वहां की जनता ने भुगता। जबकि भारत ने आजादी के बाद सांप्रदायिक तनाव के बावजूद अपनी धार्मिक, भाषायी विविधता को बरकरार रखा। गांधी, नेहरू, पटेल, आजाद और अंबेडकर जैसे नेताओं ने बहुलतावादी संस्कृति और परपंरा को संविधान में मान दिलाया और धर्मनिरपेक्षता की राह पर चलना स्वीकार किया। इस उदार लोकतंत्र के कारण ही हम दुनिया में अलग मुकाम कायम कर सके और खासकर दक्षिण पूर्वी एशिया में हम बाकी देशों से अलग बने रहे।
अभी जनवरी में गणतंत्र दिवस के पहले रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने एक भाषण में कहा था कि भारतीय मूल्यों में सभी धर्मों को बराबर जगह है और यही वजह है कि हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है। उन्होंने कहा कि भारत पाकिस्तान की तरह थियोक्रैटिक (मजहबी) देश कभी नहीं बना। हमारे भारतीय मूल्य कहते हैं कि सभी धर्म बराबर हैं। इसलिए भारत ने खुद को कभी भी मजहबी देश घोषित नहीं किया। लेकिन अभी जिस तरह की राजनीति चल रही है, उससे क्या यही अहसास नहीं होता कि भारत भी कट्टरपंथ की राह पर चल पड़ा है।
अदालत के एक फैसले के बाद अगर राम मंदिर बनाने की राह साफ हो गई और बाबरी मस्जिद के दोषियों को अब तक सजा नहीं मिली है, तो क्या सरकार को मंदिर निर्माण में जुड़ना चाहिए। क्या दूरदर्शन को इस भूमिपूजन का लाइव प्रसारण करना चाहिए। जबकि प्रसार भारती एक्ट की धारा 12 2(ए) में स्पष्ट कहा गया है कि इसका उद्देश्य देश की एकता और अखंडता तथा संवैधानिक मूल्यों को मजबूती प्रदान करना है। पाकिस्तान की जिस धार्मिक कट्टरता की हम आलोचना करते आए हैं, क्या हम खुद उसी राह पर नहीं चल पड़े हैं। धर्म को राजनीति का आधार बनाने का खामियाजा पाकिस्तान की पीढ़ियां भुगत रही हैं और वहां अब भी कोई सबक राजनेता नहीं ले रहे हैं। क्या भारत भी अपनी भावी संतानों को बहुलतावाद से वंचित रखकर कट्टरपंथ की विरासत सौंपना चाहता है।
(देशबंधु)
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