-विवेक श्रीवास्तव||
देश को कांग्रेस मुक्त करने की भाजपा की कोशिशें भले ही परवान नहीं चढ़ पाईं लेकिन सिंधिया राजघराने का महल ज़रूर कांग्रेस मुक्त हो गया है। और इसका असर मध्य प्रदेश की राजनीति में साफ तौर पर देखा जा रहा है। एक समय था जब मध्यप्रदेश की तत्कालीन मोतीलाल वोरा की सरकार महल से चला करती थी। समय बदला और हालात भी, अब महल पूरी तरह भाजपामय है। पूरी तरह इसलिए क्योंकि ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी स्वर्गीय विजयाराजे सिंधिया के जीवित रहने तक रानी महल भाजपा के दबदबे में था। मध्यप्रदेश में कमलनाथ सरकार गिराने के बाद भाजपा ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को जिस तरह सिर पर बैठाया वही सिंधिया अब भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं। शिवराज मंत्रिमंडल के विस्तार के बाद जिस तरह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को भोपाल से दिल्ली और दिल्ली से भोपाल के चक्कर काटने पड़े, उससे सिंधिया यह तो जताने में कामयाब रहे कि बड़े नेता हैं लेकिन उनकी यही अति महत्वाकांक्षा और ज़िद अब भाजपा को भारी पड़ रही है।
विभागों के आवंटन में जिस तरह सिंधिया की चली उससे तो यही लग रहा था कि देर सबेर सिंधिया ही शिवराज सिंह चौहान का विकल्प होंगे। अपने समर्थकों को मनमाने विभाग दिलाने और पसंदीदा अफसरों की पोस्टिंग कराने में सिंधिया की उतावली ने भाजपा के बड़े नेताओं के कान खड़े कर दिए। सूत्र बताते हैं कि मंत्रियों को विभागों की खींचतान के दौरान केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने सिंधिया को सलाह दी थी कि वे धैर्य रखें सब कुछ उनके अनुसार ही होगा लेकिन सिंधिया ने भाजपा नेताओं की इस नसीहत को गंभीरता से नहीं लिया और अपनी ही ज़िद पर अड़े रहे। भाजपा की मुश्किल यह है कि उसे अब उपचुनाव तक सिंधिया को झेलना ही होगा। इन हालात को देखते हुए उसने अपने प्लान बी पर भी काम शुरू कर दिया है। हाल के दिनों में कांग्रेस के तीन विधायकों को तोड़कर भाजपा में लाने की पार्टी की कवायद इसी प्लान बी का हिस्सा है। इससे कांग्रेस कमजोर होगी और मूल भाजपा (सिंधिया और उनके समर्थकों को छोड़कर) को मजबूती मिलेगी। हालिया तोड़फोड़ का ही नतीजा है कि प्रदेश में कांग्रेस के विधायकों की संख्या घटकर 90 पर सिमट आई है। सिंधिया को किनारे लगाने के लिए जिस तरह भाजपा कांग्रेस के विधायकों की तोड़फोड़ में जुटी है, माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में कुछ और कांग्रेस के विधायक भाजपा के साथ खड़े दिख सकते हैं। कांग्रेस के कद्दावर नेता और दिग्विजय सिंह के करीबी पिछोर से विधायक केपी सिंह की भाजपा नेताओं से हाल ही में हुई मुलाकात भी चर्चाओं में है।
सोमवार को राजधानी भोपाल में आए मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा यह साफ कर गए कि मध्य प्रदेश में उपचुनाव तय समय पर ही होंगे। उपचुनाव में बाजी किसके हाथ आएगी यह तो समय बताएगा लेकिन भाजपा ने उप चुनाव से पहले अपना संख्या बल बढ़ाने की दिशा में कसरत शुरू कर दी है।भाजपा के परिवार का हिस्सा बने सिंधिया की पार्टी में खूब चल रही है। इसका ताजा उदाहरण एक वायरल हुए वीडियो में लिफाफे समेटते दिखने वाले वरिष्ठ आईपीएस वी मधु कुमार का तबादला है। इस घटना के बाद आनन फानन उन्हें परिवहन आयुक्त के पद से हटाकर पुलिस मुख्यालय में भेज दिया गया। वी मधु कुमार की जगह मुकेश जैन को लाया गया है। मुकेश जैन सिंधिया की पसंद हैं। प्रदेश के मलाईदार परिवहन विभाग के मंत्री गोविंद राजपूत सिंधिया के ही ख़ास हैं।
सिंधिया समर्थक शिवराज सरकार की ताकत तो बने लेकिन यह भाजपा से ज़्यादा सिंधिया के प्रति वफादार हैं। यह वफादारी सार्वजनिक तौर पर भी देखी जा रही है ऐसे में भाजपा की छवि पर भी असर पड़ रहा है। प्रदेश में अब 26 सीटों पर उपचुनाव होना है और सिंधिया और भाजपा के बीच हुए मोल भाव में यह भी तय हो चुका है कि सिंधिया के साथ आए उनके समर्थकों को भाजपा टिकट देगी। सिंधिया की पार्टी में अहमियत का पता उपचुनाव के नतीजों के बाद ही पता चलेगा। वैसे उपचुनाव सिंधिया के लिए भी कड़ी चुनौती हैं क्योंकि शीर्ष स्तर पर तो भाजपा ने सिंधिया को स्वीकार कर लिया है लेकिन पार्टी का कार्यकर्ता सिंधिया और उनके समर्थकों को पचा नहीं पा रहा है। बदली हुई परिस्थितियों में भाजपा में सबसे ज्यादा नाराज़ वे नेता हैं जो उपचुनाव की सीटों के लिए दावेदार थे और उन्हें सिंधिया और उनके समर्थकों की ख़ातिर अपनी दावेदारी कुर्बान करनी पड़ रही है। ऐसे में ऐसे में सिंधिया समर्थकों को दोहरी चुनौती का सामना करना होगा। सिंधिया समर्थकों के लिए कांग्रेस तो मैदान में होगी ही, पीठ पर छुरा घोंपने वाले भाजपा नेता भी होंगे। 26 सीटों के लिए होने वाले उपचुनाव कांग्रेस और भाजपा दोनों के ही भविष्य को तय करेंगे और यह उपचुनाव भाजपा में सिंधिया की वज़नदारी को भी तय करेंगे कि उनके कितने समर्थक जीत कर आते हैं।
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