-सुनील कुमार।।
दिल्ली के फुटपाथ से हिन्दुस्तानियों की बेशर्मी का एक दमदार वीडियो सामने आया जिसमें एक आम बेचने वाले के सारे आम लोग लूट-लूटकर ले गए। कई दिनों के लॉकडाऊन के बाद कहीं से 30 हजार रूपए जुटाकर उसने आम खरीदे थे, और आसपास के संपन्न लोग दिनदहाड़े खुली रौशनी में हाथों में भर-भरकर आम लूटकर चले गए। अभी कुछ अरसा पहले छत्तीसगढ़ का एक वीडियो आया था जिसमें मुर्गियों से भरी हुई एक ट्रक पलट गई थी, और लोग मुर्गियां लूटकर ले गए, भीड़ के सामने ड्राइवर भी कुछ नहीं कर पाया। ऐसा कई मौकों पर होता है, खासकर जब फल-सब्जी, या दारू की बोतलों से भरी कोई ट्रक पलट जाए, तो हिन्दुस्तानी उसमें कुछ बाकी नहीं छोड़ते। कई बरस पहले के ये समाचार याद हैं जिनमें किसी रेल हादसे के बाद आसपास के गांवों के लोगों ने आकर घायलों और लाशों के बदन से घडिय़ां और गहने भी उतार लिए थे। हराम का मिले, तो हिन्दुस्तानी दौड़ में अव्वल रहते हैं। लेकिन यह बात हर हिन्दुस्तानी पर लागू होती हो ऐसा भी नहीं है। अभी जब करोड़ों मजदूरों की घरवापिसी हो रही है, तो उनकी मदद के लिए सड़कों पर सामान लेकर खड़े हुए लोगों का तजुर्बा यह है कि अपनी जरूरत से अधिक पानी की बोतल या खाने का सामान लोग नहीं ले रहे। जबकि सैकड़ों किलोमीटर का पैदल सफर बाकी है, और रास्ते में खाने-पीने का कोई ठिकाना भी नहीं है, लेकिन लोग कुछ घंटों की जरूरत से ज्यादा सामान नहीं बटोर रहे। यह फर्क क्यों है इसे बंद कमरे से लिखना तो ठीक नहीं है, लेकिन अंदाज हमारा यह है कि अधिक मेहनत करने वाले हरामखोरी कम करते हैं, या नहीं करते हैं।
हिन्दुस्तानी शहरों को देखें तो जब किसी त्यौहार पर सड़क किनारे कई जगह भंडारे लगते हैं, और लोगों को दोना-पत्तल में प्रसाद या खाना मिलता है, तो अच्छी-खासी लाख-पचास हजार रूपए की मोटरसाइकिल किनारे रोक-रोककर लोग टूट पड़ते हैं, और अधिक से अधिक खाकर फिर अगले भंडारे तक जाते हैं, और वहां भी खाना खत्म करने के अभियान में लग जाते हैं। यह मुफ्तखोरी निहायत गैरजरूरी होती है, और भूखे मजदूरों की मजबूरी से बिल्कुल अलग भी होती है जो कि तीन-तीन, चार-चार दिन के ट्रेन सफर में खाने का कोई भी इंतजाम न रहने पर दो-चार जगहों पर खाना लूटते भी देखे गए हैं। भूख की बुरी हालत में पेट भरने के लिए किया गया कोई भी जुर्म हम जुर्म नहीं मानते, महज खाने तक सीमित जुर्म कोई जुर्म नहीं है। फर्क यही है कि भूखे और बेबस, अनिश्चितता के शिकार मजदूर अपवाद के रूप में कहीं लूट रहे हैं, तो भरे पेट वाले लोग अपने इलाके में पलटी किसी ट्रक को लूटने में इस हद तक जुट जाते हैं, कि पेट्रोल टैंकर से बिखरे पेट्रोल को बटोरने के चक्कर में आग लगने से भी बहुत से लोग मारे जाते हैं।
दिल्ली में आम की लूट बहुत ही परले दर्जे की हरामखोरी रही, और इस पर मामूली लूट से सौ गुना बड़ी सजा होनी चाहिए, क्योंकि गाडिय़ां रोक-रोककर लोग एक गरीब दुकानदार के आम लूट रहे थे। और इन तमाम लुटेरों के घर भरे हुए थे, और वे स्वाद के लिए जुर्म कर रहे थे, पेट भरने के लिए नहीं, वे अपने से गरीब के खिलाफ जुर्म कर रहे थे, किसी बड़े के खिलाफ नहीं। यह तो वीडियो सुबूत होने की वजह से इनमें से चार लोग गिरफ्तार हुए हैं, और कुछ और लोग भी हो सकते हैं। इस खबर के साथ एनडीटीवी ने इस फुटपाथी फलवाले से बातचीत प्रसारित की थी, और उसका बैंक खाता नंबर भी लिखा था क्योंकि लॉॅकडाऊन से बुरे हाल में आए हुए इस फलवाले के पास कुछ नहीं बचा था। एक जिम्मेदार मीडिया की अपील पर उसके खाते में आठ लाख रूपए आ गए क्योंकि हिन्दुस्तान में कुछ लोग जिम्मेदार भी हैं। अब अदालत को ऐसे संपन्न आम लुटेरों से मोटा जुर्माना लेकर इस फलवाले को दिलवाना चाहिए।
हिन्दुस्तानी मिजाज में मुफ्तखोरी का कोई अंत नहीं है। लोग ट्रेनों में मिलने वाले कंबल और टॉवेल से जूते पोछे बिना ट्रेन से नहीं उतरते, और उस वक्त वे यह भी फिक्र नहीं करते कि अगली बार उन्हें जो चादर-कंबल मिलेगा वह अगर किसी और के जूते साफ किया हुआ होगा तो क्या होगा? यह तो अच्छा हुआ कि अब कोरोना की दहशत में हिन्दुस्तान में मुफ्तखोरी, हरामखोरी, और चीजों का बेजा इस्तेमाल कुछ घटेगा क्योंकि लोगों को अपनी नीयत और अपने हाथ अपने काबू में रखना मजबूरी लगेगा। जो सबसे बेबस नहीं हैं, वे ही लूटपाट कर रहे हैं, वरना मजदूरों की भीड़ जिन रास्तों से गुजर रही थी, वहां अगर वे अपनी जरूरत के मुताबिक सामान लूट भी लेते, तो भी कोई ज्यादती नहीं होती।
धार्मिक और सामाजिक संगठनों को, दानदाताओं को भी एक बात सोचना चाहिए कि प्रसाद या भंडारे के नाम पर वे लोगों को मुफ्तखोर न बनाएं। आस्था के लिए तो बहुत थोड़ा सा प्रसाद भी दिया जा सकता है, और वह इतना कम हो कि मोटरसाइकिलें रोकने वालों का उत्साह न रहे तो बेहतर है। मुफ्त का खाना पाने के लिए बड़े अस्पतालों के बाहर रोज बंटने वाले खाने की कतार में बहुत से लोग लग जाते हैं जिनका अस्पताल से कुछ लेना-देना नहीं है, या जो गरीब भी नहीं हैं। जो लोग खरीदकर खा सकते हैं वे भी मुफ्त का मिलने पर कतार में लग जाते हैं। अभी छत्तीसगढ़ में एक होटल के बंद होने से उसके पौने दो सौ कर्मचारी दो महीने से वहीं डटे हुए हैं। होटल मालिक ने उनके खाने का पूरा इंतजाम किया है। इन कर्मचारियों में से कुछ दर्जन पास के एक गांव में किराए के मकानों में रहते हैं। अभी लॉकडाऊन की वजह से जब सरकार मुफ्त राशन बांटने लगी, तो गांव के बाकी लोगों के साथ-साथ ये दर्जनों लोग भी कतार में लगकर राशन ले चुके थे। बाद में प्रशासन को पता लगा तो उन्होंने होटल मालिक को बताया, जो दो महीनों से इन कर्मचारियों को मुफ्त में तीन वक्त खिलाते आया है। इसके बाद इन कर्मचारियों की लिस्ट लेकर उनको मिले अनाज की भरपाई होटल मालिक ने प्रशासन को की। कर्मचारियों का जवाब था कि मुफ्त में मिल रहा था तो वो कतार में लग गए थे।
हिन्दुस्तानी अपनी नीयत को तौलें कि वे कहीं मुफ्तखोर से हरामखोर के बीच तो नहीं आते हैं, इस दायरे से बाहर रहना ही ठीक है।