अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत को जी-7 की बैठक में आमंत्रित करना चाहते हैं, जो अगर सब कुछ ठीक रहा तो, शायद सितंबर में होगी। लेकिन उससे पहले भारत बी-7 या सी-7 में शामिल हो चुका है। बी से बीमार, सी से कोरोना। जी हां, बीते तीन दिनों में रोजाना 8 हजार से अधिक मामलों के सामने आने के साथ ही भारत ने कोरोना प्रभावित देशों की सूची में छलांग लगाते हुए सातवां स्थान हासिल कर लिया है। हमसे थोड़ा आगे इटली है। इस वक्त जिस तेजी से मामले बढ़ रहे हैं और जिन मूर्खतापूर्ण तर्कों के साथ फैसले लिए जा रहे हैं, उसमें कोई आश्चर्य नहीं कि भारत जल्द ही अमेरिका को टक्कर देता नजर आएगा, जो इस वक्त डोनाल्ड ट्रंप के मसखरे और बचकानापूर्ण रवैये के कारण शीर्ष पर चल रहा है।
भारत में आम जनता तो अपने स्वास्थ्य को लेकर चिंतित है, लेकिन उसकी चिंता की जिम्मेदारी जिस सरकार पर है, वो अब भी लफ्फाजी में ही लगी हुई है। आज प्रधानमंत्री ने फिर कहा कि कोरोना वायरस अदृश्य शत्रु है, लेकिन कोरोना योद्धा भी अजेय हैं जो इस लड़ाई में निश्चित रूप से जीत हासिल करेंगे। पता नहीं इस तरह की बातें वे किस आधार पर करते हैं। उनका अतिआशावादी होना अच्छी बात है, लेकिन सफलता भी तभी मिलती है, जब उसके लिए प्रयास किए जाएं। हम जीतेंगे का गान करते हुए प्रधानमंत्री खुद को दिलासा देते हैं या जनता को भ्रम में रखते हैं।
क्या वाकई प्रधानमंत्री को हालात की गंभीरता का अंदाज नहीं है, क्या वे विशेषज्ञों की बातें सुन नहीं रहे हैं, या सुनना-समझना नहीं चाहते। कोरोना कोई चुनावक्षेत्र तो है नहीं, जहां भावनात्मक मुद्दे उछालकर अपनी जीत सुनिश्चित की जा सकती है। इस गंभीर समस्या से निपटने में या उसे रोकने में तभी सफलता मिल सकती है, जब इस विषय के जानकारों से चर्चा की जाए, उनकी राय को सुना और माना जाए। यह खेद की बात है कि अपनी बहुमत वाली जीत में सरकार इतनी अहंकारी हो चुकी है, कि वह विशेषज्ञों को कुछ मानती ही नहीं।
भाजपा सरकार के पिछले कार्यकाल में जब अर्थव्यवस्था नोटबंदी और जीएसटी के कारण तबाह हो गई थी, तब भी अर्थशास्त्रियों ने सरकार को सलाह दी थी। तब मोदीजी ने हार्डवर्क बनाम हार्वर्ड का जुमला इन विशेषज्ञों का मखौल बनाने के लिए उछाला था। अपने से अलग विचार रखने वालों का अपमान करके थोड़ी देर का मजा लिया जा सकता है, लेकिन इससे लंबे वक्त तक सजा जैसे हालात भुगतने पड़ते हैं। नोटबंदी के वक्त देश ने ऐसी ही सजा भुगती और अब कोरोना के वक्त भी जनता ही पिस रही है। मोदीजी मनमाने फैसले ले रहे हैं और जानकारों की बात नहीं सुनकर महामारी को महात्रासदी में बदलने का मौका दे चुके हैं।
इंडियन पब्लिक हेल्थ एसोसिएशन, इंडियन एसोसिएशन ऑफ प्रिवेंटिव एंड सोशल मेडिसिंस और इंडियन एसोसिएशन ऑफ एपिडेमिओलॉजिस्ट, इन तीन संस्थाओं ने हाल ही में कोरोना से निपटने की सरकार की कार्यशैली की आलोचना की है।
चिकित्सकों और स्वास्थ्यकर्मियों की इन संस्थाओं ने एक बयान जारी किया है, जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डाक्टर हर्षवर्धन के साथ-साथ तमाम राज्य सरकारों को भेजा गया है। सरकार की कोविड-19 नेशनल टास्क फोर्स के महामारी विशेषज्ञ समूह के प्रमुख डॉक्टर डीसीएस रेड्डी और एक अन्य सदस्य डॉक्टर शशि कांत भी इस बयान के हस्ताक्षरकर्ताओं में शामिल हैं। इन संस्थाओं का कहना है कि बिना सोची-समझी लागू की कई नीतियों के कारण देश मानवीय त्रासदी और महामारी के फैलाव के मामले में भारी $कीमत अदा कर रहा है। संस्थाओं ने कहा है कि बेहद सख्त तालाबंदी के बावजूद न सिर्फ कोरोना के मामले दो महीने में 606 से बढ़कर एक लाख अड़तीस हजार से अधिक (मई 24 तक) हो गए हैं बल्कि अब ये ‘कम्युनिटी ट्रांसमिशन’ के स्टेज पर है।
जबकि सरकार महामारी के कम्युनिटी ट्रांसमिशन के स्टेज पर पहुंचने की बात से इनकार करती रही है। इस बयान में कहा गया है कि लॉकडाउन ने कम से कम 90 लाख दिहाड़ी मजदूरों के पेट पर लात मारी है। भोजन के अधिकारों के लिए काम करनेवाली संस्था- राइट टू फूड के मुताबि$क तालाबंदी के चलते 22 मई तक देश भर में भूख, दुर्घटना और इस तरह के कई कारणों से 667 मौतें (कोरोना बीमारी से अलग) हो चुकी हैं। इतनी मौतों को रोका जा सकता था, अगर मोदीजी ने अचानक लॉकडाउन का फैसला न लिया होता।
इंडियन पब्लिक हेल्थ एसोसिएशन की जनरल सेक्रेटरी डॉक्टर संघमित्रा घोष ने बीबीसी को बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चिकित्सकों और स्वास्थ्य क्षेत्र के विशेषज्ञों की एक टीम को कोविड-19 पर विचारों के आदान-प्रदान के लिए 24 मार्च को बुलाया था लेकिन लगता है कि लॉकडाउन को लेकर फैसला पहले ही हो चुका था। उस वक्त मोदीजी के इस फैसले की विश्वव्यापी स्तर पर तारीफ हुई थी। हालांकि किसी फैसले का सही या गलत होना, उसके परिणाम पर निर्भर करता है, इस लिहाज से मोदीजी का तालाबंदी का फैसला गलत साबित हुआ।
लेकिन तारीफ करने वालों को न जाने किस बात की हड़बड़ी थी या यह भी शायद कोई पब्लिसिटी स्टंट था। तालाबंदी के कारण न केवल कामगार बेरोजगार हुए, बल्कि भूख का संकट पहले से अधिक गहरा गया और अब उसका दुष्परिणाम गर्भवती महिलाओं और छोटे बच्चों को भुगतना होगा। जॉन हॉप्किंस ब्लूमबर्ग स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ (अमेरिका) द्वारा किए एक अध्ययन के मुताबिक कोविड-19 के कारण जिस तरह से मातृत्व और बाल स्वास्थ्य-पोषण सेवाओं में रुकावट आई है, उससे भारत में छह महीनों में 3 लाख बच्चों की कुपोषण और बीमारियों के कारण 14,388 महिलाओं की मातृत्व मृत्यु हो सकती है।
सरकार ने 20.97 लाख करोड़ रुपये का जो राहत पैकेज जारी किया, उसमें एक रुपये का भी आबंटन कुपोषण और मातृत्व हक के लिए नहीं किया। क्या भूखे, बीमार बच्चों और महिलाओं के साथ देश आत्मनिर्भर बन सकता है। या सरकार इनका भी पेट अपनी बातों से भरने का जादू जानती है।
सरकार माने न माने, लेकिन तालाबंदी के परिणाम जो भुगत रहे हैं, उनसे बेहतर कोई नहीं समझ सकता कि यह फैसला कितना गलत था। और अब इस गलती को अनलॉक 1 का फैसला लेकर और बढ़ाया जा रहा है। जब म•ादूर थे तो सारे उद्योग-धंधे बंद कर दिए। अब मजदूर चले गए तो कह रहे हैं कि उद्योग-धंधे चालू करो। जब मामले कम थे, तो कामगारों को जबरन रोका गया, लेकिन जब वे किसी तरह अपने घर पहुंचे तो बहुत से अपने साथ कोरोना संक्रमण भी लेकर गए। अगर सरकार ने ध्यान दिया होता तो देश के ग्रामीण इलाकों तक कोरोना को फैलने से रोका जा सकता था। पर तब सरकार का ध्यान मध्यप्रदेश में सरकार गिराने और उसके बाद ताली बजाकर, दिए जलाकर लोकप्रियता मापने का था। अब जबकि सबके चेहरे मास्क से ढंक गए हैं, तो सरकार के चेहरे का नकाब उतर रहा है।
(देशबन्धु)
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