कोरोना से लड़ाई में भारत बुरी तरह मात खा चुका है, इसका ताजा प्रमाण ये है कि अब देश में मामले इकाई-दहाई में नहीं बल्कि हजारों में बढ़ने लगे हैं। मार्च के अंतिम सप्ताह में लॉकडाउन लगाकर सरकार ने यह भरोसा दिलाया था कि कुछ दिनों का कष्ट सह लें तो इस बीमारी को मात दी जा सकेगी। कोरोना चेन को तोड़ने के लिए सरकार को यही उपाय सूझा कि लोगों को उनके घरों में बंद रहने किया जाए। हिंदुस्तान की संपन्न जनता ने ऐसा ही किया और जो विपन्न थे, जिनके पास न रोजगार बचा, न मकान, वे लाचारी में पैदल अपने घरों की ओर निकल पड़े। इस तरह का क्रूर विस्थापन किसी भी संवेदनशील सरकार और समाज को अरसे तक झकझोर सकता है।
लेकिन शायद हिंदुस्तान में अब संवेदनाएं धर्म और धन की ताकत के नीचे दम तोड़ चुकी हैं। इसलिए दो-तीन महीनों पुरानी उन घटनाओं पर अब कहीं कोई चर्चा नहीं होती। विमर्श का मुद्दा बिहार चुनाव से लेकर लद्दाख मामला और फिलहाल राजस्थान में किसकी सरकार बनेगी, पर शिफ्ट हो गया है। बीते चार-पांच महीनों में बेरोजगारी करोड़ों लोगों के जीवन को मुश्किल में डाल चुकी है, कई उद्योग-धंधे बुरी तरह चौपट हो गए हैं, महंगाई ने दाल-रोटी का जुगाड़ भी कठिन कर दिया है, लेकिन आम आदमी के साथ तो विडंबना यह है कि वो अपना कष्ट अब खुलेआम सड़कों पर जाहिर भी नहीं कर सकता। गरीबों, मजदूरों, किसानों के लिए जीवन हमेशा से कठिन रहा। लेकिन उनके पास सड़क पर उतर कर जुलूस निकालने, अपनी पीड़ा को आवाज देने, अपने हक के लिए आंदोलन करने की आजादी तो थी, कोरोना काल में सरकारों के एकछत्र दबदबे ने वह आजादी भी छीन ली। सुखी-संपन्न, सेल्फ क्वांरटीन यानी स्वैच्छिक एकांतवास में समय बिता रहे लोग वेबिनार में व्यस्त हैं।
कहीं साहित्य की गोष्ठियां हो रही हैं, कहीं नई-नई व्यंजन विधियां सिखाई जा रही हैं, वर्चुअल बैठकें हो रही हैं और शिक्षा का भार भी डिजीटल भारत के हिस्से आ गया है। जो इंटरनेट, स्मार्टफोन, कम्प्यूटर इन सबका इंतजाम कर ले, उसके हिस्से शिक्षा का अधिकार आएगा, बाकी बच्चों की शिक्षा किस तरह, किन हालात में पूरी होगी, इस पर सरकार की ओर से कोई गंभीर चर्चा हो ही नहीं रही। नयी पीढ़ी शिक्षित होती, सही मायनों में अधिकारों की परिभाषा समझती, समाज की विडंबनाओं से परिचित होती, तो उसके सरोकार का दायरा व्यापक होता। अपने अलावा दूसरे की चिंता करने वाला समाज बनता।
लेकिन कोरोना के बहाने जिस तरह की नयी व्यवस्थाएं देश में हावी हो रही हैं, उनमें समाज और व्यक्ति को पहले से अधिक आत्मकेंद्रित होने के मौके मिल रहे हैं। सरकारें कोरोना की आड़ में मनमर्जी का शासन कर रही हैं, पुलिसतंत्र लोगों की रक्षा से ज्यादा कानून का खौफ फैलाने में लगा है, बुद्धिजीवियों और विचारकों का समय घर में बंद होकर प्रवचन देने में लगा है, मीडिया का बड़ा तबका सरकार के एजेंडे को प्राइम टाइम में सेट करने में लगा है और इन सबके बीच देश में लॉकडाउन से लेकर अनलॉक की प्रक्रिया के बीच आम आदमी का जीवन पहले से कहीं अधिक दूभर हो गया।
कोरोना से बचाव का सारा जिम्मा अब आम आदमी के कंधे पर ही आ गया है, क्योंकि सरकार ने बिना कुछ कहे अपनी जिम्मेदारी से हाथ पीछे खींच लिए। पहले 50-60 मामले भी हुए तो देश में खूब शोर मचा और अब 10 लाख से अधिक मामले हो गए हैं, तो सरकार की ओर से अजीब सी चुप्पी ओढ़ ली गई है। कोरोना मरीजों के आंकड़े छिपाने की खबरें भी आ रही हैं। फिलहाल महाराष्ट्र में सबसे अधिक मामले बताए जा रहे हैं, लेकिन बिहार में इस वक्त जो हालात बने हैं, उसमें सवाल उठ रहे हैं कि क्या नीतीश सरकार सही आंकड़े बता रही है। इस राज्य में 30 लाख से अधिक प्रवासी मजदूर दिल्ली, मुंबई, और अन्य शहरों से लौट कर गए। लेकिन उनमें से कितनों की जांच हुई, कितनों की स्वास्थ्य निगरानी हुई, इस बारे में कोई ठीक-ठीक आंकड़ा नहीं है। भाजपा और जदयू यहां चुनावी तैयारियों में लगे हैं। पोस्टर जारी किए जा रहे हैं। वर्चुअल रैलियां हो रही हैं।
मानो इनके लिए सत्ता में लौट कर आना ही एकमात्र उद्देश्य है और आम आदमी की मुसीबत से इन्हें कोई सरोकार ही नहीं है। विपक्षी दलों ने निर्वाचन आयोग से मांग की है कि फिलहाल चुनाव न कराया जाए, निर्वाचन आयोग ने फिलहाल तारीखें तय करने के लिए राजनैतिक दलों से सुझाव मांगे हैं, मगर वह किस विवेक से फैसला लेता है, यह भी देखना बाकी है। इधर खबर है कि कोरोना से इलाज में कारगर माने जाने वाले प्लाज्मा की भी कालाबाजारी शुरु हो गई है।
प्लाज्मा लेने वालों की संख्या अधिक है, जबकि देने वालों की कम। इसके अलावा बहुत से लोग ऊंची कीमतों पर प्लाज्मा खरीदने मजबूर हो रहे हैं। एक यूनिट (525 एमएल) प्लाज़्मा के लिए पच्चीस से तीस हजार रुपयों तक की मांग हो रही है। कई जगहों पर इस लेन-देन के लिए डार्क-वेब का सहारा लिए जाने की भी चर्चा है। महाराष्ट्र के गृह मंत्री अनिल देशमुख ने पिछले दिनों जनता को आगाह किया कि कुछ लोग प्लाज़्मा के नाम पर धोखाधड़ी कर रहे हैं और कई लोगों से इसके लिए ऊंची कीमत वसूली गई है।
कर्नाटक में तो सरकार ने घोषणा की कि प्लाज़्मा डोनर्स को पांच हजार रुपए की प्रोत्साहन राशि दी जाएगी। आपको बता दें कि प्लाज़्मा थेरेपी में किसी वैसे ही व्यक्ति के ख़ून के इस हिस्से को बीमार के शरीर में चढ़ाने के लिया जा सकता है जो कोविड-19 से पीड़ित होने के बाद ठीक हो गया हो। इलाज के इस तरीके को ‘कन्वैलेसेंट प्लाज़्मा थेरेपी’ कहते हैं। कोविड-19 के पहले इसका इस्तेमाल सार्स, मर्स और एच1एन1 जैसी महामारियों में भी किया गया था। इधर रेमडेसीवर जैसी दवाइयों के तीन-चार गुने दामों में बेचने की खबरें आती रही हैं।
प्राइवेट अस्पतालों में कोविड-19 के इलाज के लिए भारी दामों की वसूली की खबरों के बाद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने इसको लेकर रेट-लिस्ट जारी की लेकिन कहा जा रहा है कि वो पूरी तरह से रुक नहीं पाया है। कई स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि अगर लैब, ब्लड बैंक, जरूरी दवाओं की उपलब्धता वगैरह और सभी बड़े अस्पतालों में कोविड-19 के इलाज पर ध्यान दिया जाता तो इस तरह के हालात तैयार नहीं होते। लेकिन जिन लोगों पर ध्यान देने की जिम्मेदारी है, वे अभी न्यू इंडिया गढ़ने में व्यस्त हैं।
(देशबंधु)