-सुनील कुमार।।
हिन्दुस्तान में कोरोना जिस रफ्तार से आगे बढ़ रहा है, न चाहते हुए भी आज फिर इसी मुद्दे पर लिखना पड़ रहा है। खतरा इतना बड़ा है कि लोगों को सावधान करना जरूरी है। यह हमारी जिंदगी में देखा हुआ पहला ऐसा मौका है जब आसपास, या दूर-दूर के लोगों की कोई चूक भी दूसरों की जिंदगी ले सकती है। कोरोना की मौत मरने के लिए आपका लापरवाह होना जरूरी नहीं है, आसपास के किसी का भी लापरवाह होना काफी है। और ऐसे आसपास में परिवार के लोग हो सकते हैं, दफ्तर या कारोबार के लोग हो सकते हैं, या ऐसे दोस्त-परिचित भी हो सकते हैं जिनके साथ अब लोग घूमते-फिरते नजर आने लगे हैं, और शायद कल से रेस्त्रां में खाते हुए भी दिखने लगेंगे। ऐसे में खतरा बहुत रफ्तार से बढऩे जा रहा है। लोगों को आज इसका अहसास नहीं है, जबकि हम इसी जगह पर पिछले महीनों में लगातार इस खतरे के बारे में लिखते आए हैं।
अब हर कुछ घंटों में छत्तीसगढ़ जैसे अब तक कम कोरोनाग्रस्त चले आ रहे राज्य में दर्जनों नए कोरोना पॉजिटिव निकल रहे हैं। अभी कुछ मिनट पहले राजधानी रायपुर में तीन दर्जन कोरोना पॉजिटिव अकेले एम्स की जांच में निकले हैं, और अभी राज्य शासन की जांच के आंकड़े आना बाकी ही हैं। यह राज्य कल तक सुरक्षित लग रहा था, लेकिन आज यह जंगल के हिरण की तरह तेज छलांगें लगाकर कोरोना का अपना ही रिकॉर्ड हर सुबह-शाम तोड़ रहा है। अब राज्य में हर दिन एक-एक मौत भी सामने आ रही है, जो कि दूसरे कई राज्यों के मुकाबले कुछ भी नहीं है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि एक-एक करके हर कस्बे और हर इलाके के गांव से ऐसे पॉजिटिव आ रहे हैं जो कि हाल ही में राज्य में लाखों की संख्या में लौटे हुए प्रवासी मजदूरों के बीच के हैं। मतलब यह कि ढाई लाख से अधिक लोग लौटने के बाद क्वारंटीन में रखे गए थे, और इनमें से बहुत से अभी तक खतरे के बाहर साबित नहीं हुए हैं। फिर गणित के इस गुणा को समझना चाहिए कि एक नया कोरोना पॉजिटिव शहर के एक किलोमीटर इलाके को या एक पूरे गांव-कस्बे को सील बंद कर दे रहा है, और आसपास के दर्जनों लोगों को क्वारंटीन में भेज दे रहा है।
इससे बचाव का तरीका डॉक्टरों के हाथ में नहीं हैं। डॉक्टर तो लोगों के अस्पताल पहुंच जाने के बाद उनको मरने से बचाने की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन उसके पहले का जहां तक सवाल है, तो वह तो लोगों को खुद ही करना है। अगर लोगों को खतरे का अहसास नहीं हो रहा है तो उन्हें एक सदी पहले की भारत की महामारी का इतिहास पढऩा चाहिए, उससे अक्ल ठिकाने आ जाएगी। उस वक्त के प्लेग के मुकाबले आज का कोरोना कहीं अधिक बेकाबू है, लोगों की आवाजाही और सामाजिक संपर्क उस वक्त के मुकाबले कई गुना अधिक हैं, और लोगों पर खतरा उस वक्त के मुकाबले बहुत ज्यादा है।
1921 की जनगणना में हिन्दुस्तान की आबादी पच्चीस करोड़ तेरह लाख थी, और 1918 के प्लेग में एक करोड़ चालीस लाख से अधिक लोग मारे जा चुके थे। इन आंकड़ों से अगर आज हिन्दुस्तानी लोगों को कोई नसीहत लेना है, तो यह अंदाज लगाना है कि कोई महामारी कितनी जिंदगियां ले सकती है, तो यह अंदाज लगा लें। अगर 1911 की जनसंख्या को देखें तो वह पच्चीस करोड़ बीस लाख थी, मतलब यह कि दस बरस बाद की जनसंख्या में दस लाख लोग घटे हुए मिले, और बढ़ी हुई आबादी कुछ भी नहीं मिली क्योंकि इस बीच महामारी में इतनी मौतें हो चुकी थीं।
आज जिन लोगों को यह लग रहा है कि जिंदगी पर से सरकारी रोक-टोक घट रही है, उन्हें यह खुशफहमी नहीं पाल लेना चाहिए कि यह कोरोना का खतरा घट रहा है। दरअसल हिन्दुस्तान में कोरोना का खतरा बढ़ते जा रहा है और जैसा कि हमने लिखा है, ऐन इसी वक्त सरकारी रोक-टोक घटती चली जा रही है। इन दोनों बातों को मिलाकर देखें तो नौबत भयानक होने वाली है, और सरकारी रोक-टोक घटने को लोग अपने बाहर निकलने की वजह बढऩा न बनाएं। लोगों को बहुत ही गंभीरता से और बहुत ही ईमानदारी से पहले के मुकाबले बहुत अधिक सावधान रहने की जरूरत है, क्योंकि खतरा आज पहले के मुकाबले, हफ्ते भर पहले के भी मुकाबले बहुत अधिक बढ़ चुका है, और लोगों की धड़क पहले के मुकाबले खुल चुकी है। लोग सरकारी छूट को खतरा घटना मान रहे हैं जो कि बिल्कुल ही नहीं है। हम कल इसी जगह लिखे गए तथ्यों और तर्कों को दुबारा दोहराना नहीं चाहते हैं, लेकिन आज जिस तरह से हमारे खुद के शहर में एकमुश्त तीन दर्जन पॉजिटिव मिले हैं, उसे देखते हुए हम इस मुद्दे को आज लगातार दूसरे दिन दुहरा रहे हैं, क्योंकि लोग यहां बेफिक्र होते दिख रहे हैं, खतरे को बढ़ाते हुए दिख रहे हैं।
सरकारों के सामने काम-धंधों को छूट देने की एक बेबसी है, और हिन्दुस्तान में घरों में रहना, सावधानी से काम करना, मोटेतौर पर संपन्न तबके के लिए ही मुमकिन बात है। जो सरकारी कर्मचारी हैं और कोरोना के मोर्चे पर तैनात हैं, उनकी सावधानी की एक सीमा ही हो सकती है, उसके बाद तो वे खतरे में हैं ही। आम लोग जिंदा रहने के लिए काम करने को बेबस हैं, छत्तीसगढ़ में करीब ढाई लाख लोग क्वारंटीन में हैं, और हर दिन उनमें से दर्जनों लोग कोरोना पॉजिटिव निकल रहे हैं। इनके साथ-साथ नए-नए इलाके न सिर्फ कोरोना के खतरे से घिर रहे हैं बल्कि सरकार के लिए भी नई-नई, और बढ़ी हुई चुनौतियां लेकर आ रहे हैं क्योंकि जिस तरह लोगों में साफ-सफाई को लेकर अब इन महीनों के बाद थकान आ चुकी है, लोग लापरवाह हो चुके हैं, उसी तरह सरकारी मशीनरी भी रात-दिन काम करते हुए, खतरा झेलते हुए संवेदनशीलता खोने लगेगी। नतीजा यह होगा कि खतरा बढ़ेगा, निजी लापरवाही बढ़ेगी, साफ-सफाई घटेगी, और सरकारी सेवाभाव या चौकन्नापन भी घटेगा। इनमें से किसी भी बात पर डॉक्टरी काबू नहीं है। यह पूरे का पूरा खतरा अस्पताल के बाहर का रहेगा, और इतने बढ़े हुए खतरे के अस्पताल पहुंचने पर उसका इंतजाम भी मुमकिन नहीं होगा। जिन लोगों को पढ़ा हुआ नहीं है, उन्हें अभी दो महीने पहले की इटली की खबर याद दिला दें कि किस तरह वहां पर अस्पतालों में बढ़ती चली जा रही मरीजों की भीड़ को देखते हुए सरकार ने डॉक्टरों को लिखकर यह सलाह दी थी कि जिन मरीजों के जिंदा रहने की गुंजाइश अधिक दिखती है, उन्हीं पर ध्यान दें। इस बात का सीधा-सीधा मतलब यह था कि दूसरी गंभीर बीमारियों वाले, या अधिक उम्रदराज लोगों पर ध्यान न दें। हिन्दुस्तान तो इटली के मुकाबले कम स्वास्थ्य सेवा वाला, और बहुत ही अधिक आबादी के घनत्व वाला देश है, और यहां हालात बेकाबू होने पर पैसे वालों को भी अस्पताल में वेंटिलेटर मिल पाएगा इसकी कोई गारंटी नहीं है। निजी अस्पतालों का हाल तो देश की राजधानी दिल्ली में केन्द्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट की आंखों के सामने दिख रहा है, जहां मरीजों को भगाया जा रहा है, और जहां मरीजों को लेने के लिए केजरीवाल सरकार ने कल ही बहुत कड़े कानून का इस्तेमाल किया है।
लोग सावधानी की जरूरत को जिंदगी और मौत की तरह लेकर चलें। हम लोगों के थक जाने की हद तक इसी मुद्दे पर लिख रहे हैं क्योंकि यह लोगों की जिंदगी बचाने के लिए एक जरूरी मुद्दा है। इसे न सिर्फ पढ़ें, बल्कि आसपास के लोगों को भी बांटें, ताकि वे सरकारी ढील को बाहर निकलने का हुक्म न मान लें, वह सिर्फ एक विकल्प है, उस जरूरत से बचने की कोशिश करें, और अपने आसपास के सारे दायरे में लोगों के साथ बहुत कड़ाई बरतते हुए उन्हें भी कोरोना-सावधानी का पालन करने के लिए कहें।