-सौरभ बाजपेयी।।
कई प्रभाव अक्सर अनजाने और अनायास आते हैं. उत्तर प्रदेश कांग्रेस के ऊपर धुर कम्युनिज्म का यह प्रभाव भी संभवतः अनजाना और अनायास है. अनजाना इसलिए कि शायद इसकी प्रामाणिक ख़बर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व तक पहुँचने नहीं दी जाती है. या फिर पहुँचने पर उसकी भ्रामक व्याख्या कर दी जाती है.
अनायास इसलिए कि भले ही ऐसा करना किसी का सायास उद्देश्य न हो, लेकिन बेहद यांत्रिक तरीके से यह होता चला जा रहा है. हो सकता है कि उत्तर प्रदेश कांग्रेस में यह हस्तक्षेप एक सुषुप्त संगठन में फ़ौरी तौर पर कुछ हरकत पैदा करे, आख़िरकार यह आत्मघाती सिद्ध होगा. जिस संगठन को लम्बे समय तक पोषण और उपचार की जरूरत है, स्टेरॉयड देकर उसके शरीर को कृत्रिम रूप से फुलाना ख़तरे से ख़ाली नहीं है.



कम्युनिस्ट पार्टियों से कांग्रेस में आये तमाम युवाओं का स्वागत करना चाहिए. लेकिन कांग्रेस सौरमंडल (पिछली पोस्ट में वर्णित) में उन्हें एक ‘निश्चित समय’ तक किसी पेरिफ़ेरी (परिधि) पर ही रखना चाहिए था. यह ‘निश्चित समय’ दरअसल एक मेटामॉर्फ़ोसिस या कायापलट की प्रक्रिया है जिसमें कोई भी नए संगठन की ज़रूरत के हिसाब से ख़ुद की कंडीशनिंग करता है.
जिन लोगों को कम्युनिस्ट पार्टियों के डेमोक्रेटिक सेंट्रलिज्म का अंदाज़ा है, वो जानते हैं कि इसने ख़ुद कम्युनिस्ट पार्टियों का कितना नुकसान किया है. इस तरह की तमाम अन्य प्रवृत्तियाँ कांग्रेस में आने वाले लोगों में अगर बची रह गयी हों तो कांग्रेस संगठन का भी बेड़ाग़र्क कर सकती हैं.
स्वाभाविक रूप से एक ख़ास किस्म की राजनीतिक ट्रेनिंग आपका समूचा व्यक्तिव गढ़ती है. इसका प्रभाव कैडर की राजनीतिक विचारधारा पर ही नहीं बल्कि दुनिया को समझने के नज़रिये, रोजमर्रा की भाषा, राजनीतिक तेवर और सामाजिक व्यवहार पर भी बहुत गहराई से पड़ता है.
लेफ़्ट और राईट यानी दोनों ही कैडर आधारित संगठनों, जहाँ बहुत कड़ा राजनीतिक प्रशिक्षण होता है, पर ख़ासतौर से यह बात लागू होती है. थोड़े समय तक वामपंथ या दक्षिणपंथ के प्रभाव में आये लोगों पर यह बात लागू नहीं होती है. लेकिन जिनका समूचा वैचारिक विकास इन सगठनों के साए में होता है, उनके व्यक्तित्व में उनकी ट्रेनिंग दूध और पानी की तरह घुल जाती है.
कोई भी व्यक्ति नयी पार्टी कब ज्वाइन करता है? पहली वजह— किसी अच्छे अवसर की तलाश में कोई अपने मूल्यों, आस्थाओं और विचारों से समझौता कर ले. सामान्य भाषा में इसे ‘अवसरवाद’ तथा वामपंथी शब्दावली में ‘समझौतावाद’ या ‘संशोधनवाद’ कहा जाता है.
दूसरी, जब उसे अहसास हो जाये कि उसकी मूल पार्टी अपनी समकालीन चुनौतियों का सामना करने में असमर्थ है या हो चुकी है. ऐसी स्थिति में वो एक नयी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत करने का निश्चय करता है. नए राजनीतिक परिवेश, संस्कृति और परंपरा के साथ तारतम्य बिठाने के लिए वो या तो अपनी मूल स्थापनाओं को तिलांजलि देता है या फिर उनको चुनौती देते हुए एक नयी विचारधारात्मक यात्रा पर निकल पड़ता है.
इस यात्रा की बुनियादी शर्त ही यह है कि व्यक्ति नया सोचने और नया सीखने के लिए मानसिक रूप से तैयार है. राजनीतिक दृष्टि से कहें तो यही उसके मेटामॉर्फ़ोसिस या कायापलट की शुरुआत है. कई लोग इस प्रक्रिया का सामना करने से हिचकते हैं और राजनीतिक रूप से निष्क्रिय हो जाते हैं.
कम्युनिस्ट पॉलिटिक्स के कई लोग इस ‘डॉग्मा’ को तोड़ नहीं पाते और ख़ुद को महज़ बौद्धिक गतिविधियों तक समेट लेते हैं. क्योंकि लम्बे समय तक गाँधीजी को “मैस्कॉट ऑफ़ बुर्जुआज़ी” और “जोनाह ऑफ़ रेवोलुशन” मानने के बाद अचानक उनमें एक क्रांतिकारी की खोज एक जटिल और लम्बी बौद्धिक प्रक्रिया है.
इसलिए धुर कम्युनिज्म की रेडिकल ट्रेनिंग से निकलकर वाया अन्ना आन्दोलन और आम आदमी पार्टी उत्तर प्रदेश कांग्रेस पर कब्ज़े की कोशिशों की इंटेलेक्चुअल ट्रेजेक्टरी (वैचारिक प्रक्षेपपथ), गाँधी-नेहरू का प्रतिबद्ध शिष्य होने के नाते, ट्रेस करना एक ख़ालिस राजनीतिक सवाल है, व्यक्तिगत नहीं. यह तय है वैचारिक कायापलट के बिना किसी पार्टी संगठन पर आकर प्रभुत्व जमाने की कोई सतही कोशिश अर्थ का अनर्थ कर देती है.
ऐसे समझिये कि कोई पुरानी पार्टी का दिल-दिमाग और गुर्दा लाकर नयी पार्टी के शरीर में ज़बरदस्ती फिट करने की कोशिश करे और मरीज़ की हालत सुधरने के बजाय बिगड़ती चली जाए. कांग्रेस की गाँधीवादी और नेहरूवादी छवि के नीचे जाने-अनजाने उत्तर प्रदेश कांग्रेस की एक ऐसी सर्जरी चल रही है जो दरअसल पोस्टमॉर्टेम न बन जाए, यही चिंता है.